शुक्रवार, 9 मार्च 2012

मृत्यु - बोध "

"मृत्यु - बोध "

साँसों के रेशे जब खोल रहे होंगे
मेरी देह से बंधी अंतिम गाँठ
मेरा मन पकायेगा मेरी देह के चूल्हे पर
सफ़र का अंतिम कलेवा
और तुम भटकोगी प्रेम की गठरी सिर पर लिए
दो देह लिप्त सभ्तायों के बिच, विवश

उस निमिष अंतिम बार सुनूंगा मैं
... ... इन छप्परों पर से गुजरते
परिंदों के झुण्ड का कलरव
और याद आ जायेगा
एक पिली शाम में उड़ता धानी आँचल
विन्ध्य के बियाबानों में खोती
एक आदिम कमंचे की धुन
तेरे लिए चुराकर लाये मकई के हरे भुट्टे
शायद ही मैं याद कर पाऊं जीवन भर के संग्राम
मेरी असफलतायें
रेत के निरर्थक टीलों पर मेरे अहम् का विजयघोष

तुम देखना ...
अविराम मेरी आँखों में
ताकि सुन सको
हमारे प्रणय का अंतिम गीत
और मैं आत्मसात कर पाऊं
विछोह की छाछ पर मक्खन बन उभर आई तेरी अम्लान छवि
शायद वो अंतिम मंथन होगा हमारे सम्बन्धों का

मेरी संततियों....!
जब तुम रो पड़ोगे
आदतन दांतों से नाख़ून कुतरते हुये
मेरी चारपाई का उपरी पायदान पकड़ कर
तब माफ़ कर देना अपने सर्जक को
उसकी अक्षमता को
शायद इस जीवन की निरंतरता का सत्य...
..........इसके अपूर्ण रह जाने में ही हैं
जैसे वादन के बाद विराम
उच्छ्वास के बाद निःश्वास

तुम्हारी मान्यतायें
मुझे मृत घोषित कर देगी देह की परिधियों पर
और मैं भभक कर जी लूँगा
अपनी मौत........................//

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