शनिवार, 10 मार्च 2012

मिलावट का मायाजाल

क्या आपको पता है कि हम जो चीजें खाते-पीते हैं, जिस साबुन से नहाते हैं, जो तेल लगाते हैं और बीमार पड़ने पर जिस दवा से ठीक होने की उम्मीद करते हैं, वे सब नकली हो सकते हैं? दरअसल, खाद्य पदार्थो में मिलावट को रोकने की तमाम कोशिशों के बाद भी बाजार में मौजूद खाने-पीने की ज्यादातर चीजों की शुद्धता का भरोसा ...नहीं किया जा सकता है। भारतीय खाद्य सुरक्षा एवं मानक प्राधिकरण (एफएसएसआइए) द्वारा 33 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में कराए गए सर्वे में झारखंड, बिहार, उड़ीसा, छत्तीसगढ़ और पश्चिम बंगाल के शत-प्रतिशत दूध नमूनों में मिलावट पाई गई। दक्षिण के राज्यों में भी दूध में मिलावट का धंधा फल-फूल रहा है। रिपोर्ट के अनुसार दूध में फैट, एसएनएफ, ग्लूकोज, स्टार्च, साल्ट, वेजिटेबल फैट, पाउडर, एसिड आदि तत्व पाए गए। पानी की मात्रा भी अधिक पाई गई। कई सैंपल की जांच में तो डिटर्जेट और यूरिया जैसे खतरनाक तत्व भी पाए गए। सिर्फ गोवा और पुडुचेरी में ही सभी सैंपल सही पाए गए। एफएसएसआइए ने देश भर से जांच के लिए 1791 नमूने भरे थे। इनमें 69 फीसदी नमूनों में मिलावट पाई गई। सिंथैटिक दूध से लेकर जहरीला सिंथैटिक घी भी बाजार में बिक रहा है। यह भारत ही है, जहां खाने-पीने की चीजों में व्यापक पैमाने पर होने वाली मिलावट को सरकार और जनता बर्दाश्त करती रहती है। कभी-कभार इनके खिलाफ कार्रवाई भी होती है, लेकिन इसका असर नकली खाद्यपदार्थो और दवा बनाने वालों पर नहीं होता है।

आज बाजार में मौजूद लगभग हर जींस की बिक्री में मिलावट का हिस्सा अच्छा-खासा है। दवाओं के मामले में तो इसे 35 फीसदी तक बताया जाता है। यह धंधा इतनी चालाकी से हो रहा है कि असली-नकली का फर्क करना कभी आसान नहीं होता। साबुन-तेल जैसे उत्पादों (एफएमसीजी) को लेकर ओआरजी मार्ग के एक सर्वे का नतीजा है कि देश के हर हिस्से में नकली ब्रांड फैल चुके हैं। यह बात पुरानी पड़ चुकी है कि सिर्फ ग्रामीण इलाकों में नकल का धंधा चल पाता है। आज बाजार में पैराशूट तेल की 128, फेयर एंड लवली क्रीम की 113, विक्स की 44 और डॉबर आंवला की 34 नकलें बिक रही हैं। इस फर्जीवाडे़ से कंपनियों और सरकार को जो घाटा होता है, वह अरबों में है। लेकिन उपभोक्ताओं पर जो बीतती है, उसे किसी सर्वे, किसी गणित से मापा नहीं जा सकता। नकली प्रोडक्ट से जुड़ा सबसे बड़ा खतरा यही है और यह किसी भयावह संकट से कम नहीं है। नकली तेल, घी, साबुन और शैंपू के रूप में एक धीमा जहर हमें लगातार निगलता रहता है। दवाओं के मामले में तो यह साीधे-सीधे जिंदगी और मौत का मामला बन जाता है। इसीलिए माशेलकर समिति ने नकलचियों को मौत की सजा देने की सिफारिश की थी। दिल्ली सरकार ने इस मिलावटखोरी को रोकने के लिए एक नया कानून लागू करने की घोषणा की थी। इसके तहत दोषी पाए गए लोगों को दस लाख रुपये तक का जुर्माना या आजीवन कारावास तक की सजा होगी। करीब साल भर पहले केंद्र सरकार ने भी लगभग इसी आशय की घोषणा की थी, जिसमें मिलावटखोरों के खिलाफ सख्ती बरतने के साथ-साथ जांच में गड़बड़ी करने वाले निरीक्षकों को भी दंडित करने की बात थी, लेकिन व्यवहार में अभी तक कुछ नहीं हुआ है और मिलावट के धंधेबाज धड़ल्ले से सक्रिय हैं।

दिल्ली से सटे उत्तर प्रदेश के कई जिलों में मिलावटी वस्तुओं के उत्पादन का धंधा बहुत बडे़ पैमाने पर होता है। मिलावटी कारोबार में मध्य प्रदेश भी पीछे नहीं है। पशुओं से अधिक दूध निकालने या सामान्य से ज्यादा सब्जियों के उत्पादन के लिए ऑक्सीटोसिन नामक हारमोन का इस्तेमाल धड़ल्ले से किया जाता है। इसके अलावा, फलों को समय से पहले पकाने या सब्जियों को दिखने में ताजा और आकर्षक बनाने की खातिर भी कई घातक रसायनों का प्रयोग वे करते हैं। दालों को चमकीला बनाने के लिए या मसालों में जिन रंगों का प्रयोग किया जाता है, उनका असर किसी से छिपा नहीं है। सिंथेटिक दूध रासायनिक उर्वरकों (यूरिया), वनस्पति घी, डिटर्जेट, ब्लीचिंग पाउडर तथा चीनी को मिलाकर बनाया जाता है तथा सस्ते दामों पर बेचा जाता है। दूध की कमी के दौर में अगर सस्ता दूध मिल जाए तो गरीब आदमी उसे खरीदेगा ही। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कुछ तत्व सिंथेटिक दूध बनाने के मामले में चर्चित रहे हैं। उनकी धनलिप्सा ने न जाने कितने लोगों और बच्चों को कैंसर का मरीज बना दिया होगा। सिंथेटिक दूध को लेकर शोर-शराबा तो काफी मचा, लेकिन किसी के पकड़े जाने व दंडित होने का समाचार नहीं मिला। इससे ऐसे तत्वों का दुस्साहस बढ़ा और अब सिंथेटिक देसी घी की बड़े पैमाने पर हो रही बिक्री ने लोगों के कान खड़े कर दिए हैं। इस तरह का सबसे अधिक धंधा पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कुछ जिलों में होता है। कुछ मामले पकड़े भी गए हैं। पर उनके खिलाफ क्या कार्रवाई हुई, यह किसी को पता नहीं है। कुछ ताकतवर माफिया-नेता ऐसे धंधों के संरक्षक हैं और प्रदेश की सत्ता तक उनकी पहुंच होने के कारण कानून उनका बाल भी बांका नहीं कर पाता है। पर यह समाज, राष्ट्र और प्रदेश की जनता के साथ भारी धोखा है। इससे राष्ट्र की प्रतिभा को भारी क्षति पहुंच रही है।

विशेषज्ञों के अनुसार सिंथेटिक दूध और घी बनाने में मानव स्वास्थ्य के लिए अत्यन्त घातक रसायनों, उर्वरकों, कीटनाशकों, क्रूड वैक्स तथा इंडोनेशिया से आयातित पॉम ऑयल (स्टाइरिन), तंबाकू और जूट का तेल इस्तेमाल किया जाता है। यह पॉम ऑयल सस्ता और साबुन व डिटर्जेट बनाने में इस्तेमाल होता है। इस सारे मिश्रण को देसी घी का रूप देने के लिए घी की खुशबू वाला एसेंस व रंग मिलाया जाता है। यह सब चीजें ऐसी होती हैं, जो कैंसर पैदा करती हैं। लोगों को भ्रमित करने के लिए इस नकली घी के निर्माता इसकी पैकिंग पर अपने जाली पते छापते हैं। यही नहीं, लोगों को आकर्षित करने के लिए घी की पैकिंग पर लोकप्रिय से लगने वाले ब्रांडों के नाम अंकित किए जाते हैं। दिल्ली और उत्तरी भारत के विभिन्न क्षेत्रों में 80 से अधिक जाली ब्रांडों पर यह जहरीला घी बिक रहा है। इतना ही नहीं, वे लोगों को भ्रमित करने के लिए इस घी के पैकेटों व डिब्बों पर एगमार्क भी छापते हैं। उल्लेखनी है कि एगमार्क की मोहर वही उत्पादक अपने उत्पादनों पर इस्तेमाल कर सकता है, जिसकी शुद्धता खाद्य व स्वास्थ्य विभाग द्वारा प्रमाणित हो तथा जिसके पास शुद्धता बनाए रखने और क्वालिटी कंट्रोल के लिए अपनी प्रयोगशाला हो तथा वह कड़े मानदंडों का पालन करता हो। देश का प्रशासन तंत्र इतना बिगड़ चुका है कि जिन लोगों को ऐसे समाज के विरोधी तत्वों पर छापे मारने का दायित्व सौंपा गया है, वे इनसे महीना बांध इस ओर से आंखें मूंदे रहते हैं। भ्रष्टाचार की यह राशि नीचे से लेकर ऊपर तक पहुंचती है। आमतौर पर कुछ सस्ते मूल्य पर बिकने वाली ये वस्तुएं अधिकांशतया गरीब लोग ही खरीदते हैं। सरकार

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