विडंबना
ही कही जाएगी कि जिन अस्पतालों में मरीजों को जीवन मिलना चाहिए, वहां
उन्हें मौत मिल रही है। मौत भी ऐसी कि कलेजे को चीर दे। कोलकाता के नामी
निजी अस्पताल एडवांस मेडिकल रिसर्च इंस्टीट्यूट (आमरी) में दुर्भाग्यपूर्ण
तरीके से लगी आग में 90 लोगों की मौत हो जाना ऐसी ही त्रासदपूर्ण घटना
है। दिल दहला देने वाली इस घटना को महज अस्पताल की लापरवाही और
व्यवस्था की बदहाली से जोड़कर पल्ला नहीं झाड़ा जा सकता और न ही सरकारी
मुआवजे की धनराशि घोषित कर दुनिया छोड़ चुके लोगों को वापस लाया जा
सकता है। हल यह भी नहीं है कि सरकार ऐसे गैर-जिम्मेदार अस्पतालों का
लाइसेंस रद कर अपने कर्तव्यों की इतिश्री समझ ले या अस्पताल प्रबंधन के
चंद लोगों को गिरफ्तार कर अपनी पीठ थपथपा ले। संभव है कि सरकार के इस फौरी
दिखावेपन से लोगों को आक्रोश कुछ कम हो, लेकिन सवाल यह है कि क्या महज
इतनी कार्रवाई भर से सब कुछ ठीक हो जाएगा? इस बात की क्या गारंटी है कि कल
दूसरे अस्पतालों में आग नहीं लगेगी और लोग जल-भुनकर नहीं मरेंगे?
सवाल
उठना लाजिमी है कि सरकार और प्रशासन की निगाह ऐसे गैर-जिम्मेदार अस्पतालों
की ओर क्यों नहीं जा रहा है, जहां मरीजों के जीवन के साथ खिलवाड़ किया जा
रहा है। ऐसा नहीं है कि मरीजों से मोटी उगाही पर उतारू और सुरक्षा को
नजरअंदाज करने वाले इन अस्पतालों की जन्मकुंडली सरकार के पास नहीं है,
लेकिन सरकार संवेदनहीन है और उसकी नौकरशाही गिरोहबाज अस्पताल प्रबंधकों की
लूटपाट पर लगाम लगाने के बजाए खुद उसमें शामिल हो गई है। अगर ऐसा नहीं
होता तो सरकार अपनी तीन फीसदी की हिस्सेदारी वाले आमरी अस्पताल को भगवान
भरोसे नहीं छोड़ती। क्या विचित्र नहीं लगता है कि कोलकाता जैसे महानगर के
फाइव स्टार और वातानुकूलित अस्पतालों में शुमार आमरी अस्पताल के पास
आपातकाल में बचाव के लिए कोई इंतजाम तक नहीं है? अभी तक सिर्फ सरकारी
अस्पतालों की बदहाली का ही रोना रोया जा रहा था, लेकिन
वातानुकूलित एडवांस मेडिकल रिसर्च इंस्टीट्यूट जैसे अस्पताल भी अब इस कतार
में खड़े हो गए हैं। आमरी अस्पताल में लगी आग विचलित करने वाली इसलिए भी
है कि ये वे अस्पताल हैं, जहां सुविधा और सुरक्षा देने के नाम पर मरीजों
से मोटी रकम वसूली जाती है।
आमरी
अस्पताल की घटना ने निजी क्षेत्र के अस्पतालों की कार्यप्रणाली और सुरक्षा
व्यवस्था की पोल खोलकर रख दी है। आमतौर पर निजी क्षेत्र के अस्पतालों को न
केवल बेहतरीन इलाज सुविधाओं से लैस माना जाता है, बल्कि यहां पुख्ता
सुरक्षा इंतजाम होने का भरोसा भी बना रहता है। लेकिन हकीकत कुछ और है।
बेहतरीन दिखने और कहलाने के नाम पर बस तामझाम भर रह गया है। इन अस्पतालों
का गोरखधंधा अब खुलकर सामने आने लगा है। नवजात बच्चों की चोरी से लेकर
मानव अंगों की तस्करी जैसे अमानवीय कृत्य इन अस्पतालों की प्राथमिकता में
शुमार हो गए हैं। आमरी अस्पताल की हृदयविदारक घटना बताने के लिए काफी है
कि किस तरह एक छोटी-सी लापरवाही से सैकड़ों मरीजों की जान जा सकती है।
आमतौर पर प्रचलन में आ गया है कि सभी निजी अस्पतालों के बेसमेंट गोदामों की
तरह प्रयोग में लाए जाने लगे हैं। आग लगने की स्थिति में बेसमेंट में
स्थित गोदाम बारूद का काम कर रहे हैं। आमरी अस्पताल की बेसमेंट पार्किग में
दवाओं और सहायक उपकरणों के लिए प्रयुक्त हो रहा गोदाम भी मरीजों की
जिंदगी पर भारी पड़ा है। बताया जा रहा है कि अस्पताल के वातानुकूलित
संयंत्र के करीब लगी आग का धुआं पाइपों के जरिये ऊपर की मंजिलों तक पहुंच
गया और सो रहे लोग मौत के आगोश में आ गए।
आइसीयू
एवं अन्य वार्डो में भर्ती किए गए गंभीर मरीजों को तो आंख खोलने का भी
मौका नहीं मिला। मरीजों ने जब आंख खोली तो खुद को धुएं से घिरा पाया।
चाहकर भी वे भाग नहीं सके। अंतत: अपनी बेड पर ही दम तोड़ने को मजबूर हो
गए। बताया जा रहा है कि 190 बेड वाले अस्पताल में घटना के समय कुल 180 लोग
मौजूद थे और इनमें तकरीबन 171 मरीजों की संख्या थी, जिनमें 26 महिलाएं भी
थी। आग कितनी भयंकर थी, इसी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि उसे बुझाने के
लिए फायर ब्रिगेड की 35 गाडि़यों का जत्था 14 घंटे तक मशक्कत करता रहा। तब
जाकर आग पर नियंत्रण पाया जा सका। इस भयानक घटना के पीछे अस्पताल प्रबंधन
की लापरवाही खुलकर सामने आई है। अग्निशमन विभाग की बात मानें तो आग लगने
के डेढ़ घंटे बाद उन्हें सूचना दी गई। जब तक दमकलकर्मी मौके पर पहुंचते,
आग की लपटें सबकुछ खत्म करने का इरादा बना चुकी थीं। इस लापरवाही की हद ही
कहा जाएगा कि आग लगने के बावजूद सेंट्रल एयर कंडीशनिंग सिस्टम को बंद
नहीं किया गया। नतीजा यह निकला कि बेसमेंट में रखे गए रसायनों, ऑक्सीजन
गैस के सिलिंडरों और दवाओं में भी आग लग गई। आग से निपटने के लिए पूरे
अस्पताल परिसर की पाइप लाइन के लिए घटना के समय पानी का भी इंतजाम नहीं
था। जिस समय आग लगी, अस्पताल के सुरक्षाकर्मियों ने अस्पताल का मुख्य
द्वार बंद कर दिया।
नतीजा
यह निकला कि मदद पहुंचाने वाले लोग अस्पताल के अंदर पहुंच ही नहीं सके और न
ही अंदर के लोग जान बचाने के लिए बाहर निकल सके। जान बचाने के लिए
अस्पताल के भीतर के लोग जब मरीजों को लेकर छत पर पहुंचे तो वहां भी दरवाजा
बंद मिला। ऐसे में लोगों के पास मृत्यु का वरण करने के अलावा कोई विकल्प
नहीं बचा। गंभीर सवाल यह है कि क्या अस्पताल में नियुक्त सुरक्षाकर्मियों
को आपातकाल जैसी परिस्थितियों से निपटने के लिए प्रशिक्षित किया गया था?
उनके कार्य-व्यवहार को देखते हुए तो ऐसा नहीं लगता। अगर वे प्रशिक्षित
होते तो निस्संदेह रूप से इस दुखदायी घटना को टाला जा सकता था या कुछ
लोगों को मौत से बचाया जा सकता था। अग्निशमन विभाग के मंत्री द्वारा दावा
किया गया है कि आमरी अस्पताल का फायर सेफ्टी लाइसेंस 2011 के शुरुआती
महीनों में ही खत्म हो गया था और उसके नवीनीकरण के लिए विभाग द्वारा
अस्पताल को चेतावनी दी गई थी। बेसमेंट को खाली करने का नोटिस दिए जाने के
बावजूद बेसमेंट खाली नहीं किया गया। लेकिन अहम सवाल यह है कि
जब आमरी अस्पताल के पास फायर सेफ्टी का लाइसेंस नहीं था और वह कानून की
उपेक्षा कर रहा था तो फिर सरकारी प्रशासन ने मरीजों की जिंदगी के साथ
खिलवाड़ करने की छूट अस्पताल प्रशासन को क्यों दे रखी थी? क्यों न इसे
प्रशासन की ही नाकामी मानी जाए? यह महज संयोग नहीं है कि ममता सरकार
अस्पतालों की दुर्दशा पर चुप्पी ओढ़ रखी है। देखा जा रहा है कि जब से ममता
बनर्जी ने पश्चिम बंगाल में शासन की बागडोर संभाली है, वहां चिकित्सा
क्षेत्र बुरे दौर से गुजर रहा है।
सरकार
ठोस पहल करने के बजाए अपनी नाकामियों का ठीकरा पूर्ववर्ती सरकार पर फोड़
रही है। क्या चंद महीने पहले कोलकाता के नामी-गिरामी अस्पतालों में बड़ी
संख्या में मरने वाले बच्चों के मामले में भी पूर्ववर्ती सरकार को ही
जिम्मेदार माना जाएगा? सरकार की संवेदनहीनता ही कही जाएगी कि बच्चे मरते
रहे और सरकार डॉक्टरों की लापरवाही और अस्पताल की बदहाली को नजरअंदाज करती
रही। अस्पतालों में व्याप्त बदहाली को लेकर मीडिया में तूफान मचा, लेकिन
सरकार के कान पर जूं तक नहीं रेंगी। फिर क्यों न माना जाए कि ममता सरकार ने
एक जनवादी सरकार की खोल तो जरूर चढ़ा रखी है, लेकिन जनसेवा की कसौटी पर
वह पूरी तरह खरा नहीं उतर रही है। बल्कि अपनी नाकामियों को ढंकने-तोपने का
कुतर्क गढ़ रही है। क्या यह माना जाए कि सत्ता में आने के बाद ममता की
प्राथमिकता बदल गई है या दीर्घकाल तक शासन करने वाले वामदल के सरकारी कैडर
ममता के हाथ-पांव जकड़ रखे हैं? खैर जो भी हो, परिस्थितियों से जूझना
ममता को ही होगा और यह भी विश्वास दिलाना होगा कि भविष्य में आमरी जैसी
घटना दोबारा नहीं हो।
( अरविंद )
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