मंगलवार, 13 मार्च 2012

‘सृजन’ का अपमान



इस साल का एक खास दिन 11 नवंबर 2011….इसी दिन उस नन्हीं परी ने भी पहली बार अपनी आंखें खोलीं. यह दिन खास था, ऐसे में इस दिन जन्मे बच्चों पर स्पेशल स्टोरी करने के लिए हम महिला हॉस्पिटल के बाहर मौजूद थे. बच्चों की लिस्ट लेकर वार्ड में पहुंचे. उस बच्ची की मां दीवार के सहारे बेड पर बैठी हुई थी, बच्ची अपनी नानी की बांहों में थी. मैंने बच्ची की मां को बधाई दी कि उनके घर नन्हीं परी आई है, लेकिन महिला की आंखों में आंसू आ गए. मैं समझ नहीं पाई कि ऐसा क्यों हुआ. बच्ची की नानी ने बताया कि यह बच्ची मेरी बेटी की तीसरी बेटी है. हर बार की तरह इस बार भी ससुरालियों ने बेटे की उम्मीद की थी. इस बार भी लड़की पैदा हुई है. ऐसे में मेरी लड़की के ससुराल से न तो कोई मेरी बेटी और नातिन को देखने आया है और न ही किसी ने हाल-चाल पूछा. बेचारी यही सोच-सोचकर रोए जा रही है कि अब ससुराली घर लेकर जाएंगे भी की नहीं. नारी की सृजनक्षमता के कारण ही उसे भगवान के समकक्ष रखा जाता है, तो इस सृजन का अपमान इसलिए क्यों किया जाता है कि पैदा होने वाली संतान लड़की है. उस महिला की आंखों में आंसू देखकर मुझे भी वो दिन याद आ गया, जब मेरे घर में मेरी चौथी बहन ने जन्म लिया था. मैं घर में में सबसे बड़ी थी. जब मेरी चौथी बहन पैदा हुई तो मुझे पड़ोस की आंटी ने बहुत बेचारगी से बताया था कि ‘तेरी बहन हुई है’. किराए के कमरे में मेरी नानी भी कुछ इसी तरह मेरी चौथी बहन को लिए हुए बैठी थी. उस समय मेरी उम्र बहुत कम थी, ऐसे में मैं समझ नहीं पाई कि घर में यह मातम का माहौल क्यों पसरा हुआ है. उस समय मायथॉलॉजिकल टीवी सिरियल्स बहुत आया करते थे और मुझे लगता था कि अगर मैं भगवान से प्रार्थना करूंगी तो वो मुझे भी भाई दे देंगे. खैर यह केवल टीवी में देखी हुई बातें थीं और कोई चमत्कार नहीं हुआ. हॉस्पिटल के उस बेड के पास जिस मातम की छाया पसरी हुई थी, उसने मुझे कई साल पहले घटे इस वाक्ये की याद दिला दी. कहते हैं समय हर जख्म को भर देता है, लेकिन कुछ जख्म कभी नहीं भरते और टीस देते रहते हैं.

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