मंगलवार, 13 मार्च 2012

सीबीआई-सीबीआई खेलें


आओ, सीबीआई-सीबीआई खेलें

भई, माफ करेंगे। स्टार्ट लेने में थोड़ी दिक्कत है। दरअसल, मैं बहुत कुछ नहीं समझ पा रहा हूं।
आज अचानक बड़ी शांति दिखी। सड़क से लेकर दफ्तर तक। बयान छपवाने खातिर कोई फोन भी नहीं आया।
मैं, विधायक राजकिशोर केसरी हत्याकांड की बात कर रहा हूं। इसकी सीबीआई जांच की घोषणा हो चुकी है। तो क्या पिछले कई दिनों का बवाल यहीं तक सीमित था? एक पक्ष ने सीबीआई जांच की मांग उठायी और दूसरे ने उसे ओके कर दिया-क्या, यह पूरा प्रसंग इससे आगे बढऩे की दरकार नहीं रखता है? अब सबकुछ सीबीआई पर निर्भर है-जांच कबूलने से लेकर उसे ईमानदार मुकाम देने तक। जन-अपेक्षाएं यहीं तक सीमित हैं? राजनीतिक दलों की तुष्टि इसी बात पर निर्भर करेगी कि कुछ की छीछालेदर हो या कुछ पाक-साफ रह जायें? क्या ऐसी किसी उम्मीद की गुंजाइश बनती है, जो आगे के दिनों में ऐसी वारदात न होने दे? ढेर सारे स्वाभाविक सवाल हैं।
खैर, मैं दूसरी बात कर रहा हूं। और यह इस सच्चाई की गवाह है कि राजनीति के विद्रूप होते रंगों में सीबीआई क्या, शायद ही कोई कुछ कर सकता है। एक नमूना-अरे, जो देश, जो राज चौंतीस वर्ष में भी अपने खास किरदार के हत्यारों को अंतिम सजा न दिला सके, वहां आम आदमी वाकई कीड़ा-मकोड़ा ही रहेगा। बात ललित नारायण मिश्र की हो रही है। हाल में उनकी पुण्यतिथि गुजरी है। इस मौके पर मुझे महान भारत की महान जनता की इस असली बिसात का ज्ञान हुआ। उनके छोटे भाई डा.जगन्नाथ मिश्रा (पूर्व मुख्यमंत्री) ऐसे मौके पर बोलते रहे हैं-शरीर में अब भी कुछ स्प्लिंटर (छर्रा) हैं। टीस मारते हैं। सिहर जाता हूं। मेरी राय में यह देश की तड़प है। दर्द है। सिहरन है। लंबी मियाद है। क्यों? देखिये-जानिये। ललित नारायण मिश्रा, दो जनवरी 1975 को समस्तीपुर के एक समारोह में मारे गये। रेल मंत्री थे। श्रीमती इंदिरा गांधी के बाद सी हैसियत। बम विस्फोट में डा.जगन्नाथ मिश्रा भी घायल हुए। देश की सर्वोच्च जांच एजेंसी सीबीआई हत्याकांड के रहस्य से परदा नहीं हटा सकी है। एजेंसी की जांच के दो निष्कर्ष हैं। दोनों, एक-दूसरे को काटते हैं। एक हत्याकांड के दो-दो दावेदार? क्या निष्कर्ष निकलेगा? अब कोई इस बारे में चर्चा भी करता है क्या?
श्वेतनिशा त्रिवेदी उर्फ बाबी, उसकी हत्या कितनों को याद है? तब लगा था कि राजनीति में रास-रंग की गुंजाइश हमेशा के लिए मार दी जायेगी। क्या हुआ? राजनीति के रंग ऐसे मसलों की गुंजाइश भी बनाते हैं और सीबीआई को हथियार भी।
बिहार ने सीबीआई को खूब जिया है। चारा घोटाला के दौरान इसे आम जन भी जान गये थे। फिर अलकतरा घोटाला, एमएसडी (दवा) घोटाला, मस्टर रौल घोटाला, पोषाहार घोटाला, शिक्षक नियुक्ति घोटाला …, देश की यह सर्वोच्च जांच एजेंसी बिहार में बुरी फंस गयी। एक समय तो ऐसा आया कि उसे समझ में ही नहीं आ रहा था कि वह किस मामले को पहले जांचे और किसे छोड़े? उसके अधिकारी मानसिक तनाव से संबंधित बीमारियों के शिकार हुए।
सीबीआई, आरोप-प्रत्यारोप की बिहारी राजनीति का केंद्रबिंदु रही है। चारा घोटाला के दौरान की सरकार तो इस एजेंसी से इतना गुस्सा में थी कि बदला लेने की नीयत से निहायत मामूली मसलों की जांच भी उसे सौंपती रही। एक उदाहरण-एक कार चालक ने लापरवाही से हवलदार हसनैन खां को ठोकर मार दी। अगमकुंआ में प्राथमिकी हुई। इसे सीबीआई को जांचना पड़ा। नक्सलियों ने 16 जून 1997 को उत्तर कोयल डैम (पलामू) के अधीक्षण अभियंता बीएन मिश्रा का अपहरण करके मार डाला। सीबीआई की वांटेड सूची बताती है कि करीब नौ साल बाद भी श्री मिश्रा के हत्यारों में से कोई भी नहीं पकड़ा जा सका और शायद ही कभी पकड़ा जायेगा।
बहुचर्चित शिल्पी-गौतम कांड की फाइल बंद हो गई। परिस्थितिजन्य साक्ष्य के मुताबिक नतीजा निकला? विधायक बृजबिहारी प्रसाद तो सीबीआई की कस्टडी में मारे गये। विधायक अजित सरकार हत्याकांड में जांच, मुकाम तक पहुंची लेकिन बूटन सिंह व और गुरुदास चटर्जी हत्याकांड …! इंजीनियर सत्येंद्र दूबे और योगेंद्र पांडेय कांड के जांच नतीजे कितनों को संतुष्ट कर पाये हैं? ऐसे नमूनों की कमी है? यह सब शायद औपचारिक बनी राजनीति के रंग ही हैं, जिसका मकसद …!

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