हमारे देश में सरकारी
अस्पतालों की बदहाल स्थिति किसी से छिपी नहीं है। दूर-दराज के ग्रामीण
इलाकों की बात अगर छोड़ भी दें तो शहरों में स्थित सरकारी अस्पतालों में
भी बुनियादी सुविधाएं मयस्सर नहीं हैं। कहीं पर बुनियादी सुविधाएं यदि हैं
भी तो जरूरी स्टॉफ की तंगी और उनकी लापरवाही के सैकड़ों किस्से सुने जा
सकते हैं। इसी का नतीजा है कि आए दिन देश के प्रभावित इलाकों से इस तरह की
खबरें निकलकर आती रहती हैं कि फलां-फलां अस्पताल में समय पर चिकित्सा
सुविधा न मिलने या डॉक्टरों की लापरवाही से किसी मरीज की मौत हो गई।
डॉक्टरों की लापरवाही और मरीजों के इलाज में कोताही बरतने के ऐसे ही कुछ
शर्मनाक मामले हाल के दिनों में पश्चिम बंगाल से निकलकर सामने आए हैं। सूबे
की राजधानी कोलकाता के बीसी राय शिशु अस्पताल और बर्दवान मेडिकल कॉलेज व
उसके अस्पताल के अलावा मालदा जिले के अस्पताल में पिछले दिनों कुछ दिन के
अंतराल में पचास से ज्यादा बच्चों की मौत हो गई। एक साथ इतने सारे बच्चों
की मौत सचमुच हैरान करने वाली है।
भर्ती
होते ही बच्चों का मौत के मुंह में चले जाना उनकी वास्तविक स्थिति से कहीं
ज्यादा अस्पताल के हालात को बयां करता है। जब राजधानी के सरकारी अस्पताल
बच्चों के मामूली रोगों का इलाज करने में भी अक्षम हैं तो राज्य के बाकी
हिस्सों में क्या हालात होंगे, इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। जिन बच्चों
की जान चली गई उन सबके रिश्तेदारों ने डॉक्टरों पर न सिर्फ लापरवाही
बरतने, बल्कि अस्पताल में अपने बच्चों के इलाज की गुहार लगाने पर बुरा
बर्ताव करने के आरोप लगाए। डॉक्टरों की संवेदनहीनता के इन गंभीर आरोपों के
बाद भी अस्पताल प्रबंधन अपनी किसी तरह की जिम्मेदारी स्वीकार करने की
बजाय बेशर्मी से यह सफाई देने में लगा हुआ है कि यह बिल्कुल सामान्य बात
है। अस्पताल में लाए गए ज्यादातर बच्चे पहले से ही नाजुक स्थिति में थे।
कई बच्चों का वजन बहुत कम था तो कुछ को सेप्टेसीमिया जैसी बीमारी थी यानी
अपनी गलतियों और लापरवाही को न मानकर उसने उल्टे बच्चों के अभिभावकों को
ही दोषी ठहरा दिया। खैर, मामले ने जब ज्यादा तूल पकड़ लिया, तब सरकार ने
दो सदस्यों की एक विशेषज्ञ कमेटी इस पूरे मामले की जांच के लिए बर्दवान
मेडिकल कॉलेज भेजी। कमेटी मामले की गंभीरता से जांच करती, इसके उलट उसने
अपनी जांच महज 25 मिनट में पूरी कर अस्पताल को क्लीन चिट दे दी। हैरानी की
बात यह है कि कमेटी की इस राय से राज्य सरकार और केंद्रीय स्वास्थ
मंत्रालय ने भी अपनी स्वीकृति जताई।
कमोबेश
ऐसा ही वाकया जून के आखिर में हुई मौतों के बाद खुद पश्चिम बंगाल की
मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का था। उस वक्त भी बच्चों के परिजनों ने डॉक्टरों
पर इलाज में कोताही बरतने के इल्जाम लगाए थे और इस बार भी यही शिकायत है।
गौरतलब है कि इस साल जून में कोलकाता में उस वक्त हड़कंप मच गया, जब
इन्हीं अस्पतालों में एक हफ्ते के भीतर 27 बच्चों को सही इलाज न मिल पाने
की वजह से मौत के मुंह में जाना पड़ा। मीडिया में जब यह खबर आई तो अस्पताल
प्रबंधन ने पहले तो इन खबरों को यह कहकर खारिज कर दिया कि मीडिया इस
मामले को बेवजह तूल दे रहा है, लेकिन जब मामला ज्यादा बिगड़ गया तब
अस्पताल प्रबंधन ने अपनी सफाई में वही दलील दी, जो वह आज दे रहा है। यानी
अस्पताल लाए गए बच्चे नाजुक स्थिति में थे। यदि अस्पताल प्रबंधन की यह
दलील एक बार मान भी ली जाए तो अब सवाल यह उठता है कि अस्पताल में लाने के
बाद इन बच्चों के इलाज की जिम्मेदारी किसकी थी? इलाज सुनिश्चित करने की
बजाय अपनी जिम्मेदारियों से मुंह चुराना आखिर क्या दर्शाता है। फिर पश्चिम
बंगाल में इस तरह की यह कोई पहली-दूसरी घटना नहीं है, बल्कि वहां पहले भी
इसी तरह के लापरवाही के मामले उजागर होते रहे हैं। यह महज संयोग नहीं है
कि इसी बीसी राय शिशु अस्पताल में अगस्त-सितंबर 2002 में 24 घंटे के भीतर
14 बच्चों की मौत हुई तो साल 2006 के नवंबर में तीन दिन के अंदर 22 बच्चे
मौत के मुंह में समा गए। कमोबेश सभी मामलों में मुख्य वजह डॉक्टरों की
लापरवाही और संवेदनहीनता थी। यह बात सही है कि देश के लगभग सभी राज्यों
में सार्वजनिक चिकित्सातंत्र लचर हालत में है और पश्चिम बंगाल भी इससे
अछूता नहीं।
शिशु
मृत्यु दर के मामले में महाराष्ट्र, केरल और तमिलनाडु के बाद पश्चिम बंगाल
का स्थान चौथा है। सूबे के जिन अस्पतालों में बच्चों की मौत हुई वे गंभीर
बदइंतजामी के शिकार हैं। इन अस्पतालों में चिकित्सा सहूलियतें और
बुनियादी ढांचा न के बराबर है। मरीजों की तादाद में डॉक्टर और नर्सो की
संख्या भी बेहद कम है। ऐसे में खुद-ब-खुद अंदाजा लगाया जा सकता है कि
इमरजेंसी की हालत में यहां किस तरह से इलाज किया जाता होगा। अफसोसजनक बात
यह है कि इन अस्पतालों में बार-बार बच्चों की मौत के बावजूद सरकार जरा भी
नहीं चेती है। अस्पतालों के लचर तंत्र को दुरु स्त करने के लिए उसने अपनी
ओर से कोई गंभीर कोशिश नहीं की है। यदि उसने कोई गंभीर कोशिश की होती तो
इन अस्पतालों में मासूम बच्चों के मौत के मामले बार-बार सामने निकलकर नहीं
आते। कहने को तो मुख्यमंत्री ममता बनर्जी खुद को गरीबों का रहनुमा बताती
हैं, लेकिन उन्हीं की सरकार में राज्य के लोग बुनियादी सुविधाओं से भी जूझ
रहे हैं। फिलहाल तो राज्य की कमान के साथ-साथ स्वास्थ्य मंत्रालय भी उनके
पास है। लिहाजा, राज्य में सार्वजनिक स्वास्थ्य की बदहाल स्थिति का ठीकरा
वह किसी और के सिर नहीं फोड़ सकतीं। यही नहीं, केंद्र में केंद्रीय
स्वास्थ्य और परिवार कल्याण राज्यमंत्री का जिम्मा भी उन्हीं की पार्टी के
सुदीप बंदोपाध्याय के पास है। फिर क्या वजह है कि राजधानी के प्रमुख
अस्पतालों में भी हालात सुधर नहीं पा रहे हैं। दरअसल, जब तक राज्य सरकार
की पहली प्राथमिकता सार्वजनिक चिकित्सा तंत्र को पटरी पर लाने की नहीं
होगी, तब तक वहां हालात नहीं सुधरेंगे।
अस्पतालों
में बुनियादी ढांचे को दुरु स्त करने के अलावा सरकार को डॉक्टर और नर्सो
की संख्या भी बढ़ानी होगी। डॉक्टर, नर्स और आवश्यक स्टॉफ अस्पताल में हर
समय मौजूद रहें और उनकी जवाबदेही सुनिश्चित हो इसके लिए प्रयास करने की
आवश्यकता है। पश्चिम बंगाल सरकार को इन सबके बारे में सोचना चाहिए और कोई
सर्वस्वीकृत समाधान निकालने की दिशा में कोशिश करनी चाहिए। सरकारी
अस्पतालों में ड्यूटी में संजीदगी का अभाव भी आज एक बड़ी समस्या है। अगर
डॉक्टर-नर्स अपनी ड्यूटी में संजीदा होते तो राजधानी कोलकाता के इन बड़े
अस्पतालों में नवजात शिशुओं के बार-बार मरने की खबरों पर इस तरह हो-हल्ला
नहीं मचता।
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