पुरुष प्रधान इस समाज
में महिलाओं के सम्मान और उनके मूलभूत अधिकारों के साथ खिलवाड़ होना कोई नई
बात नहीं है. आए-दिन हमारा सामना ऐसी घटनाओं से होता रहता है जो महिलाओं पर
होने वाले अत्याचारों, उनके दयनीय पारिवारिक हालातों को स्वत: हमारे समक्ष
प्रस्तुत कर देते हैं. घरेलू हिंसा, बलात्कार, शोषण, छेड़खानी आदि कुछ ऐसे
अपराध हैं जो महिलाओं के अस्तित्व और उनके मान-सम्मान पर प्रश्न चिह्न लगा
देते हैं.
ऐसे
हालातों के मद्देनजर अगर यह कहा जाए कि महिला चाहे घर में हो या बाहर,
दोनों ही जगह वह सुरक्षित नहीं है, तो गलत नहीं होगा. जहां परिवार के भीतर
उसे अपने पति या फिर सास-ससुर के कोप का सामना करना पड़ता है तो घर के बाहर
उसे भोग की वस्तु समझने वालों की भी कोई कमी नहीं है. हालांकि विवाह के
पश्चात अधिकांश पुरुष भी अपनी पत्नी को इसी रूप में देखते हैं लेकिन फिर भी
विवाह का नाम देकर उनके इस मनोविकार को खारिज कर दिया जाता है. लेकिन जब
कोई महिला घर की चारदिवारी के बाहर कदम निकालती है तो उसे हर समय अपने
सम्मान को खो देने का भय ही सताता रहता है. आज शायद ही कोई ऐसा राष्ट्र,
कोई शहर हो जहां महिलाएं बिना किसी परेशानी या डर के बाहर विचरण कर सकें.
लेकिन
हमारा यह सोच लेना कि महिलाएं सिर्फ घर के बाहर या अपरिचित लोगों से ही
असुरक्षित हैं, घर के भीतर या अपनों के संरक्षण में उन्हें कोई हानि नहीं
पहुंचती, तो यह हमारी नासमझी है. आंकड़ों पर गौर करें तो यह साफ प्रमाणित
होता है कि अधिकांश लड़कियां अपने परिवारवालों या फिर परिचितों की ही घृणित
और विकृत मानसिकता का शिकार होती हैं. वे संबंधी जिन पर वह विश्वास करती
हैं, प्राय: देखा जाता है कि वही उनकी आबरू के साथ खिलवाड़ करते हैं. उन्हें
बहका कर या डरा कर वह उनका शोषण करते रहते हैं.
उल्लेखनीय
है कि ऐसे लोग छोटी और नासमझ बच्चियों को ही अपना शिकार बनाते हैं. वह
जानते हैं कि बच्चियां जल्दी उनके बहकावे में आ जाएंगी और डर के कारण
परिवार वालों को भी कुछ नहीं बताएंगी. ऐसे घृणित मानसिकता वाले लोग जब
चाहे, जितनी बार चाहे शारीरिक और मानसिक रूप से अपरिपक्व बच्चियों का शोषण
करते रहते हैं. बात खुल भी जाए तो परिवार वाले भी अपनी मान-मर्यादा और
संबंधों की दुहाई देकर इस बात को वहीं दबा देते हैं. ऐसा कर वह जहां अपनी
बच्ची के भविष्य और उसके सम्मान के साथ हुए खिलवाड़ को नजरअंदाज करते हैं
वहीं आगामी हालातों के नकारात्मक प्रभावों को नहीं समझ पाते. हम चाहे
पीड़िता से कितनी ही हमदर्दी क्यों ना रख लें लेकिन हम कभी उसकी मानसिक और
शारीरिक पीड़ा को समझ नहीं सकते.
एक नए
अध्ययन के अनुसार जिन बच्चियों का बार-बार शारीरिक शोषण होता है वह ना
सिर्फ मानसिक और शारीरिक रूप से आहत होती हैं बल्कि इससे उनके स्वास्थ्य पर
भी नकारात्मक प्रभाव पड़ता है.
ब्रिघम
यूनिवर्सिटी द्वारा हुए इस सर्वेक्षण में यह बात प्रमाणित हुई है कि बचपन
या युवावस्था में जिन महिलाओं ने लगातार होते शारीरिक शोषण और बलात्कार का
सामना किया है उनके अन्य महिलाओं से लगभग 62 प्रतिशत हृदयघात की संभावना बढ़
जाती है. इन आंकड़ों में उन महिलाओं को शामिल नहीं किया गया है जो एक सीमित
या कभी-कभार होते शोषण का शिकार हुई हैं.
इस
अध्ययन से जुड़े मुख्य शोधकर्ता और सहायक चिकित्सीय प्रोफेसर जेनेट रिच
एडवर्ड का कहना है कि बार-बार होते शारीरिक शोषण के कारण युवावस्था और
वयस्कता में महिलाओं का शारीरिक भार बहुत ज्यादा बढ़ जाता है, जो उनके हृदय
गति और क्रिया को प्रभावित करता है. यही कारण है कि ऐसी महिलाएं जल्दी
हृदयघात की चपेट में आ जाती हैं.
इस
अध्ययन के अंतर्गत वर्ष 1989-2007 तक बलात्कार और शारीरिक शोषण के आंकड़ों
को शामिल किया गया. ऐसी महिलाओं की संख्या लगभग 67 हजार थी जिनका बचपन या
युवावस्था में शारीरिक शोषण हुआ था. इनमें से ग्यारह प्रतिशत महिलाओं को
बचपन में यौन शोषण का सामना करना पड़ा वहीं नौ प्रतिशत महिलाएं शारीरिक
हिंसा का शिकार हुई थीं.
शोधकर्ताओं
का कहना है कि वे महिलाएं जो ऐसी अमानवीय परिस्थितियों का सामना करती हैं
उन्हें इसके दर्द और बुरे अनुभव से उभरने के लिए अपना शारीरिक और भावनात्मक
रूप से ध्यान रखने की जरूरत अपेक्षाकृत अधिक होती है.
उपरोक्त
अध्ययन भले ही विदेशी महिलाओं से जुड़े आंकड़ों के आधार पर संपन्न किया गया
हो लेकिन अगर हम भारतीय परिवेश पर नजर डालें तो दुर्भाग्यवश यह संख्या बहुत
अधिक हो सकती है. कितनी ही बच्चियां अपने किसी विश्वसनीय पड़ोसी या
रिश्तेदार की हवस का शिकार हो जाती हैं. कितनी ही युवतियां ऐसी हैं जिन्हें
दोस्त पर भरोसा करना बहुत भारी पड़ जाता है. आए-दिन महिलाएं बलात्कार का
शिकार होती ही रहती हैं. ऐसी घटनाएं यह साफ बयां करती है कि समाज चाहे
कितना ही आधुनिक क्यों ना हो जाए, पुरुषों द्वारा महिलाओं पर अत्याचार होना
आज भी उतनी ही प्रमुखता से अपनी जड़ें जमाए हुए है. शिक्षा, कानूनी रूप से
समान अधिकार ऐसी परिस्थितियों में कोई मायने ही नहीं रखते. परिवार वाले
जहां अपनी बच्चियों की दशा को ऐसे ही स्वीकार कर लेते हैं वहीं पुरुष पर
अंगुली उठाना हमारी परंपरा में है ही नहीं. बचपन से ही हम अपने बच्चों को
यही शिक्षा देते हैं कि लड़के परिवार का भविष्य होते हैं. आगे चलकर वही
परिवार को संभालते हैं. पुरुष जैसे चाहे महिलाओं के साथ व्यवहार करे लेकिन
महिला कभी उसके विरुद्ध आवाज नहीं उठा सकती.
हम
सोचते हैं कि ऐसी शिक्षा परिवार के स्थायित्व और संतुलन को बनाए रखेगी,
लेकिन वास्तविकता यही है कि ऐसी सोच ही महिलाओं पर होने वाले अत्याचारों को
बढ़ावा देती है. बचपन की सीख ही पुरुषों को आगे चलकर महिलाओं पर अत्याचार
करने की हिम्मत देती है. कानून भले ही महिलाओं को पुरुषों के बराबर अधिकार
प्रदान करता हो लेकिन समाज में व्याप्त भेद-भाव हम साफ देख सकते हैं.
बलात्कार के आरोप में मिलने वाली वैधानिक सजा तब तक कोई प्रभाव नहीं रखती
जब तक परिवार वाले अपने उत्तरदायित्वों को ना समझें. अभिभावक उन्हें बचपन
में सही शिक्षा दें, अपने बच्चे की गलतियों को नजरअंदाज ना करें तभी इस
समस्या का हल निकल सकता है अन्यथा व्यवहारिक तौर पर कुछ नहीं हो सकता.
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