दिल्ली
में हर साल गायब हो रहे बच्चों की तादाद लगातार बढ़ रही है, लेकिन पुलिस
किंकर्तव्यविमूढ़ की स्थिति में है। इस मामले में पुलिस की नाकामी को
देखते हुए दिल्ली हाईकोर्ट ने दिल्ली के पुलिस आयुक्त को निर्देश दिया गया
है कि वह लापता बच्चों की तलाश के लिए विशेष टॉस्क फोर्स गठित करें, जो इस
बात का पता लगाए कि कहीं कोई गैंग बच्चों की तस्करी में तो शामिल नहीं
है। दरअसल, दो से चार साल की उम्र के बच्चों को तस्करी के लिए उठाया जाता
है। दिल्ली के आसपास बच्चों की तस्करी और बाल मजदूरी कराने वाले गैंग
सक्रिय हैं। अगर छह माह तक गायब कोई बच्चा नहीं मिलता है तो उसके मामले की
जांच एंटी किडनैपिंग सेल को सौंप दी जाए। अदालत ने पुलिस आयुक्त को यह
भी निर्देश दिया है कि गायब होने वाले बच्चों के बारे में पुलिस स्टेशन व
पीसीआर को सूचना देने की प्रक्रिया के मानक तय किए जाएं। साथ ही बच्चों की
गुमशुदगी के मामलों की जांच के लिए कुछ और पुलिस अधिकारी नियुक्त किए
जाएं। इतना ही नहीं पुलिसकर्मियों को निर्देश दिया जाए कि ऐसे मामलों में
जल्द से जांच पूरी की जाए। पुलिस आयुक्त कुछ अधिकारियों की एक टीम गठित
करें जो जमीनी स्तर पर काम करने वाले पुलिसकर्मियों को प्रशिक्षण देंगे कि
इस तरह के मामलों में किस तरह संवेदनशीलता के साथ काम किया जाए।
अदालत
ने पुलिस को यह भी निर्देश दिया है कि बच्चों को ढूंढ़ने के बाद उन्हें
डीएलएसए की सदस्य सचिव या उनके द्वारा नियुक्त सदस्य के समक्ष पेश किया
जाए ताकि अदालत को बच्चों के गायब होने के कारणों की पूरी जानकारी मिल
सके। अदालत ने दिल्ली सरकार के समाज कल्याण विभाग व डीएलएसए को कहा है कि
वह काउंसलर की एक कमेटी भी गठित करें जिसका नोडल अधिकारी ज्वाइंट कमिश्नर
ऑफ पुलिस को बनाया जाए। यह कमेटी पुलिस द्वारा तलाशे गए बच्चों और उनके
माता-पिता की काउंसलिंग करेगी और बच्चे के गायब होने के कारणों का पता
लगाएगी। इसके अलावा अदालत ने घर से गायब हुए बच्चों का स्कूल द्वारा नाम
काटने की बात को ध्यान में रखते हुए शिक्षा निदेशालय के सचिव को निर्देश
दिया है कि वह इस संबंध में सभी स्कूलों को सर्कुलर जारी करें कि इस तरह
बच्चों के नाम न काटे जाएं ताकि बच्चे अपनी पढ़ाई जारी रख सकें। बच्चों के
गायब होने के संबंध में अलग-अलग आंकड़े मीडिया में छपने के बाद अदालत ने
इस मामले में विशेष तौर पर संज्ञान लिया था। असलियत यह है कि लापता
बच्चों की बढ़ती तादाद हमारे देश की ही नहीं दुनिया की समस्या बन चुकी है।
देश में बाल वेश्यावृत्ति का ग्राफ लगातार बढ़ रहा है और वह नित नए आयाम
में हमारे सामने आ रहा है।
दुनिया
में 12 लाख बच्चों की हर वर्ष खरीद-फरोख्त होती है जिनमें एक बड़ी संख्या
भारतीय बच्चों की होती है। पूरे देश से सालाना तकरीब 44-55 हजार बच्चे
गायब होते हैं, लेकिन विडंबना यह है कि गायब होने वाले बच्चों में से 11
हजार के करीब बच्चे कहां चले जाते हैं पता ही नहीं चलता। जाहिर सी बात है
ये बच्चे आपराधिक गिरोहों के हत्थे चढ़ जाते हैं जहां यातना, यंत्रणा,
शोषण, दुर्व्यवहार और उत्पीड़न उनकी नियति बन जाती है और फिर वे उन्हीं
के गुलाम बनकर रह जाते हैं। ऐसे में उनके मौलिक अधिकारों की बात करना ही
बेमानी है। एक बार कोई बच्चा यदि आपराधिक गिरोह के हत्थे चढ़ गया तो फिर
उसके चंगुल से बाहर निकल पाना उसके लिए आसान नहीं होता। आज कम उम्र यानी
14 वर्ष से कम उम्र की बच्चियों की मांग बाजार में सबसे ज्यादा है। यही
वजह रही है कि बीते सालों में 12 से लेकर 16-17 वर्ष उम्र की लापता
लड़कियों की तादाद बढ़ रही है। वहीं 12 साल से कम उम्र के लड़कों की तादाद
भी ज्यादा है। इसका सबसे बड़ा कारण बालवेश्यावृत्ति है जिसे रोक पाने में
सरकार नाकाम रही है। देश की राजधानी दिल्ली लापता होने वाले बच्चों के
मामले में शीर्ष पर है। राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र की तो स्थिति इस मामले
में और भी खौफनाक है। राजधानी दिल्ली और इससे सटे जिलों गाजियाबाद, गौतम
बुद्ध नगर खासकर नोएडा की हालत और भी बदतर है। इन इलाकों में बच्चे और भी
असुरक्षित हैं। इसमें सबसे बड़ा कारण पुलिस की उदासीनता, गरीबी और
जागरूकता का अभाव है।
असलियत
यह है कि कोई ही दिन ऐसा होता हो जबकि कोई बच्चा लापता न होता हो या फिर
उसे अगवा न किया जाता हो। पुलिस भले ही दावा कुछ भी करे लेकिन हकीकत यही
है कि वह इसे रोक पाने में पूरी तरह नाकाम रही है। दिल्ली से औसतन हर दिन
16 बच्चे गायब होते हैं यानी हर माह करीब पांच सौ और साल में करीब छह हजार
बच्चे गायब होते हैं। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के मुताबिक दिल्ली
बच्चों के गायब होने के मामले में पहले स्थान पर है। मिसिंग पर्सन्स
स्क्वॉड के आंकड़ों पर गौर करें तो पिछले तीन साल में दिल्ली से लगभग 18
हजार से ज्यादा बच्चे लापता हुए हैं। ज्यादातर मामलों की जांच में बच्चों
को अगवा करने वाले उनके परिचित होते हैं। आंकड़े बताते हैं कि करीब पचास
फीसदी मामलों में परिचित का हाथ होता है। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की
मानें तो हर साल दिल्ली से तकरीबन सात हजार बच्चे गायब हो जाते हैं। इस
सच्चाई को नकारा नहीं जा सकता कि पुलिस के पास पहुंची लापता बच्चों की
सूचनाओं में से कुल मिलाकर मुश्किल से 10-12 फीसदी मामलों की ही रिपोर्ट
दर्ज की जाती है। इस मामले में देश की पहली महिला पुलिस अधिकारी रहीं
किरण बेदी का मानना है कि-पुलिस के इस रवैये को लेकर लोग इस कदर हताश हो
चुके हैं कि बच्चों की गुमशुदगी के मामले अब पुलिस से ज्यादा चाइल्ड
हेल्पलाइन के पास दर्ज कराए जाते हैं। बचपन बचाओ आंदोलन के संस्थापक कैलाश
सत्यार्थी का कहना है कि इनके गायब होने के पीछे आपराधिक गिरोह का हाथ
होता है। हालांकि अपनी साख बचाने के लिए पुलिस द्वारा सामाजिक या आर्थिक
कारणों की आड़ ली जाती है। पुलिस इस मामले में कोई भी जिम्मेवारी अपने ऊपर
नहीं लेना चाहती। इसमें दो राय नहीं कि इस मामले में सामाजिक-आर्थिक
कारणों को भी नकारा नहीं जा सकता, लेकिन यह भी एक कड़वा सच है कि अधिकांश
बच्चे आपराधिक गिरोहों द्वारा उठाए जाते हैं, जिन्हें ढाबे, भीख मांगने,
जेब तराशने के काम में लगा दिया जाता है अथवा बाल वेश्यावृत्ति के लिए बेच
दिया जाता है। दुश्मनी अथवा फिरौती की खातिर अपहृत बच्चों की तादाद कम ही
होती है। पिछले कुछ दिनों में ऐसे मामले भी उजागर हुए है जिनमें
नौकर-नौकरानियों, पूर्व कर्मचारियों या परिचित ज्यादा शामिल रहे हैं।
लापता बच्चों के मामलों पर नजर रखने के लिए करीब 32 राज्यों ने केंद्र के
साथ एक करार किया है जिसके तहत गुमशुदा बच्चों की जानकारी आदान-प्रदान की
जाएगी।
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