घर- बाहर, झाड़ू-पोंछा, चूल्हा,चौका,
कपडे, बर्तन, पति, रिश्ते, बच्चे,
कितने बंधनों में
बांधा है तुम्हें
बड़ी बेहया हो फिर भी
लिखती हो,
कितनी ही बार चलायी है
अवरोधों की कैंची
तुम्हारी जबान पर
पर ये क्यों बदल लेती
है नया रूप
तुम्हारा मौन तो तब भी
सर्वमान्य था
पर क्यों बदली है ये
कलम में
सुनो नहीं चाहिए कोई
झाँसी की रानी उन्हें,
और नक्कारखाने में
तूती सी बजकर
क्या साबित करना चाहती
हो,
याद करों उन हांथों को
जो जिन्दा चुन देते हैं
तुम्हे दीवार में,
या
झोंक दी जाती हो किसी तंदूर में,
कितने जन्म लोगी और
कितनी अग्निपरीक्षाएं
और चाहिए तुम्हे,
हर बार खड़ी हो जाती
हो,
झाड़ते हुए चिता की
धूल और
ख़ामोशी से जुट जाती
हो संभालने, सजाने, बढ़ाने
इस
दुनिया को, और लिखने?
क्यों नहीं मार देती
इस छटपटाहट को,
देखो कि सब्जी में नमक
क्यों कम है,
या बच्चों के होमवर्क
पर कितने स्टार मिले हैं,
पढ़ी लिखी हो तो करो
बनिए और दूधवाले का हिसाब
या कमाओ कि घर न सही
उन सभी चीज़ों के भुगतान की
किश्तों में
तुम्हारा बराबर हिस्सा है
जो लगाती है गृहस्वामी
के रुतबे में चार चाँद,
सुनो ये घर तुम्हारा
है, सजाओ
इसे करीने से,
बिछ जाओ रोज़ कालीन की
तरह,
बनाओ रोज़ सुंदर बाल, लाली-पावडर क्या चाहिए
तुम्हे,
देखो वो गुडिया कितनी
सुंदर है, ओर
उसका सर हिलता है केवल हाँ में,
छि ! फ़ेंक दो वो कलम
और कागज़,
सुनो तुम्हारा छौंक
लगाना भर देता है
सारे घर को एक मनभावन
सुगंध में,
और तुममें रची मसालों
की वो गंध ही तुम्हारी पहचान
है,
चाहिए तो खरीदो
गहने-कपडे और भूल जाओ वो
रास्ता जो जाता है
किताबों की दुकान की ओर,
वर्ना दफन कर दी जाओगी
अपने ही खोल में,
उस ओर जाते हर रास्ते
में बिछा दिए जायेंगे,
कंकड़, कांच ओर नुकीली कीलें
और झोंक दिए जायेंगे
हर कदम पर सैकड़ों अंगारे,
अब तो बाज आओ और सिर्फ
छौंक लगाओ ......................
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