रविवार, 11 मार्च 2012

धन-पिशाच

जिस जगह पर सच्चे मानव बैठकर अच्छे इनसानों को रूप दिया करते थे,वहाँ हमारी बदकिस्मती से धन-पिशाच आकर बैठ गया और वह जन-समाज को ठगने और बिगाड़ने लगा। सनसनीखेज खबरें,फिल्मी दुनिया का नग्न श्रृंगार,स्त्री-पुरुष की मांसलतापूर्ण काम-केलियाँ आदि का जनता के मध्य प्रति दिन और प्रति सप्ताह प्रचार-प्रसार किया गया। जो महानुभाव अपने को वेद-शास्त्रों में पारंगत कहलाने में गर्व का अनुभव करते थे,वे भी इस तरह के कदर...्य व्यवसाय में अभिमान के साथ संलग्न हो गये। जब सम्पादकीय एवं अग्रलेख लिखनेवाला मस्तिष्क ही दूषित तथा कलुषित हो जाए तो समाज का धड़ कहाँ से स्वस्थ रह पाएगा ? मार्गदर्शक गुरु ही जब फिसलकर गिर जाए तो फिर देश कहाँ जाएगा ?

जनतन्त्र का मूलाधार है लेखन की स्वतन्त्रता। जनतन्त्र को पालने-पोसने में सक्षम लेखकीय-स्वतन्त्रता उसे मटियामेट भी कर सकती है एक दशक के इस छोटे अर्से में समाचारपत्र देश के अन्दर ऐसा स्वस्थ वातावरण पैदा कर सकते थे जिसमें देश के नागरिक पर्याप्त सुख-सुविधा शिक्षा-संस्कार और राजनीतिक जागरण के साथ जीवन-यापन करते। अखबारों के पतन से यहाँ अच्छे इनसानों की किल्लत पड़ गयी,धन प्रबल हुआ और धनतन्त्र का नंगा नाच शुरू हो गया।

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