एक
सर्वे के मुताबिक मेट्रो शहरों की 70 फीसदी आबादी मोटापे की शिकार है।
मेट्रो में रहने वाला मध्यम और उच्च वर्ग पढ़ा लिखा, जानकार है। हम सब
जानते है कि मोटापा डायबिटीज, हृदय रोग, कैंसर, कोलेस्ट्राल, थायराइड समेत
50 से ज्यादा बीमारियों का वाहक है फिर भी हम इसे क्यों नहींरोक पाते। यह
भी सच है कि भारत की साठ फीसदी से ज्यादा आबादी युवा और देश का भविष्य
इन्हींकंधों पर है। अगर भावी पीढ़ी बीमारियों के भंवर में जकड़ जाएगी तो हम
भी वही रोना रोते नजर आएंगे जो आज अमेरिका और यूरोपीय देश रो रहे हैं।
मोटापा और उससे जनित डायबिटीज, कैंसर जैसी बीमारियों की वजह से वहां
सामाजिक सुरक्षा का खर्च इतना ज्यादा बढ़ गया है कि सरकारें लाचार नजर आ
रही हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने तमाम आंकड़ो के जरिए चेतावनी दी है कि
यही हाल रहा तो भारत अगले 15 से 20 वर्षों में डायबिटीज, मोटापा और कैंसर
के मरीजों की राजधानी में तब्दील हो जाएगा। आंकड़ों के मुताबिक भारत में
हर छह में से एक महिला और हर पांच में से एक पुरुष मोटापे का शिकार है।
भारत में मोटापे के शिकार लोगों की संख्या सात करोड़ पार कर गई है। सबसे
खतरनाक बात है कि 14-18 साल के 17 फीसदी बच्चे मोटापे से पीडि़त हैं। एक
अध्ययन के मुताबिक बड़े शहरों में 21 से 30 फीसदी तक स्कूली बच्चों का वजन
जरूरत से काफी ज्यादा है।
विशेषज्ञों
के मुताबिक किशोरावस्था में ही मोटापे के शिकार बच्चे युवा होने तक कई
गंभीर बीमारियों का शिकार हो जाते हैं। जिससे उनकी कार्यक्षमता पर बुरा
असर पड़ता है। यही वजह है कि आजकल 30 साल से कम उम्र के लोगों में भी हृदय
रोग, डायबिटीज, कैंसर जैसी बीमारियां तेजी से उभर रही हैं। यहींनहीं
शहरों में रहने वाले हर पांच में एक शख्स डायबिटीज या हाइपरटेंशन का शिकार
है। सभी प्रकार के संसाधनों से लैस होने के बावजूद शहरी मध्यवर्ग विलासिता
और गलत खान-पान की आदतों से छुटकारा पाने में असफल रहा है। सवाल उठता है
कि जो देश भुखमरी, कुपोषण, बाल मृत्यु दर, प्रसवकाल में महिलाओं की मौत की
ऊंची दर से परेशान हो, क्या उसे उच्च वर्ग की विलासिता और भोगवादी
संस्कृति से उपजी इन बीमारियों का बोझ अपने कंधों पर उठाना चाहिए। दरअसल
इन बीमारियों से लड़ने की हमारी नीति नकारात्मक और संकीर्ण है। विडंबना है
कि सरकारें यह क्यों नहीं सोचतींकि कानून या योजना बनाने या उसके लिए बजट
घोषित करने से सामाजिक समस्याओं का निदान नहीं हो सकता। इसमें सरकार,
समाज और प्रभावितों को शामिल करना जरूरी है। मोटापा या जानलेवा बीमारियों
के इलाज के लिए अस्पताल और अन्य जरूरी संसाधन मुहैया कराना जितना जरूरी है
उतना ही आवश्यक है कि इन बीमारियों का प्रकोप बढ़ने से रोका जाए। हाल ही
में डेनमार्क सरकार ने वसायुक्त खाद्य पदार्थो पर अतिरिक्त कर लगाने को
मंजूरी दी। यह एक उदाहरण है कि कैसे लोगों को मोटापे के कुचक्र में फंसने
से रोका जा सके। या यूं कहें कि मोटापे से लड़ने के लिए हमें वैसे ही
दृष्टिकोण की जरूरत आ पड़ी है जैसी कि हम तंबाकूयुक्त पदार्थो को लेकर
करते हैं।
मोटापे
को लेकर सरकार की नीति बेहद संकीर्ण और अव्यावहारिक है। मसलन निजी और
सरकारी स्कूलों में फास्टफूड, उच्च कैलोरी युक्त पदार्थ धड़ल्ले से बिक
रहे हैं। स्कूली दिनचर्या में खेलकूद और शारीरिक शिक्षा किताबी पन्नों में
सिमट कर रह गई है। मगर सरकारें असहाय हैं। बाजार बच्चों, युवाओं और
बूढ़ों को भ्रामक विज्ञापनों से ललचा रहा है मगर सूचना एवं प्रसारण
मंत्रालय खामोश है। स्वस्थ रहने और बीमारियों से बचने की बातें पाठ्यक्रम
का हिस्सा नहीं हैं। निजी-सरकारी क्षेत्र के स्कूलों, कार्यालयों और
प्रतिष्ठानों में लोगों के खानपान, कार्यशैली और स्थानीय पर्यावरण को लेकर
सरकार और निजी क्षेत्र मिलकर सर्वे और जागरूकता कार्यक्रम क्यों
नहींचलाते। स्थानीय पर्यावरण मसलन वहां की हवा, पानी, खाद्य वस्तुएं लोगों
के स्वास्थ्य पर क्या असर डालती हैं, इस पर शोध और विस्तृत रिपोर्ट तैयार
करने की जहमत सरकार क्यों नहीं उठाया जाता। नौकरशाही तांगे के घोड़ों की
तरह काम कर रही है जिसकी आंखों पर पट्टी बंधी है और राजनीतिक नेतृत्व
जितनी लगाम खींचता है बस वह उतने डग भरती है। बदकिस्मती से राजनेताओं का
मकसद भी केवल गाड़ी खींचने तक सीमित रह गया है। अंतरराष्ट्रीय स्वास्थ्य
विशेषज्ञ चेतावनी दे चुके हैं कि भारत और अन्य एशियाई देशों का पर्यावरण,
लोगों की शारीरिक स्थिति एवं कार्यप्रणाली ऐसी है कि यहां मोटापा और उससे
जनित जानलेवा बीमारियों यानी कैंसर, डायबिटीज, हृदयरोग के फैलने का खतरा
ज्यादा है। मोटापा से होने वाली टाइप टू डायबिटीज से करीब सात करोड़
भारतीय परेशान हैं। इसलिए बच्चों, युवाओं के आसपास ऐसा माहौल विकसित करना
जरूरी है कि वे ऐसे खाद्य एवं पेय पदार्थों से दूर रहें कि वे मोटापा और
अन्य बीमारियों का शिकार हों। हमारे नौनिहाल और युवा पीढ़ी अगर बीमारियों
से घिरी रहेगी तो कार्यक्षमता तो घटेगी ही, देश के मानव संसाधन पर भी
प्रभाव पड़ेगा।
सरकार
अगर स्वास्थ्य क्षेत्र का बड़ा हिस्सा विलासिता से पैदा होने वाली
बीमारियों पर खर्च करेगी तो भुखमरी, कुपोषण, बाल मृत्यु दर, प्रसवोपरांत
महिलाओं के स्वास्थ्य के लिए नियोजित बजट पर असर पड़ेगा। ऐसे में मोटापा और
उससे होने वाली बीमारियों से लड़ने के लिए सकारात्मक और प्रोएक्टिव कदम
उठाने होंगे। केंद्र और राज्य स्तर पर सरकार और निजी क्षेत्र के स्कूलों,
अस्पतालों, प्रतिष्ठानों और गैर सरकारी संगठनों को इस समग्र नीति का
हिस्सेदार बनाना होगा। और हां प्रभावित होने वाले वर्ग यानी बच्चों और
युवाओं को भी इस अभियान का भागीदार बनाना होगा, तभी कोई नीति सफल हो पाएगी।
नकारात्मक उपायों के तौर पर फास्ट फूड और उच्च कैलोरी युक्त पेय पदार्थो
की बिक्री को हतोत्साहित करना होगा। डिब्बाबंद खाद्य और पेय पदार्थो पर
ऐसे मानक तय करने होंगे जिससे स्वास्थ्य पर हानिकारक प्रभाव न पड़े। ऐसे
जंक फूड और हाइड्रेटेड ड्रिंक की स्कूली परिसर के सौ मीटर के दायरे में
बिक्री भी प्रतिबंधित कर देनी चाहिए। स्कूल में आयोजित स्वास्थ्य जागरूकता
कार्यक्रमों में बच्चों के साथ उनके अभिभावकों की भी हिस्सेदारी होनी
चाहिए क्योंकि वे ही अपनी संतानों के खानपान और जीवनशैली के लिए जिम्मेदार
होते हैं। इन खाद्य पदार्थो के पैकेट पर भी सामान्य चेतावनी लिखी जानी
चाहिए, जिसमें इनके सेवन से होने वाले दुष्प्रभावों का जिक्र हो ताकि
दुकानदार अपने ग्राहकों को बहका न सकें और इसका नुकसान ज्यादा नहो सके।
हमें बच्चों और युवाओं को यह समझाना होगा कि ये फास्टफूड और कैलोरीयुक्त
पेय पदार्थ पश्चिमी वातावरण और स्थितियों के तो अनुकूल हैं मगर हमारे
पर्यावरण के लिहाज से यह साइलेंट किलर की तरह हैं।
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