सोमवार, 12 मार्च 2012

स्त्री-विमर्श का सच

स्त्री-विमर्श के विषय में बात करते समय हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि क्या वाकई हमें उस अधिकार और स्वतंत्रता की जरूरत है जिसे पाने के बाद समाज और परिवार दो भागों में बंट सकता है?

भारतीय समाज में हमेशा से ही महिलाओं को पुरुषों की अपेक्षा दूसरे दर्जे का स्थान दिया गया है. उनकी सामाजिक और आर्थिक स्थिति शोषित और असहाय से अधिक नहीं देखी गई. महिलाओं को हमेशा और हर क्षेत्र में कमतर ही आंका गया जिसके परिणामस्वरूप उनके पृथक अस्तित्व को कभी भी पहचान नहीं मिल पाई. पति या पिता के बिना महिला के औचित्य, उसकी संपूर्णता के विषय में गंभीरता से चिंतन करना किसी ने जरूरी नहीं समझा.


फिर दौर आया प्रगतिशील लेखकों और कवियों का जिन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से महिलाओं की शोषित सामाजिक और पारिवारिक छवि को सार्वजनिक किया. स्त्रियों पर होते अत्याचार और उनकी मार्मिक दशा पर लोगों का ध्यान आकर्षित कर प्रगतिशील लेखकों ने महिलाओं को समाज की मुख्य धारा से जुड़ने का एक महत्वपूर्ण अवसर प्रदान किया. निश्चित तौर पर इस दौरान महिलाओं की दमित और शोषित परिस्थितियां उल्लेखनीय ढंग से परिमार्जित हुईं. जहां एक ओर महिलाओं को पुरुषों के ही समान कुछ आवश्यक और मूलभूत अधिकार मिलने लगे, वहीं शिक्षा के प्रचार-प्रसार के कारण महिलाएं भी स्वयं अपनी महत्ता को समझने लगीं.


प्रगतिशील कवियों की रचनाओं में यह साफ प्रदर्शित होता है कि वे स्त्री-पुरुष के स्वभाव और व्यक्तित्व में व्याप्त भिन्नताओं के आधार पर किसी को उच्च या निम्न नहीं बल्कि एक-दूसरे के पूरक के रूप में पेश करते थे. उनका मानना था कि विपरीत लिंगों में भिन्नता होना उन्हें एक-दूसरे को संपूर्णता प्रदान करने में बहुत बड़ी और महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है. लंबे समय से स्त्री को पुरुष की संपत्ति के रूप में देखा और स्वीकार किया गया लेकिन इस मानसिकता और सामाजिक आचरण को चुनौती देने वाले आंदोलन ने कभी भी समाज में आपसी टकराव को विकसित नहीं किया.


feministलेकिन जो काम प्रगतिशील रचनाकार नहीं कर पाए, वह काम उन लोगों ने कर दिखाया जिन्हें आज हम नारीवादी या फेमिनिस्ट के तौर पर ज्यादा बेहतर जानते हैं. नारी के अधिकारों और स्वतंत्रता के पक्षधर इन लोगों ने आज ऐसे हालात विकसित कर दिए हैं जिन्हें अगर हम टकराव या मतभेद कहें तो कदापि गलत नहीं होगा.


नारीवादी लोगों का सैद्धांतिक उद्देश्य लैंगिक असमानता और भेदभाव को राजनीति और सामाजिक व्यवस्था से दूर कर महिला और पुरुष दोनों को ही जीवन यापन करने और अपने अस्तित्व को निखारने के लिए समान अवसरों और अधिकारों की पैरवी करना है. उनके आदर्शों में प्रजनन संबंधी अधिकार, घरेलू हिंसा, समान वेतन संबंधी अधिकार, यौन उत्पीड़न, भेदभाव एवं यौन हिंसा जैसे विषय प्रमुखता के साथ शामिल हैं.


लेकिन नारीवादी लोगों के सिद्धांतों और व्यवहारिक कार्यों में अत्याधिक अंतर है. स्त्रियों को समानता और न्याय दिलवाने का उद्देश्य भले ही एक सकारात्मक पहल हो परंतु उनके मंतव्यों पर हमेशा ही प्रश्न चिंह लगा रहा है. उन्होंने महिला और पुरुष को एक-दूसरे के पूरक से बदलकर आपसी विरोधी के रूप में पेश कर दिया है. जिसके परिणामस्वरूप आपसी संबंधों में बरती जाने वाली सहनशीलता और सहयोग की भावना में दिनोंदिन कमी आने लगी है.


स्त्री-विमर्श का मूल कथ्य यही रहता है कि किसी भी प्रकार या दृष्टिकोण से कानूनी और सामाजिक अधिकारों का आधार लिंग ना बने. लेकिन आधुनिक स्त्री विमर्श पर पूर्ण रूप से पश्चिमी दर्शन और मूल्य हावी हो चुके हैं. नारीवादी स्त्रियों के अधिकारों की पैरोकारी तो करते हैं लेकिन उन्हें जिन कर्तव्यों का पालन करना चाहिए इस ओर वह ध्यान देना जरूरी नहीं समझते.

समाज और परिवार के भीतर स्त्री-पुरुष दोनों को कुछ जरूरी और महत्वपूर्ण जिम्मेदारियों का निर्वाह करना पड़ता है. हो सकता है कि कुछ स्वतंत्र आचरण रखने वाली महिलाओं को विवाह के पश्चात अपने घर-परिवार की जिम्मेदारियां उठाना अच्छा ना लगे लेकिन परिवार और आपसी संबंधों में खुशहाली बनाए रखने के लिए इस संदर्भ में उनका समझौता करना एक आवश्यकता बन जाता है. लेकिन नारीवादी जो किसी भी प्रकार के समझौते के सख्त विरोधी हैं वह इसे भी महिलाओं के साथ होता अत्याचार और उनका शोषण ही मानते हैं. अगर थोड़े बहुत समझौते और सहयोग से गृहस्थी और परिवार की खुशहाली बनी रहती है तो इसमें किसी भी प्रकार की आपत्ति नहीं होनी चाहिए. स्त्री-विमर्श की कटु सच्चाई यही है कि इसमें दो विपरीत लिंग के लोगों की मौलिक विशेषताओं और उन दोनों के बीच की स्वाभाविक भिन्नताओं को पूरी तरह नजर अंदाज कर दिया गया है.


आज हालात पूरी तरह बदल चुके हैं जहां महिलाएं अपने हितों के लिए जागरुक हुई हैं वहीं परिवार और समाज भी उन्हें सम्मान देने में कोई कोताही नहीं बरतता. बेटे के ही समान बेटी को भी शिक्षा और उपयुक्त आजादी दी जाती है. उसे भी अपने पैरों पर खड़े होने का अवसर दिया जाता है. लेकिन अगर आज कोई परिवार बेटी के बाद बेटे की चाह रखता है तो नारीवादी इसे महिलाओं के अस्तित्व के साथ खिलवाड़ समझते हैं जबकि हकीकत यह है कि हमारी परंपरा और मान्यताओं के अनुसार विवाह के पश्चात बेटी अपने ससुराल चली जाती है. ऐसे में अभिभावक अकेले ना रह जाएं इसीलिए वह एक बेटे की भी आशा रखते हैं. इसमें भेदभाव की बात कहीं भी स्थान नहीं रखती.

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