देश
की राजधानी दिल्ली में राजघाट स्थित गांधी दर्शन स्थान पर पिछले दिनों
आयोजित आदिवासी संस्कृति संगम कार्यक्रम में जाकर ऐसा अहसास हुआ मानो गांधी
दर्शन स्थल किसी आदिवासी बस्ती के रूप में तब्दील हो गया हो। अपने
आदिवासी भाइयों को उनके परंपरागत पहनावे में 26 जनवरी की परेड में देखने की
आदत अब बासी हो गई है। इंटरनेट के दौर में तो घर में ही इनकी तस्वीरें
देख लोग इस बात से खुद को तसल्ली दे लेते हैं कि चलो, जंगलों में रहने
वाले धरती के एलियन लोगों के दर्शन हो गए। अधिकांश लोगों को इनकी जिंदगी
और उनकी समस्याओं से कोई खास वास्ता नहीं दिखता। बहरहाल, गांधी स्मृति
एवं दर्शन समिति के सहयोग से पहली बार किसी ऐसे कार्यक्रम का आयोजन किया
गया, जिसमें देश के विभिन्न राज्यों से करीब 500 आदिवासियों ने भागीदारी
की और अपनी समस्याओं के संदर्भ में लोगों को विस्तार से बताया और समझाया।
उपभोक्तावादी संस्कृति व आधुनिक विकास के तकनीकी व उद्योग प्रधान युग में
आदिवासी खुद को ठगा-सा और असहाय महसूस करते हैं।
आदिवासी
संस्कृति में यह कहावत मशहूर है कि चलना ही नृत्य है और बोलना ही गीत।
आदिवासी जीवन के नृत्य और गीत के लय, ताल और बोल जब तक जीवित हैं, आदिवासी
संस्कृति तब तक जीवंत और विकासमान है। उनकी जीवनशैली में विकास का मतलब
है आजीविका, आजादी और आनंद के बीच तारतम्य का होना। जो विकास आजीविका के
साधनों व स्रोतों को नष्ट करता है और जिससे लोग आजीविका के संसाधनों से
वंचित हो जाते हैं, उसे आदिवासी समुदाय अपना विकास नहीं मानता। देश के
पहले प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू ने पंचशील सिद्धांत के तहत कहा था
कि आदिवासियों पर वैसे विकास न थोपे जाएं, जिसके चलते इनकी आजीविका,
स्वशासन की पद्धति और संस्कृति पर आंच आती हो। संविधान में पांचवीं और छठी
अनुसूची के अंतर्गत आदिवासियों के हितों पर खास बल देते हुए उनके इलाकों
के जल, जंगल, जमीन और उनके स्वशासन की रक्षा हेतु विशेष प्रावधान तो किए
गए मगर सवाल यह है कि इन सबके बावजूद मुल्क की 10 करोड़ की आदिवासियों की
आबादी आज आक्रोशित क्यों है? इस आक्रोश की आंच को इनसे बात करके महसूस
किया जा सकता है। झारखंड के सिंहभूम से आए कुमार चंद्र मारंडी सर्वोच्च
अदालत के एक फैसले की याद दिलाते हैं-इस साल शीर्ष अदालत ने अपने एक फैसले
में कहा था कि आदिवासी देश का पहला व असली नागरिक है, लेकिन आज हमारी
स्थिति क्या है? हम आदिवासी जिस जमीन पर रहते हैं, उसके नीचे कोयला, सोना,
तांबा, लोहा, बॉक्साइट, यूरेनियम आदि खनिज भरे पड़े हैं और हम फिर भी
गरीब हैं। जंगलों पर कब्जा जारी है।
आखिर
ऐसा क्यों होता है कि जमीन होने के बावजूद हम हरी सब्जियां, धान, गेहूं की
फसल नहीं बो पाते? दरअसल, राज्य की मिलीभगत से प्राकृतिक संसाधनों पर
बडे-बडे़ उद्योग घरानों का कब्जा हो गया है और आदिवासी अपने ही जंगल व
जमीन पर प्रवासी बना दिए गए हैं। सामाजिक कार्यकर्ता कुमार चंद्र मरांडी
का आरोप है कि झारखंड सरकार उद्योगों से मिलने वाले राजस्व का इस्तेमाल तक
आदिवासियों के कल्याण के उद्देश्य से नहीं करती। पुलिस ही सरकार की
भूमिका निभाती है और आदिवासियों की जमीन पर होने वाले गैर कानूनी कब्जों
में उसकी भूमिका किसी से छिपी नहीं होती है। सरकारी अस्पतालों में
आदिवासियों के लिए आने वाली दवाइयां काले बाजार में चली जाती हैं। हमारे
देश के आदिवासियों के लिए जंगल, जमीन और जल से जुड़ी तमाम बहसें एक रस्म
अदायगी के लिए कभी-कभार कर ली जाती हैं। इनके लिए लोकसभा और राज्यसभा में
भी चर्चा होती है, लेकिन जमीनी हकीकत यही है कि आदिवासियों के कल्याण हेतु
बनी सरकारी योजनाएं कागजों से बाहर नहीं निकल पातीं। लिहाजा, इनका लाभ भी
उन तक नहीं पहुंचता। ऐसी योजनाओं पर अमल न के बराबर है। इन क्षेत्रों के
ग्रामसभाओं को एक साजिश के तहत कमजोर किया गया है। आदिवासियों को अपने
अधिकार नहीं मालूम हैं, लिहाजा प्राकृतिक संसाधनों से वंचित होने की
प्रक्रिया बदस्तूर जारी है और कई आदिवासी इलाकों में विकास के नाम पर
नक्सली प्रभाव साफ दिखता है। सरकार और राज्य की मंशा पर से इनका भरोसा टूट
चुका है। दरअसल वे खुद को राज्य व माओवादियों के बीच पिसा हुआ पाते हैं।
राज्य अशांत आदिवासी इलाकों में माओवादियों को पकड़ने के लिए छावनी के रूप
में तब्दील कर देती है, लेकिन उन्हें इस बात की फिक्र नहीं कि उनके इन
अभियानों का वहां की स्थानीय जनता पर क्या असर पड़ता है। इस तरह के कदमों
से आदिवासी ऐसा महसूस करते हैं कि वे राज्य के लिए महत्वपूर्ण नहीं हैं,
क्योंकि उसके लिए उनके खदान व उद्योग ही सर्वोपरि है।
माओवादियों
के लिए भी आदिवासियों के हित से कहीं अधिक महत्वपूर्ण उनका अपना राजनीतिक
क्रांति है जिसके जरिए वे सत्ता हथियाना चाहते हैं। अगर नक्सलवाद
प्रभावित इलाके का कोई आदिवासी माओवादी अपने अधिकारों की बात करता है तो
राज्य उसे अपने दुश्मन वाली हिटलिस्ट में शुमार कर लेती है। कुल मिलाकर
राज्य और माओवादी दोनों ही आदिवासियों को एक औजार के रूप में इस्तेमाल कर
रहे हैं। 10 करोड़ की आबादी और करीब साढ़े चार सौ समुदायों वाले आदिवासी
समूह खुद को अपने ही देश में अलग-थलग महसूस करते हैं जबकि देश के आदिवासी
समुदाय गांधी के सपनों के भारत का अहम हिस्सा हैं। राष्ट्रपिता महात्मा
गांधी आदिवासियों के सरल-सहज जिंदगी से प्रभावित हुए और उन पर होने वाले
शोषण से इतने व्यथित कि उन्होंने आदिवासियों के बीच काम करने के लिए ठक्कर
बापा को भेजा। केरल में एक सरकारी रपट में कहा गया है कि वहां के
आदिवासियों में कोई भी भूमिहीन नहीं है। लिहाजा, सरकार की तरफ से भूमि
वितरण का कोई प्रावधान नहीं है, लेकिन गांधी दर्शन स्थल पर केरल के
आदिवासियों की समस्याओं पर बोलने वाले एक आदिवासी की मानें तो यह रपट झूठ
का पुलिंदा है। उड़ीसा में 26 फीसदी आबादी आदिवासियों की है और आजादी के
64 साल बीत जाने के बाद भी वे गरीब बने हुए हैं तो इसके लिए दोष आखिर
किसका है? सरकार इनके शिक्षा, आवास, रोजगार के लिए कोई योजना क्यों नहीं
बनाती? शायद इसलिए कि ये वोट बैंक नहीं हो सकते और यही इनका पिछड़ापन और
दोष है। आदिवासी अपनी जमीन, जंगल और संस्कृति से बेदखल हो रहे हैं। इनकी
हालत खराब है और आबादी घट रही है। फैशन शो और फिल्म प्रमोशन को तरजीह
देने वाले मीडिया इन्हें तवज्जों आखिर क्यों नहीं देता? बचाव के लिए बहुत
कुछ कहा जा सकता है, लेकिन सरकार के साथ मीडिया भी अपनी भूमिका से चूक रहा
है।
( अरविंद )
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