रविवार, 25 मार्च 2012

क्या स्त्री परजीवी है ??


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न जाने क्यूं -----
बार बार ये प्रश्न गूंजता है मन में ----
स्त्री का अपना घर कौन सा है ???
... मायका या ससुराल ????
सोचो आज अगर पिता से
लड़की अपना घर मांग ले तो ?
उसका मायका छूट जायेगा न
खून के रिश्ते अगर बेरहम नहीं होंगे ----
फिर भी खटास तो आ ही जायेगी ----
किसी स्त्री का अपना घर कहाँ होता है ----
पिता का घर ----पति का घर ---बेटे का घर --
परजीवी हुई न -----और क्या नाम दूँ ---
हँसी आती है कभी कभी यह सोच कर
स्त्री की न कोई जाति है न धर्म
वो सब पुरुष का दिया -------------
कहीं देवी बना दिया कहीं दासी
कहीं कुलीन परिवार के ऐश्वर्य में
मिस्र की ममी की भांति सज्जित हो
उनके गुण दोष छुपा कर घुट घुट कर मरती है
तो कोई दासी बन कर खटती है -----
आध्यात्म या आत्महत्या -------
दोनों ही एक सहज साधन है
इन से मुक्ति का और कोई रास्ता नहीं
अगर ये रास्ता नहीं अपनाया फिर --------
तो यही से शुरू होता है उसका संघर्ष --------
सच ही तो कहा मैने ----------------------
स्त्री परिवार की इज्जत कहलाती है
पर परिवार पुरुष का ही कहलाता है
कर्तव्य तो है उसके पर अधिकार नहीं
बहुत से ऐसे पति पत्नी भी होते है
प्रेम नहीं है आपस में पर -----
रिश्ते निभाने है ----------
पर बिना प्रेम के रिश्ते क्या होते है
मुझे समझ में नहीं आता
इनको क्या कहते है ----------------
कोई बता सकता है क्या ??--------
मुझे तो लगता है मन का सब खेल है
मन मिला तो मेला -----
वरना सब से भला अकेला ----
अगर प्रेम भी नहीं तो क्या रह गया फिर ----
माना तुम आसमान हो ------------------
तो हम भी जमीन है --------------
दोनों ही एक दूसरे के बगैर अधूरे ---------
फिर तुम्हारा अहम क्यों आड़े आता है ------
अगर सीमा रेखायें स्वार्थ और अधिकार के लिये खींची हो -------
तो उनके पार जाना पाप नहीं -

शुक्रवार, 16 मार्च 2012

मेरे सपने!



अथाह सागर को
एक नन्ही सी
नाव के सहारे
नाप आये...
मेरे सपने!

विस्तार कितना है
जीवन का
सब सत्य
भांप आये...
मेरे सपने!

विशाल अम्बर पर
विचरण कर
वहाँ अपनी शब्दावली
छाप आये...
मेरे सपने!

सारी घृणा
सकल कृत्रिमता को
इकठ्ठा कर
ताप आये...
मेरे सपने!

आशान्वित हो
दुर्गम राहों को
बड़ी सुगमता से
नाप आये...
मेरे सपने!

बुधवार, 14 मार्च 2012

ऊर्जा संकट का सही समाधान


लंबे समय से हमारा देश ऊर्जा संकट से जूझ रहा है। उद्योग जगत इस संकट को पूरे साल महसूस करता रहता है और इसका खामियाजा भी बहुत तरह से भुगतता है। गर्मियों का मौसम आते ही आम आदमी को भी इस संकट का एहसास बहुत तीव्रता से होने लगता है, क्योंकि इस वक्त इसके चलते होने वाली मुश्किलों से उसको सीधे तौर पर जूझना पड़ता है। बार-बार इसके समाधान की मांग उठती है, उद्योगों की ओर से और आम जनता की ओर से भी। समाधान के लिए हर साल बड़ी-बड़ी योजनाएं बनाई जाती हैं और बड़ी-बड़ी बातें भी की जाती हैं। सरकारें कुछ आश्वासन देकर अपना कर्तव्य पूरा मान लेती हैं और जनता भी इन आश्वासनों की हकीकत समझ कर खामोश हो जाती है। अफसोस की बात यह है कि इस संकट के समाधान के लिए जो सही प्रयास होने चाहिए वे कहीं से भी शुरू नहीं किए जाते – न तो सरकार की ओर से और न जनता की ही ओर से। बड़ी-बड़ी योजनाओं पर बातें तो बहुत होती हैं, लेकिन भारी-भरकम लागत के कारण इन पर काम कुछ भी नहीं हो पाता है। हालांकि जिन छोटी योजनाओं पर कम लागत में काम हो सकता है, उनकी चर्चा तक नहीं की जाती। संतोषजनक बात यह है कि हरियाणा में अब ऐसी ही कुछ योजनाओं पर काम शुरू किया जा रहा है।
हरियाणा में गैरपरंपरागत ऊर्जा विभाग ने इस दिशा में सार्थक प्रयास शुरू किया है। उसने कचरे से बिजली बनाने की योजना को मूर्त रूप देने की प्रक्रिया शुरू की है। विभाग सबसे पहले यह काम राज्य के पांच विश्वविद्यालयों में शुरू करवा रहा है। इन विश्वविद्यालयों में कचरे के जरिये बायोगैस उत्पादन के संयंत्र लगाए जाएंगे। उसी बायोगैस से आगे चलकर बिजली भी पैदा की जाएगी। योजना यह देखते हुए तैयार की गई है कि इन विश्वविद्यालयों में हॉस्टलों और उनमें रहने वाले छात्रों की संख्या अधिक है। इस तरह जाहिर है कि उनमें कचरा भी अधिक निकलता है। हॉस्टल से लेकर मेस और कैंटीन से भी भारी मात्रा में किचन वेस्ट निकलता है। इस वेस्ट से ही बायोगैस बनाई जाएगी। बायोगैस बनाए जाने के बाद इसका जो अपशिष्ट बचेगा उससे जैविक खाद बनाई जा सकेगी। हालांकि यह कोई नई तकनीक नहीं है। इस तकनीक की जानकारी यहां वर्षो से है और कई जगह इस पर आंशिक तौर पर काम भी हुआ है। लेकिन आम तौर पर इसका दायरा घरेलू इस्तेमाल से आगे नहीं बढ़ सका है।
अब यह जो काम शुरू हुआ है, अगर इस पर व्यवस्थित ढंग से काम कर लिया गया तो इससे बिजली का संकट तो हल हो ही जाएगा, कूड़े के निस्तारण और खेती के लिए जैविक खाद की समस्या भी हल होगी। यह एक सर्वविदित तथ्य है कि देश के सभी शहरों से प्रतिदिन लाखों टन जैविक कचरा निकलता है। इस कचरे का निस्तारण पूरे देश की नगर पालिकाओं के लिए बड़ी समस्या है। राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में तो हर तीसरे-चौथे साल कहीं न कहीं कचरे का पहाड़ जैसा बन जाता है और इसके बाद जब उस जगह पर कचरे की डंपिंग मुश्किल हो जाती है तो नई जगह तलाशनी पड़ती है। जहां कहीं भी कचरा डंप किया जाता है वहां कचरे की सड़ांध के चलते रास्ते से गुजरना भी मुश्किल हो जाता है। इसके अलावा उसमें मौजूद खाद्य सामग्री पर पक्षियों के मंडराने के कारण इससे हवाई जहाजों की उड़ानों के लिए भी मुश्किलें पैदा होती हैं। इस तरह कचरे की अनियोजित डंपिंग से वातावरण में प्रदूषण तो फैलता ही है, साथ ही लोगों के स्वास्थ्य पर भी इसका प्रतिकूल असर पड़ता है। इससे कई तरह की बीमारिया फैलती हैं।
यह बात केवल दिल्ली जैसे महानगरों में होती हो, ऐसा भी नहीं है। पंजाब के लुधियाना और जालंधर जैसे शहरों से भी बहुत भारी मात्रा में कचरा निकलता है। धार्मिक स्थलों पर भी प्राय: भारी भीड़ होने के कारण वहां बहुत बड़ी मात्रा में कचरा निकलता है। विशेष आयोजनों के समय तो वहां के कचरे का निस्तारण बहुत बड़ी समस्या बन जाता है। अक्सर होता यह है संबंधित नगर पालिका के अधिकारी अपशिष्ट को अपने क्षेत्र से बाहर कहीं भी फेंक कर सिर्फ अपने सिर की बला टाल देते हैं। ऐसा करते समय वे यह भी नहीं सोचते कि दूसरी जगहों पर इसका परिणाम क्या होगा और भविष्य में यह पूरी मनुष्यता के लिए कितनी बड़ी मुसीबत बनेगा। हाल ही में हरिद्वार में हुए कुंभ के दौरान भी यही हुआ। कुंभ का पूरा कचरा उठा कर राजाजी नेशनल पार्क के आसपास की खाली जगह पर डाल दिया गया। अब इस कचरे में पड़े कई तरह के खाद्य और अखाद्य पदार्थ पार्क के अनजान जानवर खा रहे हैं। जाहिर है, यह सब पार्क के जानवरों के लिए नुकसानदेह ही साबित होगा। जबकि अगर इस अपशिष्ट के प्रबंधन के बारे में पहले से सोचा गया होता और इसकी सही व्यवस्था बनाई गई होती तो यह नुकसान के बजाय फायदे का कारण बन सकता था। इस समय पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश ही नहीं, राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में भी आम जन के लिए बिजली का संकट बड़ी समस्या बना हुआ है। अगर कचरे का इस्तेमाल बिजली बनाने में किया जा सके तो इसके दो फायदे तो साफ नजर आते हैं। पहला तो यह कि बिजली का संकट इससे काफी हद तक दूर हो जाएगा और दूसरा यह कि कचरे का सार्थक उपयोग हो जाएगा। इस तरह पहले बायोगैस और फिर उससे बिजली बनाने की प्रक्रिया में निकले हुए अपशिष्ट को भी इधर-उधर फेंकने की जरूरत नहीं होती है। यह खेतों के लिए बहुत अच्छी जैविक खाद का काम करता है। यह खाद न सिर्फ फसलों की उपज बढ़ाती है, बल्कि भूमि की उर्वराशक्ति को भी लंबे समय तक बनाए रखती है। इस तरह देखें तो इस प्रक्रिया में निकला अंतिम अपशिष्ट भी बजाय किसी नुकसान के फायदा पहुंचाने वाला है।
बेहतर यह होगा कि आसपास के दूसरे राज्यों की सरकारें भी हरियाणा की ही तरह ऊर्जा के वैकल्पिक स्रोतों पर अपना ध्यान केंद्रित करें। खासकर कचरे से बिजली बनाने की प्रक्रिया पर अगर ठीक ढंग से काम किया जा सके तो इससे कुछ राज्यों की कई समस्याएं एक साथ हल हो जाएंगी। आम तौर पर ऐसी योजनाओं के साथ होता यह है कि प्रोजेक्ट तैयार किया जाता है और उस पर काम भी शुरू होता है। शुरुआती दौर में तो जोश होता है, लेकिन जैसे-जैसे समय बीतता जाता है उससे जुड़े लोगों का उत्साह ठंडा पड़ता जाता है। अंतत: नतीजा यह होता है कि योजना ठंडे बस्ते के हवाले हो जाती है। पिछले कई वर्षो से काम चल रहे होने के बावजूद वैकल्पिक ऊर्जा स्रोतों के उपकरण अभी भी आम प्रचलन में नहीं आ सके हैं। इसकी एक बड़ी वजह इनका प्रचार-प्रसार न होना भी है। अगर सरकारें इन सभी मोर्चो पर सुविचारित ढंग से काम करें तो निश्चित रूप से इन समस्याओं का प्रभावी समाधान हो सकता है।

आदमी, आदमी है!


इधर आदमी के बारे में कुछ नया ज्ञान हुआ है। आपसे शेयर करता हूं।
अपने देश का आदमी कुछ ज्यादा ही आजाद है। मुकम्मल आजाद है। वह कहीं, कोई रोक-टोक नहीं मानता। बिल्कुल उन्मुक्त है। बंधन मुक्त है। सिर्फ अपना अधिकार याद रखने को आजाद है। उसने इसी आजादी के साथ अपने कर्तव्य की देखरेख का जिम्मा सरकार को दे दिया है। उसकी आजादी, रगों से बाहर निकल स्वतंत्रता की परंपरागत परिभाषा को नया विस्तार दे रही है। तरह-तरह की आजादी है।
कुछ दिन पहले बेतिया में मोटरसाइकिल की ठोकर से एक बकरी घायल हुई। लोगों ने मोटरसाइकिल सवार को मार डाला। (किसी को, कहीं भी, कभी भी मार डालने की आजादी)।
सरकारी कर्मियों की अपनी आजादी है। सरकार परेशान है। कर्मियों को ड्यूटी पर मौजूद रखने के लिए बेजोड़ तकनीक से लैस हो रही है। समाज कल्याण विभाग ने सीडीपीओ (बाल विकास परियोजना पदाधिकारी) की आजादी को खत्म करने के लिए मोबाइल ट्रैकिंग सिस्टम लागू किया। कुछ आजाद पकड़े गये। अब ‘वीडियो इंस्पेक्शन’ को ज्यादा असरदार उपाय माना गया है। आजादी रुकेगी?
यह आजादी की नई किस्म है। अभी- अभी स्पेशल विजिलेंस यूनिट ने डीएन चौधरी (तत्कालीन राजभाषा निदेशक) के और चालीस लाख रुपयों का पता किया है। (कमाने, उसे छुपाने या फंड मैनेजरी की आजादी)।
रुपये का मोह, आजादी की भावना को खासा उछाल देता है। विजिलेंस ब्यूरो ने इसी हफ्ते दिलचस्प मुकदमा किया है। एक कंपनी को जब ठेका न मिला, तो वह पटना हाईकोर्ट चली गयी। सरकार (जल संसाधन विभाग) पर अंगुली उठा दी। जब जांच हुई, तब कंपनी ही कसूरवार मानी गयी। (बेहिचक आरोप लगाने की आजादी)।
आजादी के मामले में अपनी पुलिस अव्वल नंबर है। झंझारपुर के थानेदार ने गोधनपुर के लक्ष्मी साहू तथा उनकी पत्‍‌नी श्रीमती भवानी देवी को इसलिए जेल भेज दिया, चूंकि उनके पास रिश्वत देने लायक रुपये न थे। (कुछ भी कर गुजरने की आजादी)। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को विधानसभा में कहना पड़ा-’साहू दंपति के सम्मान पर हुए आघात का मुआवजा मिलेगा।’ रणवीर सेना सुप्रीमो ब्रह्मेश्वर मुखिया आठ वर्ष से जेल में बंद हैं। मगर पुलिस तथा सरकारी वकील उनको फरार बताने को आजाद है। (शासन को परेशानी में डालने की आजादी)।
बिहार में केंद्र सरकार के दफ्तरों पर भी बिहारी आजादी की छाप है। सीबीआई ने पीएफ (भविष्य निधि) आफिस के इन्फोर्समेंट आफिसर बीके सिन्हा तथा कुछ ठेकेदारों के ठिकानों पर छापा मारा। इन पर ठेका हासिल करने में इस्तेमाल होने वाले पीएफ कोड नम्बर के मुतल्लिक गड़बड़ी का आरोप है। यह मामला पिछले वर्ष उजागर हुआ था। रीजनल पीएफ कमिश्नर मनोहर लाल नगोड़ा तथा असिस्टेंट पीएफ कमिश्नर नरेंद्र कुमार घूस लेते पकड़े गये थे। लेकिन गोलमाल नहीं थमा। (नसीहत न लेने की आजादी)।
आजादी की कुछ और किस्में इस प्रकार हैं। लाश पर राजनीति की आजादी। समस्या की मूल वजह को सतही आरोप-प्रत्यारोप में उलझाने की आजादी। धान-गेहूं खरीद तक पर राजनीति की आजादी। बाढ़-सूखा राहत पर राजनीति की आजादी। भूखे-नंगों को जाति-संप्रदाय में बांटने की आजादी। स्कूलों को खिचड़ी वितरण केंद्र बनाने की आजादी। गंगा को पूजते हुए उसे गंदा करने की आजादी। समर्थक तय करने की आजादी। बच्चों को मारकर बड़ों का बदला लेने की आजादी। लाशों का संतुलन बनाने की आजादी। सहूलियत की गर्दनें चुनने, उसे उतारने की आजादी। जाति के आधार पर अपराध को माफी की आजादी।
मेरे मुहल्ले में एक किमी. का नाला सात वर्ष से बन रहा है। चार साल से पानी का पाइप लाइन बिछ रहा है। यह मजिस्ट्रेटों की बस्ती में विकास की रफ्तार है। (सब कुछ जायज होने की आजादी)। हम कभी-कभी अचानक मर्द बन जाते हैं। तब, जब कोई साइकिल चोर या जेबकतरा पकड़ा जाता है। (मर्द बनने की आजादी)। एक बिहारी के नाते रा-मैटेरियल बने रहने की आजादी। आदमी, अहिंसा दिवस पर मुर्गो को हलाल कराता है। खस्सी कटवाता है। ड्राई-डे तामिल कराने के लिए पुलिस को दारू के अड्डों पर पहुंचना पड़ता है।
पुलिस,जीपीएस सिस्टम से लैस हो रही है। चौराहों पर सीसीटीवी लगनी है। ट्रैफिक दुरुस्त करने की अत्याधुनिक तैयारी है। लेकिन आदमी और उसकी आजादी ..! आदमी, आदमी है? आदमी, आदमी बनेगा?

फ़तवों और फरमानों के बीच सिसकता इंसान




भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है, यहां संविधान द्वारा लागू कानून सर्वोपरि होता है…रुकिए यह सब शायद गलत है . अब भारत धर्मों में बंट चुका है, कानून का ठेका हमारे खाप पंचायत और मुस्लिम लीग के आला अधिकारियों ने ले रखा है. आज हर धर्म अपने धर्म को दूसरे से बड़ा मानता है और उसे दूसरा धर्म अपने धर्म के लिए खतरा नजर आता है. देश में तुगलकी फरमानों की झड़ी लग चुकी हैं.

veiled-muslim-women_7333हाल ही में भारत में मुसलमानों का प्रतिनिधित्व और समय-समय पर खासकर महिलाओं  के खिलाफ फतवे जारी करने वाली संस्था दारूल उलूम, देवबंद ने अपने नए फ़रमान में कहा है कि मुस्लिम महिलाओं का पुरुषों के साथ काम करना इस्लाम धर्म के खिलाफ है और इसे हराम माना जाता है. ऐसा पहली बार नहीं जब इस संस्थान ने कोई फ़तवा सुनाया हो. हर दफा इस संस्था ने महिलाओं के खिलाफ कुछ न कुछ विवादास्पद फतवे जारी किए हैं जैसे डाई का इस्तेमाल न करना, गैर मर्दों के साथ घूमना हराम, शॉर्ट कपड़े पहनने पर फतवा और यहां तक कि सानिया मिर्जा के स्कर्ट में खेलने से लेकर उसकी शादी तक में फतवे सुनाए गए थे.

तो आइए समझते हैं आखिर फतवे में ऐसा था क्या जो इतना विवाद पैदा हुआ

फतवा इस्लाम धर्म में बडा मायने रखता है. उसे वह अल्लाह का हुक्म मानते हैं. इस्लाम धर्म हमेशा से ही धर्म के प्रति कट्टर रहा है और इस धर्म में महिलाओं की बडी इज्जत की जाती है और उन्हें पर्दे में रखने की वस्तु माना जाता है.

हां, जो फतवा हाल ही में सुनाया गया उसके मुताबिक महिलाओं का पुरूष के साथ नौकरी करना इस्लाम के खिलाफ है. इस्लाम में महिलाओं को घर के अंदर रहने की हिदायत दी गई है लेकिन अगर वे घर के बाहर काम करने जाती हैं और वो भी पुरुषों के साथ तो उन्हें बुर्का पहनकर बाहर निकलने की सलाह दी गई है .

असलियत में बात कुछ और है . शरिया जो कि इस्लाम में बहुत मायने रखता है उसके मुताबिक महिलाओं को मर्दों के साथ काम करते समय अपने कपड़े पहनने का ध्यान रखना चाहिए.

r221682_873036क्या मुस्लिम महिलाएं फतवों के बिना असुरक्षित हैं

जब भी कोई फ़तवा जारी होता है तो जो सवाल सबसे पहले मन में आता है वह है कि क्या मुस्लिम महिलाएं समाज में असुरक्षित हैं या वह अपनी रक्षा खुद नहीं कर सकतीं? और क्या भारत के कानून के अलावा भी उन्हें कुछ अन्य कानूनों को मानना पड़ेगा ? खैर, भारत में दो कानूनों के विषय में हम बाद में बात करेंगे, पहले बात महिलाओं की सुरक्षा के बारे में.

दरअसल बात कुछ और है. इस्लाम जो एक तरफ महिलाओं को पर्दे में रहने का हुक्म देता है वहीं मात्र तीन बार तलाक कह बंधन से मुक्ति का फरमान भी इसी धर्म में है जनाब! इस्लाम हमेशा से पिछड़ी मानसिकता का शिकार रहा है जो महिलाओं को हमेशा पर्दे में देखना चाहता है.

क्या सही है यह

हालांकि यह सही भी है अगर इसे सही मायनों में लिया जाए. इस फतवे का जो मतलब हमने और आपने निकाला वह कई मायनों में गलत था. इस फतवे के मुताबिक सिर्फ यह कहा गया है कि महिलाओं को पुरुषों के साथ काम करते समय अपनी इज्जत और सम्मान का ख्याल रखना चाहिए. यह सही भी है आज कल जिस तरह पश्चिमी मानसिकता बढ रही है उससे काफी हद तक लोग अपने अधिकार और हद भूल जाते हैं.

लेकिन इससे हमारे मौलिक अधिकार प्रभावित होंगे. आखिर सारे अधिकार मर्दों को ही क्यों? मर्दों को सभी अधिकार होंगे और महिलाओं के कुछ नही. मर्द चाहे तो कुछ भी पहने, कहीं भी घूमें,कितनी ही महिलाओं के साथ संबंध बनाएं और महिलाएं सिर्फ पर्दे में रहें, किसी गैर मर्द से बात करें तो पर्दा.

क्या सिर्फ फतवों से ही है भारत के कानून को खतरा

हिंदुस्तान में हैं इसलिए यह नहीं कि मुस्लिमों के बारे में जो चाहा बोल दिया. भारतीय भी कट्टर होते हैं और उसके प्रत्यक्ष नमूने हैं हमारी पंचायतें और उनके आदेश. एक बार को तो फतवों के संदर्भ में हम कह सकते हैं कि कम से कम भारत में उसकी वजह से किसी की हत्या तो नहीं होती बावजूद कि उसका मतलब कुछ भी हो, लेकिन हमारी पंचायतों ने तो हत्या जैसे घृणास्पद कृत्य भी किए हैं. भारत में पंचायतों का गठन और उनके अधिकारों की पैरवी की थी माननीय स्व. राजीव गांधी ने. लेकिन जो काम आज पंचायते कर रही हैं वह शायद राजीव जी ने सपने में भी नहीं सोचा होगा. पंचायतों की सबसे बडी भूल है उनका जाति के प्रति प्रगाढ़ स्नेह.

आए दिन यूपी, राजस्थान हरियाणा तथा अन्य ग्रामीण क्षेत्रों में कुछ दिल दहला देने वाले आदेश देती हैं यह खाप पंचायतें. हाल ही में पंजाब में दो हत्याएं, राजस्थान में दिए गए फैसले इस बात को दर्शाते हैं कि शायद पंचायत कानून है.

खैर, पंचायतों के इस रवैये से तंग आकर सरकार और सुप्रीम कोर्ट ने पंचायतों को डांटा-फटकारा , इसके बाद इनके रुख में थोडी नरमी आई. सरकार ने अब इनके अधिकार भी नियंत्रित करने का मन बनाया है. अगर फतवों के मुकाबले देखें तो खाप पंचायत और भी अधिक कातिलाना तथा नैतिकता के ठेकेदार हैं.

यह कैसा अन्याय

लेकिन एक बात गौर करने की है जहां पंचायतो का मामला था वहां सभी बड़े नेताओं ने प्रतिक्रिया की चाहे वह युवा नेता नवीन जिंदल हो या देश के गृह मंत्री चिंदबरम. लेकिन मुसलमानों के फतवों के खिलाफ सिर्फ आमजन या गिने-चुने नाम ही सामने क्यों है?

जवाब है वोट बैंक. वोट बैंक यानी मुस्लिम वोट बैंक जिस की बदौलत कई सरकारें और पार्टियां अपनी चांदी करने में लगी हैं. मुस्लिमों के मामले में कोई पार्टी या नेता इसलिए नहीं बोलना चाहता क्योंकि सब जानते हैं कि इनके मामलों, मसलों और समर्थन से वोट बैंक इक्कठा होता है. फिर चाहे गुजरात दंगे का मामला हो या जामिया में सामूहिक हत्या हर जगह मुस्लिमों को साथ लेने से कई बार सरकारें बदली हैं. अगर निकट भविष्य में भी मुस्लिम समाज के वोट का भय सताता रहा तो जल्द ही भारत में तालिबान का अस्तित्व में आना तय है.

आखिर एक देश में दो कानून कैसे और क्या है धर्म निरपेक्षता की व्याख्या

भारत के धर्म निरपेक्ष देश होने पर समय-समय पर सवाल उठे हैं. आजादी के समय से लेकर गुजरात और अयोध्या से लेकर इंदिरा गांधी हत्या प्रकरण में सब जगह वही सवाल. आखिर किस मुंह से हम अपने आप को धर्मनिरपेक्ष कहते हैं.

अब वक्त आ गया है जब न्यायालय को सार्वजनिक तौर पर धर्मनिरपेक्षता की व्याख्या करनी चाहिए. आज जरुरत इस बात की है कि संविधान में कुछ कड़े नियम लागू करने चाहिए जिससे इन खाप-पंचायतो और मुस्लिम संथानों पर लगाम लग सके.

एक ही देश में जब न्यायालय और सरकार पंचायतों को खरी-खोटी सुना रही हैं वहीं वह दारूल उलूम जैसी संस्थानों को कुछ क्यों नहीं बोलतीं. क्या इस देश का कानून सबके लिए अलग-अलग है.

एक आम राय

आज देश आगे बढ़ रहा है और उसे जरुरत है एक सशक्त कानून और संविधान की जिससे मालूम हो कि क्या गलत है और क्या सही? कौन अपना है और कौन पराया? अगर कोई नियम-कानून एक धर्म या समुदाय पर लागू हो तो बाकियों के लिए भी वह मान्य हो.

भारत के कानून को सर्वोपरि मानना चाहिए और अगर जरुरत पड़े तो खाप पंचायतों की तरह मुस्लिम संस्थानों को भी बख्सा नहीं जाना चाहिए. सिर्फ अल्पसंख्यक के नाम पर मुसलमानों को विशेषाधिकार नहीं मिलने चाहिए.

जहां तक बात है महिलाओं की तो उन्हें पूरी स्वतंत्रता होनी चाहिए. किसी फतवे की वजह से देश की अर्थव्यवस्था को ठेस नहीं पहुंचनी चाहिए. महिलाओं के हक को सिर्फ कागजों में नहीं असल जिंदगी में भी जगह मिलनी चाहिए, तभी भारत खुद को धर्मनिरपेक्ष और स्वतंत्र मान सकता हैं.

मंगलवार, 13 मार्च 2012

गन्दी, राजनीति या हम?


राजनीति……..कहीं वोट की तो कही नोट की, कहीं जाति की तो कहीं धर्म की, कहीं क्षेत्र की तो कहीं देश की, कहीं गाँव की तो कहीं शहर की, कहीं अपनो की तो कहीं परायों की……पर कहीं न कहीं राजनीति तो हो रही है. कहने का तात्पर्य, राजनीति शब्द का क्षेत्र जितना व्यापक है उतना ही संकुचित भी. तभी तो एक बाप अपने बेटे से निःसंकोच कहता है, ” बेटा, अपने बाप से ही राजनीति कर रहे हो?” प्रदेश हो या देश , गाँव हो या शहर, घर हो या कार्यालय, चाय की दुकान हो या पान की, बस स्टैंड हो या रेलवे प्लेटफार्म, प्रिंट मीडिया हो या इलेक्ट्रोनिक मीडिया, खबरीलाल हो या वेब की दुनिया……इस समय चारों तरफ एक ही शब्द का जिक्र है…… राजनीति. यहाँ सुनने, देखने, और महसूस करने के साथ-साथ उठते-बैठते, जागते-सोते, यहाँ तक कि खाने और पीने में भी राजनीति. ऊपर से इस समय भारत के कुछ राज्यों में चल रहीं विधान सभा चुनाव की राजनीति…..भाई ये तो हद ही हो गयी. कोई राजनीति तो कोई राजनेताओं पर कीचड़ उछालने से बाज नहीं आता..आखिर क्यों न हो भाई…हम सभी दूध के धुले जो है.परन्तु हमारी सामाजिक व्यवस्था में जातिवाद, क्षेत्रवाद, भाषावाद, धर्मवाद जैसा जहर लहूँ बनकर दौड़ रहा है. उस पर किसी को नज़र नहीं जाती. परन्तु कोई इसी लहूँ से ब्लड बैंक खड़ा कर रहा है तो फिर तकलीफ क्यों? जबतक इन सामाजिक बुराइयों से हम अपनी झोपड़ियाँ सजाते रहें तब तक कोई सुगबुगाहट नहीं हुई. पर कोई इससे महल खड़ा कर रहा है तो फिर तकलीफ क्यों? जब हम सांप की प्रकृति पाले हुए हैं तो फिर अज़गर से घृणा क्यों? गुस्ताखी के लिए माफ़ी चाहूँगा. इसके लिए हमारे कुछ लेखक बन्धु भी कम जिम्मेदार नहीं है, उनके द्वारा दिया गया अलगाववादी व्यक्तव्य, इन सामाजिक बुराइयों के लिए रक्त में आक्सीजन का काम कर रहा है. जो हमारी सामाजिक व्यवस्था में इन बुराइयों के सुचारू रूप से परिसंचरण के लिए उतरदायी है. और हम आम जन की तो बात ही निराली है……जाति, क्षेत्र, भाषा इत्यादि के नाम पर अपना स्वार्थ सिद्ध करते आते है. परन्तु यहीं जब हमारे स्वार्थ के आगे दीवार बनकर खड़ा हो जाता है तो हमें घुटन होने लगती है. फिर क्या कभी किसी व्यक्ति को तो कभी व्यवस्था को दोषी ठहराने  से बाज नहीं आते.
जाति, क्षेत्र, भाषा इत्यादि, जब तक सामाजिक व्यवस्था का अंग था तब तक सब ठीक था. परन्तु अब यह राजनीतिक व्यवस्था का अंग होता जा रहा है तो भाई , यह उठक-बैठक क्यों? राजनीति न ही कोई आकाश से उतरी हुई कोई व्यवस्था है और न ही राजनेता आकाश से उतरे कोई राजदूत. यह राजनीति भी अपनी है और राजनेता भी हममे से कोई एक तो फिर यह दोषारोपण क्यों? मुझे एक बात समझ में नहीं आती कि जब हम धतूरे का पेड़ लगा रहें है तो गुलाब के फूल की उम्मीद क्यों? यदि हम सचमुच भारतीय राजनीति को लेकर गंभीर है तो हमें अपनी यह गन्दी मानसिकता को बदलना होगा. मुझे किसी पर कीचड़ उछालने की आदत नहीं. परन्तु एक बात आप लीगों से जरुर कहना चाहूँगा, “एक माली को फूलों और पत्तों को कोसने से बेहतर होगा कि जड़ों को सहीं ढंग से सींचना सीख ले.” गन्दी राजनीति का अलाप लगाना बंद करियें तथा आँख, कान और मुंह के साथ-साथ अपनी कलम को भी भी बंद करिए. चैन से चादर तानकर अपने घरों में सोइयें और हमें भी सोने दीजिये. वैसे मैं एक लम्बी नींद लेने जा रहा हूँ और यह मेरी नींद तब टूटेगी जब मेरे दोस्त प्रवीन की इस मंच पर वापसी होगी. सोते-सोते एक गाना आप लोगों को सुझाता हूँ उसे तबतक सुनते रहिये जब तक की हम दो दोस्तों की वापसी नहीं हो जाती……….मेरा तो जो भी कदम है, वो तेरी राह में है; कि तू कहीं भी रहें , मेरी निगाह में है………

सीबीआई-सीबीआई खेलें


आओ, सीबीआई-सीबीआई खेलें

भई, माफ करेंगे। स्टार्ट लेने में थोड़ी दिक्कत है। दरअसल, मैं बहुत कुछ नहीं समझ पा रहा हूं।
आज अचानक बड़ी शांति दिखी। सड़क से लेकर दफ्तर तक। बयान छपवाने खातिर कोई फोन भी नहीं आया।
मैं, विधायक राजकिशोर केसरी हत्याकांड की बात कर रहा हूं। इसकी सीबीआई जांच की घोषणा हो चुकी है। तो क्या पिछले कई दिनों का बवाल यहीं तक सीमित था? एक पक्ष ने सीबीआई जांच की मांग उठायी और दूसरे ने उसे ओके कर दिया-क्या, यह पूरा प्रसंग इससे आगे बढऩे की दरकार नहीं रखता है? अब सबकुछ सीबीआई पर निर्भर है-जांच कबूलने से लेकर उसे ईमानदार मुकाम देने तक। जन-अपेक्षाएं यहीं तक सीमित हैं? राजनीतिक दलों की तुष्टि इसी बात पर निर्भर करेगी कि कुछ की छीछालेदर हो या कुछ पाक-साफ रह जायें? क्या ऐसी किसी उम्मीद की गुंजाइश बनती है, जो आगे के दिनों में ऐसी वारदात न होने दे? ढेर सारे स्वाभाविक सवाल हैं।
खैर, मैं दूसरी बात कर रहा हूं। और यह इस सच्चाई की गवाह है कि राजनीति के विद्रूप होते रंगों में सीबीआई क्या, शायद ही कोई कुछ कर सकता है। एक नमूना-अरे, जो देश, जो राज चौंतीस वर्ष में भी अपने खास किरदार के हत्यारों को अंतिम सजा न दिला सके, वहां आम आदमी वाकई कीड़ा-मकोड़ा ही रहेगा। बात ललित नारायण मिश्र की हो रही है। हाल में उनकी पुण्यतिथि गुजरी है। इस मौके पर मुझे महान भारत की महान जनता की इस असली बिसात का ज्ञान हुआ। उनके छोटे भाई डा.जगन्नाथ मिश्रा (पूर्व मुख्यमंत्री) ऐसे मौके पर बोलते रहे हैं-शरीर में अब भी कुछ स्प्लिंटर (छर्रा) हैं। टीस मारते हैं। सिहर जाता हूं। मेरी राय में यह देश की तड़प है। दर्द है। सिहरन है। लंबी मियाद है। क्यों? देखिये-जानिये। ललित नारायण मिश्रा, दो जनवरी 1975 को समस्तीपुर के एक समारोह में मारे गये। रेल मंत्री थे। श्रीमती इंदिरा गांधी के बाद सी हैसियत। बम विस्फोट में डा.जगन्नाथ मिश्रा भी घायल हुए। देश की सर्वोच्च जांच एजेंसी सीबीआई हत्याकांड के रहस्य से परदा नहीं हटा सकी है। एजेंसी की जांच के दो निष्कर्ष हैं। दोनों, एक-दूसरे को काटते हैं। एक हत्याकांड के दो-दो दावेदार? क्या निष्कर्ष निकलेगा? अब कोई इस बारे में चर्चा भी करता है क्या?
श्वेतनिशा त्रिवेदी उर्फ बाबी, उसकी हत्या कितनों को याद है? तब लगा था कि राजनीति में रास-रंग की गुंजाइश हमेशा के लिए मार दी जायेगी। क्या हुआ? राजनीति के रंग ऐसे मसलों की गुंजाइश भी बनाते हैं और सीबीआई को हथियार भी।
बिहार ने सीबीआई को खूब जिया है। चारा घोटाला के दौरान इसे आम जन भी जान गये थे। फिर अलकतरा घोटाला, एमएसडी (दवा) घोटाला, मस्टर रौल घोटाला, पोषाहार घोटाला, शिक्षक नियुक्ति घोटाला …, देश की यह सर्वोच्च जांच एजेंसी बिहार में बुरी फंस गयी। एक समय तो ऐसा आया कि उसे समझ में ही नहीं आ रहा था कि वह किस मामले को पहले जांचे और किसे छोड़े? उसके अधिकारी मानसिक तनाव से संबंधित बीमारियों के शिकार हुए।
सीबीआई, आरोप-प्रत्यारोप की बिहारी राजनीति का केंद्रबिंदु रही है। चारा घोटाला के दौरान की सरकार तो इस एजेंसी से इतना गुस्सा में थी कि बदला लेने की नीयत से निहायत मामूली मसलों की जांच भी उसे सौंपती रही। एक उदाहरण-एक कार चालक ने लापरवाही से हवलदार हसनैन खां को ठोकर मार दी। अगमकुंआ में प्राथमिकी हुई। इसे सीबीआई को जांचना पड़ा। नक्सलियों ने 16 जून 1997 को उत्तर कोयल डैम (पलामू) के अधीक्षण अभियंता बीएन मिश्रा का अपहरण करके मार डाला। सीबीआई की वांटेड सूची बताती है कि करीब नौ साल बाद भी श्री मिश्रा के हत्यारों में से कोई भी नहीं पकड़ा जा सका और शायद ही कभी पकड़ा जायेगा।
बहुचर्चित शिल्पी-गौतम कांड की फाइल बंद हो गई। परिस्थितिजन्य साक्ष्य के मुताबिक नतीजा निकला? विधायक बृजबिहारी प्रसाद तो सीबीआई की कस्टडी में मारे गये। विधायक अजित सरकार हत्याकांड में जांच, मुकाम तक पहुंची लेकिन बूटन सिंह व और गुरुदास चटर्जी हत्याकांड …! इंजीनियर सत्येंद्र दूबे और योगेंद्र पांडेय कांड के जांच नतीजे कितनों को संतुष्ट कर पाये हैं? ऐसे नमूनों की कमी है? यह सब शायद औपचारिक बनी राजनीति के रंग ही हैं, जिसका मकसद …!

संसाधनों के प्रबंधन की जरूरत



जनसंख्या विस्फोट अब अंतराष्ट्रीय समस्या बन रहा है। वास्तव में अब कुपोषित बच्चों की संख्या भी एक अरब को पार कर गई है। बढ़ती आबादी को लेकर खाद्यान्न संकट की जो भयावहता दिखाई जा रही है वह भी गलत है। एक व्यक्ति को 2400 कैलोरी खाद्यान्न चाहिए जबकि प्रति व्यक्ति उपलब्ध कैलोरी 4600 है। समस्या खाद्यान्न की नहीं उससे ईंधन बनाए जाने, उसके सड़ने और असमान वितरण की है। यदि इन बदतर हालातों को काबू कर लिया जाए तो विस्फोटक आबादी के उचित प्रबंधन की जरूरत 2070 के आसपास तक होगी। यह पहला अवसर है जब 13 साल के बेहद सीमित कालखंड में दुनिया की आबादी एक अरब बढ़ गई। भविष्यवक्ताओं का अनुमान है कि आबादी को 8 अरब होने में अब 15 साल लगेंगे और करीब 60 साल का लंबा फासला तय करके यह आबादी 9 अरब के शिखर पर होगी। वाशिंगटन भूनीति संस्थान के मुताबिक इतनी आबादी का पेट भरने के लिए 16 सौ हजार वर्ग किमी अतिरिक्त कृषि भूमि की जरूरत होगी, लेकिन कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि वर्तमान उत्पादन 11 अरब आबादी के लिए पर्याप्त है। इसके बाद आबादी घटने का सिलसिला शुरू हो जाएगा और 21वीं एवं 22वीं सदी की संधि बेला के करीब आबादी घटकर लगभग साढ़े तीन अरब रह जाएगी। लिहाजा अगले 60-70 सालों के लिए आबादी को एक ऐसे कुशल प्रबंधन की जरूरत है जिसके चलते खाद्यान्न व पेयजल की समुचित उपलब्धता तो हो ही स्वास्थ्य व अन्य बुनियादी सुविधाओं में भी वितरण की समानता हो। फिलहाल दुनिया के दस सर्वाधिक आबादी वाले देशों में केवल तीन विकसित देश अमेरिका, रूस और जापान शामिल हैं।

दुनिया को यदि विकसित और विकासशील देशों में विभाजित करें तो विकसित देशों में 32 फीसदी आबादी है और विकासशील देशों में 68 फीसदी। यह औसत लगातार घट रहा है। संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष के मुताबिक 2050 में विकासशील देशों में 91 फीसदी आबादी रह रही होगी जबकि विकसित देशों में महज 9 फीसदी। यह चुनौती खाद्यान्न, पेयजल, पेट्रोलियम पदार्थो की उपलब्धता का संकट तो बढ़ाएगी ही बेरोजगारी, आर्थिक मंदी और पर्यावरण जैसे संदर्भो में भी इसका आकलन करना होगा। हालांकि परिवार नियोजन जैसे उपायों के कारण आज विश्व की जनसंख्या महज एक प्रतिशत की दर से बढ़ रही है जो 1960 के दशक में दो प्रतिशत थी। 1970 में प्रति महिला प्रजनन दर 4.45 थी जो वर्तमान में 2.45 रह गई है और 2.1 का लक्ष्य है। इससे आबादी के स्थिरीकरण का सिलसिला शुरू हो जाएगा। इसके अलावा उपभोग की शैली को बढ़ावा मिलने तथा उद्योगीकरण व शहरीकरण के कारण करीब 70 लाख हेक्टेयर वन प्रति वर्ष समाप्त हो रहे हैं। इससे ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन बढ़ रहा है। इन गैसों को बढ़ाने में अमेरिका का योगदान सर्वाधिक है। हालांकि वह इसका अभिशाप भी भोगने को विवश है। वहां हर साल 50 हजार लोग केवल वायु प्रदूषण के चलते मौत के आगोश में समा रहे हैं।

इधर ऊर्जा संकट भी चरम पर है। ऊर्जा की 40 फीसदी जरूरतें पेट्रोलियम पदाथरें से पूरी होती हैं, जिसकी आपूर्ति लगातार घट रही है। इस कारण दुनिया अंधेरे की ओर बढ़ती दिखाई दे रही है। अमेरिका ने तेल पर कब्जे के लिए ही इराक पर हमला बोला थ। लीबिया में नाटों देशों का दखल इसी लक्ष्य के लिए था। ऊर्जा के लिए राष्ट्रों के अस्तित्व से खेलने की बजाय कारों और वातानुकूलन में जो ऊर्जा खपाई जा रही है उस पर यदि अंकुश लगे तो रसोई और रोशनी के लिए ऊर्जा संकट से निजात मिल सकती है। बहरहाल अमीरी और गरीबी की लगातार बढ़ती खाई से जो सामाजिक असमानताएं उपजी हैं उन्हें पाटने की जरूरत है। धरती 11 अरब लोगों की भूख के बराबर खाद्यान्न उपजा रही है फिर भी कुपोषण और भुखमरी की समस्या है। यहां छत्तीसगढ़ में बैगा आदिवासी समूह में प्रचलित उस लोक कथा का उल्लेख करना जरूरी है जिसमें दुनिया की समूची आबादी की चिंता परिलक्षित है। बैगा आदिवासी जब पैदा हुआ तो उसे ईश्वर ने 9 गज का कपड़ा उपयोग के लिए दिया। बैगा ने ईश्वर से कहा मेरे लिए 6 गज कपड़ा ही पर्याप्त है। बाकी किसी अन्य जरूरतमंद को दे दीजिए इस तरह उसने तीन गज कपड़ा फाड़कर ईश्वर को लौटा दिया। साफ है कि बढ़ती आबादी को संसाधनों के समान बंटवारे के प्रबंध कौशल से जोड़ने की जरूरत है न कि उस पर बेवजह की चिंता करने की।

आखिर कहां जाते हैं लापता बच्चे



दिल्ली में हर साल गायब हो रहे बच्चों की तादाद लगातार बढ़ रही है, लेकिन पुलिस किंकर्तव्यविमूढ़ की स्थिति में है। इस मामले में पुलिस की नाकामी को देखते हुए दिल्ली हाईकोर्ट ने दिल्ली के पुलिस आयुक्त को निर्देश दिया गया है कि वह लापता बच्चों की तलाश के लिए विशेष टॉस्क फोर्स गठित करें, जो इस बात का पता लगाए कि कहीं कोई गैंग बच्चों की तस्करी में तो शामिल नहीं है। दरअसल, दो से चार साल की उम्र के बच्चों को तस्करी के लिए उठाया जाता है। दिल्ली के आसपास बच्चों की तस्करी और बाल मजदूरी कराने वाले गैंग सक्रिय हैं। अगर छह माह तक गायब कोई बच्चा नहीं मिलता है तो उसके मामले की जांच एंटी किडनैपिंग सेल को सौंप दी जाए। अदालत ने पुलिस आयुक्त को यह भी निर्देश दिया है कि गायब होने वाले बच्चों के बारे में पुलिस स्टेशन व पीसीआर को सूचना देने की प्रक्रिया के मानक तय किए जाएं। साथ ही बच्चों की गुमशुदगी के मामलों की जांच के लिए कुछ और पुलिस अधिकारी नियुक्त किए जाएं। इतना ही नहीं पुलिसकर्मियों को निर्देश दिया जाए कि ऐसे मामलों में जल्द से जांच पूरी की जाए। पुलिस आयुक्त कुछ अधिकारियों की एक टीम गठित करें जो जमीनी स्तर पर काम करने वाले पुलिसकर्मियों को प्रशिक्षण देंगे कि इस तरह के मामलों में किस तरह संवेदनशीलता के साथ काम किया जाए।

अदालत ने पुलिस को यह भी निर्देश दिया है कि बच्चों को ढूंढ़ने के बाद उन्हें डीएलएसए की सदस्य सचिव या उनके द्वारा नियुक्त सदस्य के समक्ष पेश किया जाए ताकि अदालत को बच्चों के गायब होने के कारणों की पूरी जानकारी मिल सके। अदालत ने दिल्ली सरकार के समाज कल्याण विभाग व डीएलएसए को कहा है कि वह काउंसलर की एक कमेटी भी गठित करें जिसका नोडल अधिकारी ज्वाइंट कमिश्नर ऑफ पुलिस को बनाया जाए। यह कमेटी पुलिस द्वारा तलाशे गए बच्चों और उनके माता-पिता की काउंसलिंग करेगी और बच्चे के गायब होने के कारणों का पता लगाएगी। इसके अलावा अदालत ने घर से गायब हुए बच्चों का स्कूल द्वारा नाम काटने की बात को ध्यान में रखते हुए शिक्षा निदेशालय के सचिव को निर्देश दिया है कि वह इस संबंध में सभी स्कूलों को सर्कुलर जारी करें कि इस तरह बच्चों के नाम न काटे जाएं ताकि बच्चे अपनी पढ़ाई जारी रख सकें। बच्चों के गायब होने के संबंध में अलग-अलग आंकड़े मीडिया में छपने के बाद अदालत ने इस मामले में विशेष तौर पर संज्ञान लिया था। असलियत यह है कि लापता बच्चों की बढ़ती तादाद हमारे देश की ही नहीं दुनिया की समस्या बन चुकी है। देश में बाल वेश्यावृत्ति का ग्राफ लगातार बढ़ रहा है और वह नित नए आयाम में हमारे सामने आ रहा है।

दुनिया में 12 लाख बच्चों की हर वर्ष खरीद-फरोख्त होती है जिनमें एक बड़ी संख्या भारतीय बच्चों की होती है। पूरे देश से सालाना तकरीब 44-55 हजार बच्चे गायब होते हैं, लेकिन विडंबना यह है कि गायब होने वाले बच्चों में से 11 हजार के करीब बच्चे कहां चले जाते हैं पता ही नहीं चलता। जाहिर सी बात है ये बच्चे आपराधिक गिरोहों के हत्थे चढ़ जाते हैं जहां यातना, यंत्रणा, शोषण, दु‌र्व्यवहार और उत्पीड़न उनकी नियति बन जाती है और फिर वे उन्हीं के गुलाम बनकर रह जाते हैं। ऐसे में उनके मौलिक अधिकारों की बात करना ही बेमानी है। एक बार कोई बच्चा यदि आपराधिक गिरोह के हत्थे चढ़ गया तो फिर उसके चंगुल से बाहर निकल पाना उसके लिए आसान नहीं होता। आज कम उम्र यानी 14 वर्ष से कम उम्र की बच्चियों की मांग बाजार में सबसे ज्यादा है। यही वजह रही है कि बीते सालों में 12 से लेकर 16-17 वर्ष उम्र की लापता लड़कियों की तादाद बढ़ रही है। वहीं 12 साल से कम उम्र के लड़कों की तादाद भी ज्यादा है। इसका सबसे बड़ा कारण बालवेश्यावृत्ति है जिसे रोक पाने में सरकार नाकाम रही है। देश की राजधानी दिल्ली लापता होने वाले बच्चों के मामले में शीर्ष पर है। राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र की तो स्थिति इस मामले में और भी खौफनाक है। राजधानी दिल्ली और इससे सटे जिलों गाजियाबाद, गौतम बुद्ध नगर खासकर नोएडा की हालत और भी बदतर है। इन इलाकों में बच्चे और भी असुरक्षित हैं। इसमें सबसे बड़ा कारण पुलिस की उदासीनता, गरीबी और जागरूकता का अभाव है।

असलियत यह है कि कोई ही दिन ऐसा होता हो जबकि कोई बच्चा लापता न होता हो या फिर उसे अगवा न किया जाता हो। पुलिस भले ही दावा कुछ भी करे लेकिन हकीकत यही है कि वह इसे रोक पाने में पूरी तरह नाकाम रही है। दिल्ली से औसतन हर दिन 16 बच्चे गायब होते हैं यानी हर माह करीब पांच सौ और साल में करीब छह हजार बच्चे गायब होते हैं। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के मुताबिक दिल्ली बच्चों के गायब होने के मामले में पहले स्थान पर है। मिसिंग पर्सन्स स्क्वॉड के आंकड़ों पर गौर करें तो पिछले तीन साल में दिल्ली से लगभग 18 हजार से ज्यादा बच्चे लापता हुए हैं। ज्यादातर मामलों की जांच में बच्चों को अगवा करने वाले उनके परिचित होते हैं। आंकड़े बताते हैं कि करीब पचास फीसदी मामलों में परिचित का हाथ होता है। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की मानें तो हर साल दिल्ली से तकरीबन सात हजार बच्चे गायब हो जाते हैं। इस सच्चाई को नकारा नहीं जा सकता कि पुलिस के पास पहुंची लापता बच्चों की सूचनाओं में से कुल मिलाकर मुश्किल से 10-12 फीसदी मामलों की ही रिपोर्ट दर्ज की जाती है। इस मामले में देश की पहली महिला पुलिस अधिकारी रहीं किरण बेदी का मानना है कि-पुलिस के इस रवैये को लेकर लोग इस कदर हताश हो चुके हैं कि बच्चों की गुमशुदगी के मामले अब पुलिस से ज्यादा चाइल्ड हेल्पलाइन के पास दर्ज कराए जाते हैं। बचपन बचाओ आंदोलन के संस्थापक कैलाश सत्यार्थी का कहना है कि इनके गायब होने के पीछे आपराधिक गिरोह का हाथ होता है। हालांकि अपनी साख बचाने के लिए पुलिस द्वारा सामाजिक या आर्थिक कारणों की आड़ ली जाती है। पुलिस इस मामले में कोई भी जिम्मेवारी अपने ऊपर नहीं लेना चाहती। इसमें दो राय नहीं कि इस मामले में सामाजिक-आर्थिक कारणों को भी नकारा नहीं जा सकता, लेकिन यह भी एक कड़वा सच है कि अधिकांश बच्चे आपराधिक गिरोहों द्वारा उठाए जाते हैं, जिन्हें ढाबे, भीख मांगने, जेब तराशने के काम में लगा दिया जाता है अथवा बाल वेश्यावृत्ति के लिए बेच दिया जाता है। दुश्मनी अथवा फिरौती की खातिर अपहृत बच्चों की तादाद कम ही होती है। पिछले कुछ दिनों में ऐसे मामले भी उजागर हुए है जिनमें नौकर-नौकरानियों, पूर्व कर्मचारियों या परिचित ज्यादा शामिल रहे हैं। लापता बच्चों के मामलों पर नजर रखने के लिए करीब 32 राज्यों ने केंद्र के साथ एक करार किया है जिसके तहत गुमशुदा बच्चों की जानकारी आदान-प्रदान की जाएगी।

मौत बांटते सरकारी अस्पताल



हमारे देश में सरकारी अस्पतालों की बदहाल स्थिति किसी से छिपी नहीं है। दूर-दराज के ग्रामीण इलाकों की बात अगर छोड़ भी दें तो शहरों में स्थित सरकारी अस्पतालों में भी बुनियादी सुविधाएं मयस्सर नहीं हैं। कहीं पर बुनियादी सुविधाएं यदि हैं भी तो जरूरी स्टॉफ की तंगी और उनकी लापरवाही के सैकड़ों किस्से सुने जा सकते हैं। इसी का नतीजा है कि आए दिन देश के प्रभावित इलाकों से इस तरह की खबरें निकलकर आती रहती हैं कि फलां-फलां अस्पताल में समय पर चिकित्सा सुविधा न मिलने या डॉक्टरों की लापरवाही से किसी मरीज की मौत हो गई। डॉक्टरों की लापरवाही और मरीजों के इलाज में कोताही बरतने के ऐसे ही कुछ शर्मनाक मामले हाल के दिनों में पश्चिम बंगाल से निकलकर सामने आए हैं। सूबे की राजधानी कोलकाता के बीसी राय शिशु अस्पताल और बर्दवान मेडिकल कॉलेज व उसके अस्पताल के अलावा मालदा जिले के अस्पताल में पिछले दिनों कुछ दिन के अंतराल में पचास से ज्यादा बच्चों की मौत हो गई। एक साथ इतने सारे बच्चों की मौत सचमुच हैरान करने वाली है।

भर्ती होते ही बच्चों का मौत के मुंह में चले जाना उनकी वास्तविक स्थिति से कहीं ज्यादा अस्पताल के हालात को बयां करता है। जब राजधानी के सरकारी अस्पताल बच्चों के मामूली रोगों का इलाज करने में भी अक्षम हैं तो राज्य के बाकी हिस्सों में क्या हालात होंगे, इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। जिन बच्चों की जान चली गई उन सबके रिश्तेदारों ने डॉक्टरों पर न सिर्फ लापरवाही बरतने, बल्कि अस्पताल में अपने बच्चों के इलाज की गुहार लगाने पर बुरा बर्ताव करने के आरोप लगाए। डॉक्टरों की संवेदनहीनता के इन गंभीर आरोपों के बाद भी अस्पताल प्रबंधन अपनी किसी तरह की जिम्मेदारी स्वीकार करने की बजाय बेशर्मी से यह सफाई देने में लगा हुआ है कि यह बिल्कुल सामान्य बात है। अस्पताल में लाए गए ज्यादातर बच्चे पहले से ही नाजुक स्थिति में थे। कई बच्चों का वजन बहुत कम था तो कुछ को सेप्टेसीमिया जैसी बीमारी थी यानी अपनी गलतियों और लापरवाही को न मानकर उसने उल्टे बच्चों के अभिभावकों को ही दोषी ठहरा दिया। खैर, मामले ने जब ज्यादा तूल पकड़ लिया, तब सरकार ने दो सदस्यों की एक विशेषज्ञ कमेटी इस पूरे मामले की जांच के लिए बर्दवान मेडिकल कॉलेज भेजी। कमेटी मामले की गंभीरता से जांच करती, इसके उलट उसने अपनी जांच महज 25 मिनट में पूरी कर अस्पताल को क्लीन चिट दे दी। हैरानी की बात यह है कि कमेटी की इस राय से राज्य सरकार और केंद्रीय स्वास्थ मंत्रालय ने भी अपनी स्वीकृति जताई।

कमोबेश ऐसा ही वाकया जून के आखिर में हुई मौतों के बाद खुद पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का था। उस वक्त भी बच्चों के परिजनों ने डॉक्टरों पर इलाज में कोताही बरतने के इल्जाम लगाए थे और इस बार भी यही शिकायत है। गौरतलब है कि इस साल जून में कोलकाता में उस वक्त हड़कंप मच गया, जब इन्हीं अस्पतालों में एक हफ्ते के भीतर 27 बच्चों को सही इलाज न मिल पाने की वजह से मौत के मुंह में जाना पड़ा। मीडिया में जब यह खबर आई तो अस्पताल प्रबंधन ने पहले तो इन खबरों को यह कहकर खारिज कर दिया कि मीडिया इस मामले को बेवजह तूल दे रहा है, लेकिन जब मामला ज्यादा बिगड़ गया तब अस्पताल प्रबंधन ने अपनी सफाई में वही दलील दी, जो वह आज दे रहा है। यानी अस्पताल लाए गए बच्चे नाजुक स्थिति में थे। यदि अस्पताल प्रबंधन की यह दलील एक बार मान भी ली जाए तो अब सवाल यह उठता है कि अस्पताल में लाने के बाद इन बच्चों के इलाज की जिम्मेदारी किसकी थी? इलाज सुनिश्चित करने की बजाय अपनी जिम्मेदारियों से मुंह चुराना आखिर क्या दर्शाता है। फिर पश्चिम बंगाल में इस तरह की यह कोई पहली-दूसरी घटना नहीं है, बल्कि वहां पहले भी इसी तरह के लापरवाही के मामले उजागर होते रहे हैं। यह महज संयोग नहीं है कि इसी बीसी राय शिशु अस्पताल में अगस्त-सितंबर 2002 में 24 घंटे के भीतर 14 बच्चों की मौत हुई तो साल 2006 के नवंबर में तीन दिन के अंदर 22 बच्चे मौत के मुंह में समा गए। कमोबेश सभी मामलों में मुख्य वजह डॉक्टरों की लापरवाही और संवेदनहीनता थी। यह बात सही है कि देश के लगभग सभी राज्यों में सार्वजनिक चिकित्सातंत्र लचर हालत में है और पश्चिम बंगाल भी इससे अछूता नहीं।

शिशु मृत्यु दर के मामले में महाराष्ट्र, केरल और तमिलनाडु के बाद पश्चिम बंगाल का स्थान चौथा है। सूबे के जिन अस्पतालों में बच्चों की मौत हुई वे गंभीर बदइंतजामी के शिकार हैं। इन अस्पतालों में चिकित्सा सहूलियतें और बुनियादी ढांचा न के बराबर है। मरीजों की तादाद में डॉक्टर और नर्सो की संख्या भी बेहद कम है। ऐसे में खुद-ब-खुद अंदाजा लगाया जा सकता है कि इमरजेंसी की हालत में यहां किस तरह से इलाज किया जाता होगा। अफसोसजनक बात यह है कि इन अस्पतालों में बार-बार बच्चों की मौत के बावजूद सरकार जरा भी नहीं चेती है। अस्पतालों के लचर तंत्र को दुरु स्त करने के लिए उसने अपनी ओर से कोई गंभीर कोशिश नहीं की है। यदि उसने कोई गंभीर कोशिश की होती तो इन अस्पतालों में मासूम बच्चों के मौत के मामले बार-बार सामने निकलकर नहीं आते। कहने को तो मुख्यमंत्री ममता बनर्जी खुद को गरीबों का रहनुमा बताती हैं, लेकिन उन्हीं की सरकार में राज्य के लोग बुनियादी सुविधाओं से भी जूझ रहे हैं। फिलहाल तो राज्य की कमान के साथ-साथ स्वास्थ्य मंत्रालय भी उनके पास है। लिहाजा, राज्य में सार्वजनिक स्वास्थ्य की बदहाल स्थिति का ठीकरा वह किसी और के सिर नहीं फोड़ सकतीं। यही नहीं, केंद्र में केंद्रीय स्वास्थ्य और परिवार कल्याण राज्यमंत्री का जिम्मा भी उन्हीं की पार्टी के सुदीप बंदोपाध्याय के पास है। फिर क्या वजह है कि राजधानी के प्रमुख अस्पतालों में भी हालात सुधर नहीं पा रहे हैं। दरअसल, जब तक राज्य सरकार की पहली प्राथमिकता सार्वजनिक चिकित्सा तंत्र को पटरी पर लाने की नहीं होगी, तब तक वहां हालात नहीं सुधरेंगे।

अस्पतालों में बुनियादी ढांचे को दुरु स्त करने के अलावा सरकार को डॉक्टर और नर्सो की संख्या भी बढ़ानी होगी। डॉक्टर, नर्स और आवश्यक स्टॉफ अस्पताल में हर समय मौजूद रहें और उनकी जवाबदेही सुनिश्चित हो इसके लिए प्रयास करने की आवश्यकता है। पश्चिम बंगाल सरकार को इन सबके बारे में सोचना चाहिए और कोई सर्वस्वीकृत समाधान निकालने की दिशा में कोशिश करनी चाहिए। सरकारी अस्पतालों में ड्यूटी में संजीदगी का अभाव भी आज एक बड़ी समस्या है। अगर डॉक्टर-नर्स अपनी ड्यूटी में संजीदा होते तो राजधानी कोलकाता के इन बड़े अस्पतालों में नवजात शिशुओं के बार-बार मरने की खबरों पर इस तरह हो-हल्ला नहीं मचता।

बस नाम के लिए स्वास्थ्य सेवाएं


कभी बिहार, कभी पश्चिम बंगाल से बच्चों की मौत की खबरें आ रही हैं। कोलकाता समेत पश्चिम बंगाल के बर्दवान, बीरभूम जिले में समुचित इलाज न मिल पाने से पिछले एक महीने में सौ से ज्यादा बच्चों की मौत हो गई। जांच में पता चला कि यहां के जिला अस्पताल में गंभीर अवस्था में लाए गए शिशुओं के इलाज के लिए अत्याधुनिक मशीनें, तकनीकी संसाधन नहीं थे। विशेषज्ञ डॉक्टर भी नहीं थे। ताज्जुब की बात यह है कि ऐसी घटनाएं कभी हमें उद्वेलित नहीं करतीं। गरीबों का दर्द कभी हमारी संवेदनशीलता को नहीं झकझोरता। आजादी के 64 साल बाद भी हम देश के हर जिले में अत्याधुनिक सुविधाओं वाला एक सरकारी अस्पताल भी नहीं खड़ा कर पाए, यह विडंबना है। लाचार गरीब बेबसी और आर्थिक तंगी से बेवक्त मौत को मजबूर है। आइसीयू या पीबीयू की कौन कहे, एक बेड पर दो से तीन शिशुओं का इलाज हो रहा है। इलाज के नाम पर बस ग्लूकोज और मुफ्त का बेड। बाकी सब इंतजाम बाहर यानी हर जिला अस्पताल के बाहर एक्स-रे, अल्ट्रासाउंड और अत्याधुनिक जांचों की दुकानों से। कमोबेश देश के हर पिछड़े जिले की यही कहानी है।

अस्पताल के अंदर धूल खाती जांच मशीनें मरीजों की बेबसी को मुंह चिढ़ाती नजर आती हैं। गांवों-कस्बों तक प्राथमिक और सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों का संजाल तो फैल गया, मगर वहां न डॉक्टर है, न समुचित स्टाफ। बिजली, पानी और साफ-सफाई जैसी जरूरी सुविधाओं को भी ये अस्पताल मोहताज हैं। केंद्र हो या राज्य सरकार लाचारगी, जताती हैं कि उसके पास इतना बजट और संसाधन नहीं है कि इन अस्पतालों को मल्टी-स्पेशियलिटी बनाया जा सके। तरस आता है ऐसे तर्को पर, राष्ट्रमंडल खेल, एफ-वन रेस पर पैसे बहाने के लिए हम तिजोरियां खोल देते हैं, मगर मासूम बच्चों की चीखें हमारी अंतरात्मा को नहीं झकझोरतीं। एक सीएचसी में छह से सात विशेषज्ञ डॉक्टरों और नौ नर्सो की दरकार है, मगर नेशनल रूरल हेल्थ मिशन के हालिया आंकड़े बताते हैं कि इनमें से 95 फीसदी इन मानकों को पूरा नहींकरते। राज्य सरकारों का रोना है कि उनके पास धन नहीं है। मगर हकीकत यह भी है कि लोकलुभावन राजनीति ने ऐसे राज्यों का बेड़ा गर्क कर दिया है। खासकर बीमारू राज्यों उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल आदि का। जिन्होंने केंद्र के सामने कटोरा फैलाने के सिवा संसाधन जुटाने के लिए कुछ नहींकिया।

केंद्र से वित्तीय मदद पर टिके राज्यों में ही स्वास्थ्य सुविधाएं बदतर स्थिति में हैं। वोट बैंक को ही अपना ध्येय मान चुकी इन सरकारों ने पंचायत-निकाय, जिला या मंडल स्तर पर कभी राजस्व बढ़ाने की कोशिश नहीं की। तो ये दुर्दिन तो आने ही थे। स्वास्थ्य पर सरकारी खर्च भी सकल घरेलू उत्पाद के दो फीसदी से भी कम है। निजी क्षेत्र से तो हेल्थ सेक्टर में बूम आया है, मगर वह गरीब के किस काम का। गरीब के पास निजी अस्पतालों में इलाज का पैसा होता तो उनके बच्चे भुखमरी, कुपोषण और जापानी इंसेफलाइटिस जैसी जानलेवा बीमारियों का शिकार न बनते। केंद्र और राज्य एनआरएचएम के जरिये जो पैसा खर्च कर रहे हैं, उसमें भ्रष्टाचार और अनियमिताएं भी हमारे सामने हैं। सरकारों ने कभी प्रदर्शन आधारित मदद या लक्ष्य आधारित अनुदान की बात सोची ही नहीं। इससे योग्य चिकित्सकों और अस्पताल प्रबंधनों को उत्कृष्टता हासिल करने में मदद मिलती।

दरअसल, अस्पताल प्रबंधन को नौकरशाही के चंगुल में जकड़ रखा गया है। जिला स्तर पर अस्पताल प्रबंधन संसाधन कैसे जुटाएं, पीएचसी या सीएचसी के तौर पर अपनी शाखाओं को उन्नत कैसे बनाया जाए, यह कभी सोचा ही नहीं गया। उन्हें अपने विवेक को इस्तेमाल करने की आजादी नहींहै। इसके उलट बगैर व्यावहारिकता और आवश्यकता के गैर जरूरी मदों पर बेतहाशा धन बहाया जाता है। इसकी एक बानगी देखिए। एनआरएचएम के तहत यूपी में सैकड़ों एंबुलेंस खरीद ली गई, लेकिन कई सालों तक ड्राइवरों की भर्ती न होने से ये खड़ी-खड़ी सड़ रही हैं। सरकार चाहे तो मनरेगा मजदूरों, बीपीएल कार्ड धारकों को बीमा योजना का फायदा पहुंचा सकती है। रिक्शाचालकों, असंगठित क्षेत्र के मजदूरों और देश के अन्य वंचित वर्ग तक भी सरकारी मशीनरी को खुद पहुंचना होगा। इसके लिए स्वयंसेवी संस्थाओं, सिविल डिफेंस, एनसीसी और गैर सरकारी संगठनों की मदद ली जा सकती है। जैसा कि हमने पोलियो उन्मूलन के लिए किया है। केंद्र सरकार को भी मदद देने की महज औपचारिकता पूरी करने के बजाय अनुदान की निगरानी, ऑडिट की समुचित व्यवस्था भी करनी होगी।

‘सृजन’ का अपमान



इस साल का एक खास दिन 11 नवंबर 2011….इसी दिन उस नन्हीं परी ने भी पहली बार अपनी आंखें खोलीं. यह दिन खास था, ऐसे में इस दिन जन्मे बच्चों पर स्पेशल स्टोरी करने के लिए हम महिला हॉस्पिटल के बाहर मौजूद थे. बच्चों की लिस्ट लेकर वार्ड में पहुंचे. उस बच्ची की मां दीवार के सहारे बेड पर बैठी हुई थी, बच्ची अपनी नानी की बांहों में थी. मैंने बच्ची की मां को बधाई दी कि उनके घर नन्हीं परी आई है, लेकिन महिला की आंखों में आंसू आ गए. मैं समझ नहीं पाई कि ऐसा क्यों हुआ. बच्ची की नानी ने बताया कि यह बच्ची मेरी बेटी की तीसरी बेटी है. हर बार की तरह इस बार भी ससुरालियों ने बेटे की उम्मीद की थी. इस बार भी लड़की पैदा हुई है. ऐसे में मेरी लड़की के ससुराल से न तो कोई मेरी बेटी और नातिन को देखने आया है और न ही किसी ने हाल-चाल पूछा. बेचारी यही सोच-सोचकर रोए जा रही है कि अब ससुराली घर लेकर जाएंगे भी की नहीं. नारी की सृजनक्षमता के कारण ही उसे भगवान के समकक्ष रखा जाता है, तो इस सृजन का अपमान इसलिए क्यों किया जाता है कि पैदा होने वाली संतान लड़की है. उस महिला की आंखों में आंसू देखकर मुझे भी वो दिन याद आ गया, जब मेरे घर में मेरी चौथी बहन ने जन्म लिया था. मैं घर में में सबसे बड़ी थी. जब मेरी चौथी बहन पैदा हुई तो मुझे पड़ोस की आंटी ने बहुत बेचारगी से बताया था कि ‘तेरी बहन हुई है’. किराए के कमरे में मेरी नानी भी कुछ इसी तरह मेरी चौथी बहन को लिए हुए बैठी थी. उस समय मेरी उम्र बहुत कम थी, ऐसे में मैं समझ नहीं पाई कि घर में यह मातम का माहौल क्यों पसरा हुआ है. उस समय मायथॉलॉजिकल टीवी सिरियल्स बहुत आया करते थे और मुझे लगता था कि अगर मैं भगवान से प्रार्थना करूंगी तो वो मुझे भी भाई दे देंगे. खैर यह केवल टीवी में देखी हुई बातें थीं और कोई चमत्कार नहीं हुआ. हॉस्पिटल के उस बेड के पास जिस मातम की छाया पसरी हुई थी, उसने मुझे कई साल पहले घटे इस वाक्ये की याद दिला दी. कहते हैं समय हर जख्म को भर देता है, लेकिन कुछ जख्म कभी नहीं भरते और टीस देते रहते हैं.

मानवीय हादसे, सियासी संवेदनाएं



कोलकाता के निजी अस्पताल आमरी में पिछले दिनों लगी आग की प्रकृति भी वैसी ही थी, जैसी पूर्व की घटनाओं में भी दिखती रही है। इस हादसे में तकरीबन 90 लोग मारे गए हैं। इसलिए इस मानवीय हादसे पर दिख रही सरकारी और सियासी संवेदनाएं भी पूर्ववत ही हैं। इस घटना को भले यह मानकर संतोष कर लिया जाए कि होनी को कोई टाल नहीं सकता, लेकिन इस होनी से प्रभावितों की प्रकृति जरूर झकझोर रही है। दिल्ली के उपहार सिनेमा कांड जैसी। उस घटना में लोग खुशी-खुशी सिनेमा देखकर मनोरंजन करने गए थे, लेकिन वहां से निकली उनकी लाशें। कोलकाता की घटना में भी मामूली या गंभीर रोगों से परेशान लोग अस्पताल में स्वस्थ होकर खुशी-खुशी लौटना चाह रहे थे, लेकिन उनकी भी लाशें ही निकलीं।

बहरहाल, अन्य हादसों की तरह इस घटना पर भी दिख रही सियासी संवेदनाएं गले नहीं उतर रही हैं। सवाल है कि क्या इन संवेदनाओं से इस क्षति की पूर्ति हो जाएगी? जाहिर है, हरगिज नहीं। फिर क्यों इस तरह के ढकोसले किए जाते हैं और हादसों को रोकने के समुचित उपाय नहीं किए जाते? पश्चिम बंगाल की सरकार ने आमरी अग्नि कांड की न्यायिक जांच की घोषणा कर दी है। विभिन्न विभागों के एक्सपर्ट मामले की जांच करेंगे और बताएंगे कि यह हादसा किसकी गलती से हुआ। फिर सरकार उसे कड़ी से कड़ी सजा देगी। यदि देश के विभिन्न राज्यों में हुई बड़ी घटनाओं की जांच और दोषी लोगों के विरुद्ध हुई कथित कार्रवाई पर ईमानदारी से पड़ताल करें तो परिणाम वीभत्स ही होगा। वीभत्स इसलिए कि जिनकी वजह से विभिन्न घटनाओं में हजारों लोग मारे गए, वे अपने प्रभाव और पैसे के बल पर खुलेआम या तो मौज-मस्ती कर रहे हैं या फिर सत्ता के गलियारों में किसी बड़े पद को सुशोभित कर रहे हैं।

खैर, मूल विषय यह है कि जन विद्रोह रोकने के लिए त्वरित कार्रवाई के तौर पर स्थानीय पुलिस-प्रशासन ने प्रथम दृष्टया दोषी मिले अस्पताल के अधिकारियों को गिरफ्तार कर लिया। निश्चित रूप से कानूनी कार्रवाई के बावजूद गिरफ्तार लोगों के लिए कानून में कोई न कोई एक्ट सामने आ ही जाएगा, जो उन्हें ससम्मान बरी कर देने की वकालत करेगा। निश्चित रूप से लोगों को कार्रवाई के परिणाम का डर सता रहा है कि आखिर जांच के बाद दोषी पाए गए लोगों के विरुद्ध क्या कार्रवाई होगी? जानकार बताते हैं कि कोलकाता कांड के कथित सूत्रधारों के खिलाफ भारतीय दंड संहिता के तहत लापरवाही और गैर-इरादतन हत्या का मामला दर्ज कर लिया गया है। कोलकाता के अलीपुर पुलिस कोर्ट में 9 दिसंबर को एएमआरआइ अस्पताल के छह अधिकारी पेश हुए। सातवें अधिकारी खराब स्वास्थ्य के आधार पर अदालत में पेश नहीं हुए। हादसे के उपरांत मुख्यमंत्री ममता बनर्जी अस्पताल पहुंचीं। ममता बनर्जी ने कहा है कि यह अग्निकांड इस तरह का अपराध है, जो क्षमा करने योग्य नहीं है। बहरहाल, अस्पताल का लाइसेंस रद कर दिया गया है। घटना के बाद से सरकार ने कोलकाता के सभी अस्पतालों, नर्सिग होम और स्कूलों में आग से निपटने के उपायों की समीक्षा करने का फैसला किया है।

राज्य सरकार ने इस घटना की उच्चस्तरीय जांच के आदेश दिए हैं। साथ ही समिति को जल्द इस बारे में रिपोर्ट देने को कहा गया है। हादसे के शिकार लोगों के परिजनों का कहना है कि अस्पताल में अग्निशमन के मूलभूत उपाय नहीं थे। मरने वालों में ज्यादातर मरीज थे, जो अस्पताल में ऊपर की मंजिलों में फंस गए थे और अधिकतर मरीजों का आग की लपटों और धुएं में दम घुट गया। बताते हैं कि आग की शुरुआत अस्पताल के बेसमेंट से हुई, जो पूरी तरह अवैध है। मरीज वैसे ही दुर्बल थे। ऐसे में जब धुंआ उनके तल पर पहुंचा तो उनके दम घुटने लगे और वे मारे गए। मौके पर मौजूद एक डॉक्टर ने बताया कि अस्पताल के गलियारों में अचानक अमोनिया गैस का रिसाव शुरू हुआ, जिसके बाद अफरा-तफरी मच गई। कई लोगों की मौत दम घुटने से हुई है और कई झुलसने से मरे। अस्पताल में दाखिल होने के लिए अग्निशमन कर्मियों को खिड़की का शीशा तोड़ना पड़ा, तब जाकर वे मरीजों को बाहर निकाल सके। अस्पताल से निकाले गए कुछ मरीजों को पास के अस्पतालों में इलाज के लिए दाखिल कराया गया है। आमरी अस्पताल में आग लगने की यह दूसरी घटना है। इससे पहले वर्ष 2008 में भी इस अस्पताल में आग लगने की एक घटना हुई थी, लेकिन फिर भी कोई एहतियात नहीं बरती गई।

हृदयघात की संभावना को जन्म देता है शारीरिक शोषण


पुरुष प्रधान इस समाज में महिलाओं के सम्मान और उनके मूलभूत अधिकारों के साथ खिलवाड़ होना कोई नई बात नहीं है. आए-दिन हमारा सामना ऐसी घटनाओं से होता रहता है जो महिलाओं पर होने वाले अत्याचारों, उनके दयनीय पारिवारिक हालातों को स्वत: हमारे समक्ष प्रस्तुत कर देते हैं. घरेलू हिंसा, बलात्कार, शोषण, छेड़खानी आदि कुछ ऐसे अपराध हैं जो महिलाओं के अस्तित्व और उनके मान-सम्मान पर प्रश्न चिह्न  लगा देते हैं.

ऐसे हालातों के मद्देनजर अगर यह कहा जाए कि महिला चाहे घर में हो या बाहर, दोनों ही जगह वह सुरक्षित नहीं है, तो गलत नहीं होगा. जहां परिवार के भीतर उसे अपने पति या फिर सास-ससुर के कोप का सामना करना पड़ता है तो घर के बाहर उसे भोग की वस्तु समझने वालों की भी कोई कमी नहीं है. हालांकि विवाह के पश्चात अधिकांश पुरुष भी अपनी पत्नी को इसी रूप में देखते हैं लेकिन फिर भी विवाह का नाम देकर उनके इस मनोविकार को खारिज कर दिया जाता है. लेकिन जब कोई महिला घर की चारदिवारी के बाहर कदम निकालती है तो उसे हर समय अपने सम्मान को खो देने का भय ही सताता रहता है. आज शायद ही कोई ऐसा राष्ट्र, कोई शहर हो जहां महिलाएं बिना किसी परेशानी या डर के बाहर विचरण कर सकें.

लेकिन हमारा यह सोच लेना कि महिलाएं सिर्फ घर के बाहर या अपरिचित लोगों से ही असुरक्षित हैं, घर के भीतर या अपनों के संरक्षण में उन्हें कोई हानि नहीं पहुंचती, तो यह हमारी नासमझी है. आंकड़ों पर गौर करें तो यह साफ प्रमाणित होता है कि अधिकांश लड़कियां अपने परिवारवालों या फिर परिचितों की ही घृणित और विकृत मानसिकता का शिकार होती हैं. वे संबंधी जिन पर वह विश्वास करती हैं, प्राय: देखा जाता है कि वही उनकी आबरू के साथ खिलवाड़ करते हैं. उन्हें बहका कर या डरा कर वह उनका शोषण करते रहते हैं.

उल्लेखनीय है कि ऐसे लोग छोटी और नासमझ बच्चियों को ही अपना शिकार बनाते हैं. वह जानते हैं कि बच्चियां जल्दी उनके बहकावे में आ जाएंगी और डर के कारण परिवार वालों को भी कुछ नहीं बताएंगी. ऐसे घृणित मानसिकता वाले लोग जब चाहे, जितनी बार चाहे शारीरिक और मानसिक रूप से अपरिपक्व बच्चियों का शोषण करते रहते हैं. बात खुल भी जाए तो परिवार वाले भी अपनी मान-मर्यादा और संबंधों की दुहाई देकर इस बात को वहीं दबा देते हैं. ऐसा कर वह जहां अपनी बच्ची के भविष्य और उसके सम्मान के साथ हुए खिलवाड़ को नजरअंदाज करते हैं वहीं आगामी हालातों के नकारात्मक प्रभावों को नहीं समझ पाते. हम चाहे पीड़िता से कितनी ही हमदर्दी क्यों ना रख लें लेकिन हम कभी उसकी मानसिक और शारीरिक पीड़ा को समझ नहीं सकते.

एक नए अध्ययन के अनुसार जिन बच्चियों का बार-बार शारीरिक शोषण होता है वह ना सिर्फ मानसिक और शारीरिक रूप से आहत होती हैं बल्कि इससे उनके स्वास्थ्य पर भी नकारात्मक प्रभाव पड़ता है.

ब्रिघम यूनिवर्सिटी द्वारा हुए इस सर्वेक्षण में यह बात प्रमाणित हुई है कि बचपन या युवावस्था में जिन महिलाओं ने लगातार होते शारीरिक शोषण और बलात्कार का सामना किया है उनके अन्य महिलाओं से लगभग 62 प्रतिशत हृदयघात की संभावना बढ़ जाती है. इन आंकड़ों में उन महिलाओं को शामिल नहीं किया गया है जो एक सीमित या कभी-कभार होते शोषण का शिकार हुई हैं.

इस अध्ययन से जुड़े मुख्य शोधकर्ता और सहायक चिकित्सीय प्रोफेसर जेनेट रिच एडवर्ड का कहना है कि बार-बार होते शारीरिक शोषण के कारण युवावस्था और वयस्कता में महिलाओं का शारीरिक भार बहुत ज्यादा बढ़ जाता है, जो उनके हृदय गति और क्रिया को प्रभावित करता है. यही कारण है कि ऐसी महिलाएं जल्दी हृदयघात की चपेट में आ जाती हैं.

इस अध्ययन के अंतर्गत वर्ष 1989-2007 तक बलात्कार और शारीरिक शोषण के आंकड़ों को शामिल किया गया. ऐसी महिलाओं की संख्या लगभग 67 हजार थी जिनका बचपन या युवावस्था में शारीरिक शोषण हुआ था. इनमें से ग्यारह प्रतिशत महिलाओं को बचपन में यौन शोषण का सामना करना पड़ा वहीं नौ प्रतिशत महिलाएं शारीरिक हिंसा का शिकार हुई थीं.

शोधकर्ताओं का कहना है कि वे महिलाएं जो ऐसी अमानवीय परिस्थितियों का सामना करती हैं उन्हें इसके दर्द और बुरे अनुभव से उभरने के लिए अपना शारीरिक और भावनात्मक रूप से ध्यान रखने की जरूरत अपेक्षाकृत अधिक होती है.

उपरोक्त अध्ययन भले ही विदेशी महिलाओं से जुड़े आंकड़ों के आधार पर संपन्न किया गया हो लेकिन अगर हम भारतीय परिवेश पर नजर डालें तो दुर्भाग्यवश यह संख्या बहुत अधिक हो सकती है. कितनी ही बच्चियां अपने किसी विश्वसनीय पड़ोसी या रिश्तेदार की हवस का शिकार हो जाती हैं. कितनी ही युवतियां ऐसी हैं जिन्हें दोस्त पर भरोसा करना बहुत भारी पड़ जाता है. आए-दिन महिलाएं बलात्कार का शिकार होती ही रहती हैं. ऐसी घटनाएं यह साफ बयां करती है कि समाज चाहे कितना ही आधुनिक क्यों ना हो जाए, पुरुषों द्वारा महिलाओं पर अत्याचार होना आज भी उतनी ही प्रमुखता से अपनी जड़ें जमाए हुए है. शिक्षा, कानूनी रूप से समान अधिकार ऐसी परिस्थितियों में कोई मायने ही नहीं रखते. परिवार वाले जहां अपनी बच्चियों की दशा को ऐसे ही स्वीकार कर लेते हैं वहीं पुरुष पर अंगुली उठाना हमारी परंपरा में है ही नहीं. बचपन से ही हम अपने बच्चों को यही शिक्षा देते हैं कि लड़के परिवार का भविष्य होते हैं. आगे चलकर वही परिवार को संभालते हैं. पुरुष जैसे चाहे महिलाओं के साथ व्यवहार करे लेकिन महिला कभी उसके विरुद्ध आवाज नहीं उठा सकती.

हम सोचते हैं कि ऐसी शिक्षा परिवार के स्थायित्व और संतुलन को बनाए रखेगी, लेकिन वास्तविकता यही है कि ऐसी सोच ही महिलाओं पर होने वाले अत्याचारों को बढ़ावा देती है. बचपन की सीख ही पुरुषों को आगे चलकर महिलाओं पर अत्याचार करने की हिम्मत देती है. कानून भले ही महिलाओं को पुरुषों के बराबर अधिकार प्रदान करता हो लेकिन समाज में व्याप्त भेद-भाव हम साफ देख सकते हैं. बलात्कार के आरोप में मिलने वाली वैधानिक सजा तब तक कोई प्रभाव नहीं रखती जब तक परिवार वाले अपने उत्तरदायित्वों को ना समझें. अभिभावक उन्हें बचपन में सही शिक्षा दें, अपने बच्चे की गलतियों को नजरअंदाज ना करें तभी इस समस्या का हल निकल सकता है अन्यथा व्यवहारिक तौर पर कुछ नहीं हो सकता.

कब लेंगे आदिवासियों की सुध



देश की राजधानी दिल्ली में राजघाट स्थित गांधी दर्शन स्थान पर पिछले दिनों आयोजित आदिवासी संस्कृति संगम कार्यक्रम में जाकर ऐसा अहसास हुआ मानो गांधी दर्शन स्थल किसी आदिवासी बस्ती के रूप में तब्दील हो गया हो। अपने आदिवासी भाइयों को उनके परंपरागत पहनावे में 26 जनवरी की परेड में देखने की आदत अब बासी हो गई है। इंटरनेट के दौर में तो घर में ही इनकी तस्वीरें देख लोग इस बात से खुद को तसल्ली दे लेते हैं कि चलो, जंगलों में रहने वाले धरती के एलियन लोगों के दर्शन हो गए। अधिकांश लोगों को इनकी जिंदगी और उनकी समस्याओं से कोई खास वास्ता नहीं दिखता। बहरहाल, गांधी स्मृति एवं दर्शन समिति के सहयोग से पहली बार किसी ऐसे कार्यक्रम का आयोजन किया गया, जिसमें देश के विभिन्न राज्यों से करीब 500 आदिवासियों ने भागीदारी की और अपनी समस्याओं के संदर्भ में लोगों को विस्तार से बताया और समझाया। उपभोक्तावादी संस्कृति व आधुनिक विकास के तकनीकी व उद्योग प्रधान युग में आदिवासी खुद को ठगा-सा और असहाय महसूस करते हैं।

आदिवासी संस्कृति में यह कहावत मशहूर है कि चलना ही नृत्य है और बोलना ही गीत। आदिवासी जीवन के नृत्य और गीत के लय, ताल और बोल जब तक जीवित हैं, आदिवासी संस्कृति तब तक जीवंत और विकासमान है। उनकी जीवनशैली में विकास का मतलब है आजीविका, आजादी और आनंद के बीच तारतम्य का होना। जो विकास आजीविका के साधनों व स्रोतों को नष्ट करता है और जिससे लोग आजीविका के संसाधनों से वंचित हो जाते हैं, उसे आदिवासी समुदाय अपना विकास नहीं मानता। देश के पहले प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू ने पंचशील सिद्धांत के तहत कहा था कि आदिवासियों पर वैसे विकास न थोपे जाएं, जिसके चलते इनकी आजीविका, स्वशासन की पद्धति और संस्कृति पर आंच आती हो। संविधान में पांचवीं और छठी अनुसूची के अंतर्गत आदिवासियों के हितों पर खास बल देते हुए उनके इलाकों के जल, जंगल, जमीन और उनके स्वशासन की रक्षा हेतु विशेष प्रावधान तो किए गए मगर सवाल यह है कि इन सबके बावजूद मुल्क की 10 करोड़ की आदिवासियों की आबादी आज आक्रोशित क्यों है? इस आक्रोश की आंच को इनसे बात करके महसूस किया जा सकता है। झारखंड के सिंहभूम से आए कुमार चंद्र मारंडी सर्वोच्च अदालत के एक फैसले की याद दिलाते हैं-इस साल शीर्ष अदालत ने अपने एक फैसले में कहा था कि आदिवासी देश का पहला व असली नागरिक है, लेकिन आज हमारी स्थिति क्या है? हम आदिवासी जिस जमीन पर रहते हैं, उसके नीचे कोयला, सोना, तांबा, लोहा, बॉक्साइट, यूरेनियम आदि खनिज भरे पड़े हैं और हम फिर भी गरीब हैं। जंगलों पर कब्जा जारी है।

आखिर ऐसा क्यों होता है कि जमीन होने के बावजूद हम हरी सब्जियां, धान, गेहूं की फसल नहीं बो पाते? दरअसल, राज्य की मिलीभगत से प्राकृतिक संसाधनों पर बडे-बडे़ उद्योग घरानों का कब्जा हो गया है और आदिवासी अपने ही जंगल व जमीन पर प्रवासी बना दिए गए हैं। सामाजिक कार्यकर्ता कुमार चंद्र मरांडी का आरोप है कि झारखंड सरकार उद्योगों से मिलने वाले राजस्व का इस्तेमाल तक आदिवासियों के कल्याण के उद्देश्य से नहीं करती। पुलिस ही सरकार की भूमिका निभाती है और आदिवासियों की जमीन पर होने वाले गैर कानूनी कब्जों में उसकी भूमिका किसी से छिपी नहीं होती है। सरकारी अस्पतालों में आदिवासियों के लिए आने वाली दवाइयां काले बाजार में चली जाती हैं। हमारे देश के आदिवासियों के लिए जंगल, जमीन और जल से जुड़ी तमाम बहसें एक रस्म अदायगी के लिए कभी-कभार कर ली जाती हैं। इनके लिए लोकसभा और राज्यसभा में भी चर्चा होती है, लेकिन जमीनी हकीकत यही है कि आदिवासियों के कल्याण हेतु बनी सरकारी योजनाएं कागजों से बाहर नहीं निकल पातीं। लिहाजा, इनका लाभ भी उन तक नहीं पहुंचता। ऐसी योजनाओं पर अमल न के बराबर है। इन क्षेत्रों के ग्रामसभाओं को एक साजिश के तहत कमजोर किया गया है। आदिवासियों को अपने अधिकार नहीं मालूम हैं, लिहाजा प्राकृतिक संसाधनों से वंचित होने की प्रक्रिया बदस्तूर जारी है और कई आदिवासी इलाकों में विकास के नाम पर नक्सली प्रभाव साफ दिखता है। सरकार और राज्य की मंशा पर से इनका भरोसा टूट चुका है। दरअसल वे खुद को राज्य व माओवादियों के बीच पिसा हुआ पाते हैं। राज्य अशांत आदिवासी इलाकों में माओवादियों को पकड़ने के लिए छावनी के रूप में तब्दील कर देती है, लेकिन उन्हें इस बात की फिक्र नहीं कि उनके इन अभियानों का वहां की स्थानीय जनता पर क्या असर पड़ता है। इस तरह के कदमों से आदिवासी ऐसा महसूस करते हैं कि वे राज्य के लिए महत्वपूर्ण नहीं हैं, क्योंकि उसके लिए उनके खदान व उद्योग ही सर्वोपरि है।

माओवादियों के लिए भी आदिवासियों के हित से कहीं अधिक महत्वपूर्ण उनका अपना राजनीतिक क्रांति है जिसके जरिए वे सत्ता हथियाना चाहते हैं। अगर नक्सलवाद प्रभावित इलाके का कोई आदिवासी माओवादी अपने अधिकारों की बात करता है तो राज्य उसे अपने दुश्मन वाली हिटलिस्ट में शुमार कर लेती है। कुल मिलाकर राज्य और माओवादी दोनों ही आदिवासियों को एक औजार के रूप में इस्तेमाल कर रहे हैं। 10 करोड़ की आबादी और करीब साढ़े चार सौ समुदायों वाले आदिवासी समूह खुद को अपने ही देश में अलग-थलग महसूस करते हैं जबकि देश के आदिवासी समुदाय गांधी के सपनों के भारत का अहम हिस्सा हैं। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी आदिवासियों के सरल-सहज जिंदगी से प्रभावित हुए और उन पर होने वाले शोषण से इतने व्यथित कि उन्होंने आदिवासियों के बीच काम करने के लिए ठक्कर बापा को भेजा। केरल में एक सरकारी रपट में कहा गया है कि वहां के आदिवासियों में कोई भी भूमिहीन नहीं है। लिहाजा, सरकार की तरफ से भूमि वितरण का कोई प्रावधान नहीं है, लेकिन गांधी दर्शन स्थल पर केरल के आदिवासियों की समस्याओं पर बोलने वाले एक आदिवासी की मानें तो यह रपट झूठ का पुलिंदा है। उड़ीसा में 26 फीसदी आबादी आदिवासियों की है और आजादी के 64 साल बीत जाने के बाद भी वे गरीब बने हुए हैं तो इसके लिए दोष आखिर किसका है? सरकार इनके शिक्षा, आवास, रोजगार के लिए कोई योजना क्यों नहीं बनाती? शायद इसलिए कि ये वोट बैंक नहीं हो सकते और यही इनका पिछड़ापन और दोष है। आदिवासी अपनी जमीन, जंगल और संस्कृति से बेदखल हो रहे हैं। इनकी हालत खराब है और आबादी घट रही है। फैशन शो और फिल्म प्रमोशन को तरजीह देने वाले मीडिया इन्हें तवज्जों आखिर क्यों नहीं देता? बचाव के लिए बहुत कुछ कहा जा सकता है, लेकिन सरकार के साथ मीडिया भी अपनी भूमिका से चूक रहा है।
( अरविंद )

कहीं मोटापा, कहीं भुखमरी का दंश


एक सर्वे के मुताबिक मेट्रो शहरों की 70 फीसदी आबादी मोटापे की शिकार है। मेट्रो में रहने वाला मध्यम और उच्च वर्ग पढ़ा लिखा, जानकार है। हम सब जानते है कि मोटापा डायबिटीज, हृदय रोग, कैंसर, कोलेस्ट्राल, थायराइड समेत 50 से ज्यादा बीमारियों का वाहक है फिर भी हम इसे क्यों नहींरोक पाते। यह भी सच है कि भारत की साठ फीसदी से ज्यादा आबादी युवा और देश का भविष्य इन्हींकंधों पर है। अगर भावी पीढ़ी बीमारियों के भंवर में जकड़ जाएगी तो हम भी वही रोना रोते नजर आएंगे जो आज अमेरिका और यूरोपीय देश रो रहे हैं। मोटापा और उससे जनित डायबिटीज, कैंसर जैसी बीमारियों की वजह से वहां सामाजिक सुरक्षा का खर्च इतना ज्यादा बढ़ गया है कि सरकारें लाचार नजर आ रही हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने तमाम आंकड़ो के जरिए चेतावनी दी है कि यही हाल रहा तो भारत अगले 15 से 20 वर्षों में डायबिटीज, मोटापा और कैंसर के मरीजों की राजधानी में तब्दील हो जाएगा। आंकड़ों के मुताबिक भारत में हर छह में से एक महिला और हर पांच में से एक पुरुष मोटापे का शिकार है। भारत में मोटापे के शिकार लोगों की संख्या सात करोड़ पार कर गई है। सबसे खतरनाक बात है कि 14-18 साल के 17 फीसदी बच्चे मोटापे से पीडि़त हैं। एक अध्ययन के मुताबिक बड़े शहरों में 21 से 30 फीसदी तक स्कूली बच्चों का वजन जरूरत से काफी ज्यादा है।

विशेषज्ञों के मुताबिक किशोरावस्था में ही मोटापे के शिकार बच्चे युवा होने तक कई गंभीर बीमारियों का शिकार हो जाते हैं। जिससे उनकी कार्यक्षमता पर बुरा असर पड़ता है। यही वजह है कि आजकल 30 साल से कम उम्र के लोगों में भी हृदय रोग, डायबिटीज, कैंसर जैसी बीमारियां तेजी से उभर रही हैं। यहींनहीं शहरों में रहने वाले हर पांच में एक शख्स डायबिटीज या हाइपरटेंशन का शिकार है। सभी प्रकार के संसाधनों से लैस होने के बावजूद शहरी मध्यवर्ग विलासिता और गलत खान-पान की आदतों से छुटकारा पाने में असफल रहा है। सवाल उठता है कि जो देश भुखमरी, कुपोषण, बाल मृत्यु दर, प्रसवकाल में महिलाओं की मौत की ऊंची दर से परेशान हो, क्या उसे उच्च वर्ग की विलासिता और भोगवादी संस्कृति से उपजी इन बीमारियों का बोझ अपने कंधों पर उठाना चाहिए। दरअसल इन बीमारियों से लड़ने की हमारी नीति नकारात्मक और संकीर्ण है। विडंबना है कि सरकारें यह क्यों नहीं सोचतींकि कानून या योजना बनाने या उसके लिए बजट घोषित करने से सामाजिक समस्याओं का निदान नहीं हो सकता। इसमें सरकार, समाज और प्रभावितों को शामिल करना जरूरी है। मोटापा या जानलेवा बीमारियों के इलाज के लिए अस्पताल और अन्य जरूरी संसाधन मुहैया कराना जितना जरूरी है उतना ही आवश्यक है कि इन बीमारियों का प्रकोप बढ़ने से रोका जाए। हाल ही में डेनमार्क सरकार ने वसायुक्त खाद्य पदार्थो पर अतिरिक्त कर लगाने को मंजूरी दी। यह एक उदाहरण है कि कैसे लोगों को मोटापे के कुचक्र में फंसने से रोका जा सके। या यूं कहें कि मोटापे से लड़ने के लिए हमें वैसे ही दृष्टिकोण की जरूरत आ पड़ी है जैसी कि हम तंबाकूयुक्त पदार्थो को लेकर करते हैं।

मोटापे को लेकर सरकार की नीति बेहद संकीर्ण और अव्यावहारिक है। मसलन निजी और सरकारी स्कूलों में फास्टफूड, उच्च कैलोरी युक्त पदार्थ धड़ल्ले से बिक रहे हैं। स्कूली दिनचर्या में खेलकूद और शारीरिक शिक्षा किताबी पन्नों में सिमट कर रह गई है। मगर सरकारें असहाय हैं। बाजार बच्चों, युवाओं और बूढ़ों को भ्रामक विज्ञापनों से ललचा रहा है मगर सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय खामोश है। स्वस्थ रहने और बीमारियों से बचने की बातें पाठ्यक्रम का हिस्सा नहीं हैं। निजी-सरकारी क्षेत्र के स्कूलों, कार्यालयों और प्रतिष्ठानों में लोगों के खानपान, कार्यशैली और स्थानीय पर्यावरण को लेकर सरकार और निजी क्षेत्र मिलकर सर्वे और जागरूकता कार्यक्रम क्यों नहींचलाते। स्थानीय पर्यावरण मसलन वहां की हवा, पानी, खाद्य वस्तुएं लोगों के स्वास्थ्य पर क्या असर डालती हैं, इस पर शोध और विस्तृत रिपोर्ट तैयार करने की जहमत सरकार क्यों नहीं उठाया जाता। नौकरशाही तांगे के घोड़ों की तरह काम कर रही है जिसकी आंखों पर पट्टी बंधी है और राजनीतिक नेतृत्व जितनी लगाम खींचता है बस वह उतने डग भरती है। बदकिस्मती से राजनेताओं का मकसद भी केवल गाड़ी खींचने तक सीमित रह गया है। अंतरराष्ट्रीय स्वास्थ्य विशेषज्ञ चेतावनी दे चुके हैं कि भारत और अन्य एशियाई देशों का पर्यावरण, लोगों की शारीरिक स्थिति एवं कार्यप्रणाली ऐसी है कि यहां मोटापा और उससे जनित जानलेवा बीमारियों यानी कैंसर, डायबिटीज, हृदयरोग के फैलने का खतरा ज्यादा है। मोटापा से होने वाली टाइप टू डायबिटीज से करीब सात करोड़ भारतीय परेशान हैं। इसलिए बच्चों, युवाओं के आसपास ऐसा माहौल विकसित करना जरूरी है कि वे ऐसे खाद्य एवं पेय पदार्थों से दूर रहें कि वे मोटापा और अन्य बीमारियों का शिकार हों। हमारे नौनिहाल और युवा पीढ़ी अगर बीमारियों से घिरी रहेगी तो कार्यक्षमता तो घटेगी ही, देश के मानव संसाधन पर भी प्रभाव पड़ेगा।

सरकार अगर स्वास्थ्य क्षेत्र का बड़ा हिस्सा विलासिता से पैदा होने वाली बीमारियों पर खर्च करेगी तो भुखमरी, कुपोषण, बाल मृत्यु दर, प्रसवोपरांत महिलाओं के स्वास्थ्य के लिए नियोजित बजट पर असर पड़ेगा। ऐसे में मोटापा और उससे होने वाली बीमारियों से लड़ने के लिए सकारात्मक और प्रोएक्टिव कदम उठाने होंगे। केंद्र और राज्य स्तर पर सरकार और निजी क्षेत्र के स्कूलों, अस्पतालों, प्रतिष्ठानों और गैर सरकारी संगठनों को इस समग्र नीति का हिस्सेदार बनाना होगा। और हां प्रभावित होने वाले वर्ग यानी बच्चों और युवाओं को भी इस अभियान का भागीदार बनाना होगा, तभी कोई नीति सफल हो पाएगी। नकारात्मक उपायों के तौर पर फास्ट फूड और उच्च कैलोरी युक्त पेय पदार्थो की बिक्री को हतोत्साहित करना होगा। डिब्बाबंद खाद्य और पेय पदार्थो पर ऐसे मानक तय करने होंगे जिससे स्वास्थ्य पर हानिकारक प्रभाव न पड़े। ऐसे जंक फूड और हाइड्रेटेड ड्रिंक की स्कूली परिसर के सौ मीटर के दायरे में बिक्री भी प्रतिबंधित कर देनी चाहिए। स्कूल में आयोजित स्वास्थ्य जागरूकता कार्यक्रमों में बच्चों के साथ उनके अभिभावकों की भी हिस्सेदारी होनी चाहिए क्योंकि वे ही अपनी संतानों के खानपान और जीवनशैली के लिए जिम्मेदार होते हैं। इन खाद्य पदार्थो के पैकेट पर भी सामान्य चेतावनी लिखी जानी चाहिए, जिसमें इनके सेवन से होने वाले दुष्प्रभावों का जिक्र हो ताकि दुकानदार अपने ग्राहकों को बहका न सकें और इसका नुकसान ज्यादा नहो सके। हमें बच्चों और युवाओं को यह समझाना होगा कि ये फास्टफूड और कैलोरीयुक्त पेय पदार्थ पश्चिमी वातावरण और स्थितियों के तो अनुकूल हैं मगर हमारे पर्यावरण के लिहाज से यह साइलेंट किलर की तरह हैं।


बारूद के ढेर पर देश के अस्पताल!



विडंबना ही कही जाएगी कि जिन अस्पतालों में मरीजों को जीवन मिलना चाहिए, वहां उन्हें मौत मिल रही है। मौत भी ऐसी कि कलेजे को चीर दे। कोलकाता के नामी निजी अस्पताल एडवांस मेडिकल रिसर्च इंस्टीट्यूट (आमरी) में दुर्भाग्यपूर्ण तरीके से लगी आग में 90 लोगों की मौत हो जाना ऐसी ही त्रासदपूर्ण घटना है। दिल दहला देने वाली इस घटना को महज अस्पताल की लापरवाही और व्यवस्था की बदहाली से जोड़कर पल्ला नहीं झाड़ा जा सकता और न ही सरकारी मुआवजे की धनराशि घोषित कर दुनिया छोड़ चुके लोगों को वापस लाया जा सकता है। हल यह भी नहीं है कि सरकार ऐसे गैर-जिम्मेदार अस्पतालों का लाइसेंस रद कर अपने कर्तव्यों की इतिश्री समझ ले या अस्पताल प्रबंधन के चंद लोगों को गिरफ्तार कर अपनी पीठ थपथपा ले। संभव है कि सरकार के इस फौरी दिखावेपन से लोगों को आक्रोश कुछ कम हो, लेकिन सवाल यह है कि क्या महज इतनी कार्रवाई भर से सब कुछ ठीक हो जाएगा? इस बात की क्या गारंटी है कि कल दूसरे अस्पतालों में आग नहीं लगेगी और लोग जल-भुनकर नहीं मरेंगे?

सवाल उठना लाजिमी है कि सरकार और प्रशासन की निगाह ऐसे गैर-जिम्मेदार अस्पतालों की ओर क्यों नहीं जा रहा है, जहां मरीजों के जीवन के साथ खिलवाड़ किया जा रहा है। ऐसा नहीं है कि मरीजों से मोटी उगाही पर उतारू और सुरक्षा को नजरअंदाज करने वाले इन अस्पतालों की जन्मकुंडली सरकार के पास नहीं है, लेकिन सरकार संवेदनहीन है और उसकी नौकरशाही गिरोहबाज अस्पताल प्रबंधकों की लूटपाट पर लगाम लगाने के बजाए खुद उसमें शामिल हो गई है। अगर ऐसा नहीं होता तो सरकार अपनी तीन फीसदी की हिस्सेदारी वाले आमरी अस्पताल को भगवान भरोसे नहीं छोड़ती। क्या विचित्र नहीं लगता है कि कोलकाता जैसे महानगर के फाइव स्टार और वातानुकूलित अस्पतालों में शुमार आमरी अस्पताल के पास आपातकाल में बचाव के लिए कोई इंतजाम तक नहीं है? अभी तक सिर्फ सरकारी अस्पतालों की बदहाली का ही रोना रोया जा रहा था, लेकिन वातानुकूलित एडवांस मेडिकल रिसर्च इंस्टीट्यूट जैसे अस्पताल भी अब इस कतार में खड़े हो गए हैं। आमरी अस्पताल में लगी आग विचलित करने वाली इसलिए भी है कि ये वे अस्पताल हैं, जहां सुविधा और सुरक्षा देने के नाम पर मरीजों से मोटी रकम वसूली जाती है।

आमरी अस्पताल की घटना ने निजी क्षेत्र के अस्पतालों की कार्यप्रणाली और सुरक्षा व्यवस्था की पोल खोलकर रख दी है। आमतौर पर निजी क्षेत्र के अस्पतालों को न केवल बेहतरीन इलाज सुविधाओं से लैस माना जाता है, बल्कि यहां पुख्ता सुरक्षा इंतजाम होने का भरोसा भी बना रहता है। लेकिन हकीकत कुछ और है। बेहतरीन दिखने और कहलाने के नाम पर बस तामझाम भर रह गया है। इन अस्पतालों का गोरखधंधा अब खुलकर सामने आने लगा है। नवजात बच्चों की चोरी से लेकर मानव अंगों की तस्करी जैसे अमानवीय कृत्य इन अस्पतालों की प्राथमिकता में शुमार हो गए हैं। आमरी अस्पताल की हृदयविदारक घटना बताने के लिए काफी है कि किस तरह एक छोटी-सी लापरवाही से सैकड़ों मरीजों की जान जा सकती है। आमतौर पर प्रचलन में आ गया है कि सभी निजी अस्पतालों के बेसमेंट गोदामों की तरह प्रयोग में लाए जाने लगे हैं। आग लगने की स्थिति में बेसमेंट में स्थित गोदाम बारूद का काम कर रहे हैं। आमरी अस्पताल की बेसमेंट पार्किग में दवाओं और सहायक उपकरणों के लिए प्रयुक्त हो रहा गोदाम भी मरीजों की जिंदगी पर भारी पड़ा है। बताया जा रहा है कि अस्पताल के वातानुकूलित संयंत्र के करीब लगी आग का धुआं पाइपों के जरिये ऊपर की मंजिलों तक पहुंच गया और सो रहे लोग मौत के आगोश में आ गए।

आइसीयू एवं अन्य वार्डो में भर्ती किए गए गंभीर मरीजों को तो आंख खोलने का भी मौका नहीं मिला। मरीजों ने जब आंख खोली तो खुद को धुएं से घिरा पाया। चाहकर भी वे भाग नहीं सके। अंतत: अपनी बेड पर ही दम तोड़ने को मजबूर हो गए। बताया जा रहा है कि 190 बेड वाले अस्पताल में घटना के समय कुल 180 लोग मौजूद थे और इनमें तकरीबन 171 मरीजों की संख्या थी, जिनमें 26 महिलाएं भी थी। आग कितनी भयंकर थी, इसी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि उसे बुझाने के लिए फायर ब्रिगेड की 35 गाडि़यों का जत्था 14 घंटे तक मशक्कत करता रहा। तब जाकर आग पर नियंत्रण पाया जा सका। इस भयानक घटना के पीछे अस्पताल प्रबंधन की लापरवाही खुलकर सामने आई है। अग्निशमन विभाग की बात मानें तो आग लगने के डेढ़ घंटे बाद उन्हें सूचना दी गई। जब तक दमकलकर्मी मौके पर पहुंचते, आग की लपटें सबकुछ खत्म करने का इरादा बना चुकी थीं। इस लापरवाही की हद ही कहा जाएगा कि आग लगने के बावजूद सेंट्रल एयर कंडीशनिंग सिस्टम को बंद नहीं किया गया। नतीजा यह निकला कि बेसमेंट में रखे गए रसायनों, ऑक्सीजन गैस के सिलिंडरों और दवाओं में भी आग लग गई। आग से निपटने के लिए पूरे अस्पताल परिसर की पाइप लाइन के लिए घटना के समय पानी का भी इंतजाम नहीं था। जिस समय आग लगी, अस्पताल के सुरक्षाकर्मियों ने अस्पताल का मुख्य द्वार बंद कर दिया।

नतीजा यह निकला कि मदद पहुंचाने वाले लोग अस्पताल के अंदर पहुंच ही नहीं सके और न ही अंदर के लोग जान बचाने के लिए बाहर निकल सके। जान बचाने के लिए अस्पताल के भीतर के लोग जब मरीजों को लेकर छत पर पहुंचे तो वहां भी दरवाजा बंद मिला। ऐसे में लोगों के पास मृत्यु का वरण करने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा। गंभीर सवाल यह है कि क्या अस्पताल में नियुक्त सुरक्षाकर्मियों को आपातकाल जैसी परिस्थितियों से निपटने के लिए प्रशिक्षित किया गया था? उनके कार्य-व्यवहार को देखते हुए तो ऐसा नहीं लगता। अगर वे प्रशिक्षित होते तो निस्संदेह रूप से इस दुखदायी घटना को टाला जा सकता था या कुछ लोगों को मौत से बचाया जा सकता था। अग्निशमन विभाग के मंत्री द्वारा दावा किया गया है कि आमरी अस्पताल का फायर सेफ्टी लाइसेंस 2011 के शुरुआती महीनों में ही खत्म हो गया था और उसके नवीनीकरण के लिए विभाग द्वारा अस्पताल को चेतावनी दी गई थी। बेसमेंट को खाली करने का नोटिस दिए जाने के बावजूद बेसमेंट खाली नहीं किया गया। लेकिन अहम सवाल यह है कि जब आमरी अस्पताल के पास फायर सेफ्टी का लाइसेंस नहीं था और वह कानून की उपेक्षा कर रहा था तो फिर सरकारी प्रशासन ने मरीजों की जिंदगी के साथ खिलवाड़ करने की छूट अस्पताल प्रशासन को क्यों दे रखी थी? क्यों न इसे प्रशासन की ही नाकामी मानी जाए? यह महज संयोग नहीं है कि ममता सरकार अस्पतालों की दुर्दशा पर चुप्पी ओढ़ रखी है। देखा जा रहा है कि जब से ममता बनर्जी ने पश्चिम बंगाल में शासन की बागडोर संभाली है, वहां चिकित्सा क्षेत्र बुरे दौर से गुजर रहा है।

सरकार ठोस पहल करने के बजाए अपनी नाकामियों का ठीकरा पूर्ववर्ती सरकार पर फोड़ रही है। क्या चंद महीने पहले कोलकाता के नामी-गिरामी अस्पतालों में बड़ी संख्या में मरने वाले बच्चों के मामले में भी पूर्ववर्ती सरकार को ही जिम्मेदार माना जाएगा? सरकार की संवेदनहीनता ही कही जाएगी कि बच्चे मरते रहे और सरकार डॉक्टरों की लापरवाही और अस्पताल की बदहाली को नजरअंदाज करती रही। अस्पतालों में व्याप्त बदहाली को लेकर मीडिया में तूफान मचा, लेकिन सरकार के कान पर जूं तक नहीं रेंगी। फिर क्यों न माना जाए कि ममता सरकार ने एक जनवादी सरकार की खोल तो जरूर चढ़ा रखी है, लेकिन जनसेवा की कसौटी पर वह पूरी तरह खरा नहीं उतर रही है। बल्कि अपनी नाकामियों को ढंकने-तोपने का कुतर्क गढ़ रही है। क्या यह माना जाए कि सत्ता में आने के बाद ममता की प्राथमिकता बदल गई है या दीर्घकाल तक शासन करने वाले वामदल के सरकारी कैडर ममता के हाथ-पांव जकड़ रखे हैं? खैर जो भी हो, परिस्थितियों से जूझना ममता को ही होगा और यह भी विश्वास दिलाना होगा कि भविष्य में आमरी जैसी घटना दोबारा नहीं हो।

( अरविंद )

बहुस्तरीय उपचार की जरूरत – Corruption and Society


वर्तमान में देश की सबसे ज्वलंत समस्या और चर्चा का विषय है भ्रष्टाचार उन्मूलन और लोकपाल विधेयक. समाजसेवी अन्ना हजारे हों या पूर्व आईपीएस अधिकारी किरण बेदी सभी एकजुट होकर भ्रष्टाचार के विरुद्ध अभियान संचालित करते नजर आ रहे हैं. जंतर-मंतर पर अन्ना हजारे के आंदोलन ने पूरे देश को जागरुक करने में महती भूमिका का निर्वहन किया और अब ये अभियान अपना रंग दिखाने की तैयारी में है. सरकार लोकपाल विधेयक लाने की बात मान चुकी है और इसके लिए विशेष समिति का गठन भी कर दिया गया.

लेकिन अब जबकि इस अभियान का पहला चरण पूर्ण हो चुका है ऐसे में कुछ नए सवाल सिर उठा कर खड़े हो रहे हैं यथा क्या लोकपाल बिल जिस उद्देश्य से लागू होगा क्या वह उसे पूर्ण कर पाएगा? क्या लोकपाल कानून लागू होने के बाद जनता की अधिकांश समस्याएं हल हो जाएंगी या फिर आगे कुछ नए कानूनों की मांग की जाएगी?

निश्चित रूप से ये सवाल वाजिब हैं और इन सवालों पर व्यापक बहस की गुंजाइश है. जैसा कि अधिकांश लोगों को मालूम है कि देश में भ्रष्टाचार से निपटने के लिए विभिन्न कानून पहले से ही बने हुए हैं. आईपीसी की धाराएं तो हैं ही साथ मुद्रा विनियमन से संबंधित कानून भी लागू हैं. फिर भी ऊपर से लेकर नीचे तक भ्रष्टाचार सुरसा के मुख की भांति फैलता जा रहा है.

एक बारगी तो लगता है कि कठोर कानूनों द्वारा ही सारी समस्यायों पर विजय पायी जा सकती है लेकिन हकीकत की दास्तां बेहद दुखद है. भ्रष्टाचार को एक संस्कार की तरह अपने में समा कर व्यवहार करने वाले कभी भी प्रभावी रूप से भ्रष्टाचार पर रोक को स्वीकार नहीं कर सकते.  सही ढंग से देखा जाए तो भ्रष्टाचार एक मनोवृत्ति के रूप ढल चुका है. छोटे से छोटे कार्य कराने के लिए लोगों की जिस तरह भ्रष्टाचार को आश्रय देने की प्रवृत्ति बन चुकी है क्या उसे देखकर ये लगता है कि लोग वास्तविकता में भ्रष्टाचार विहीन समाज की कल्पना कर सकेंगे और भ्रष्टाचार के विरुद्ध जीवन पद्धति अपना सकेंगे.

चिंता की बात ये है कि अभी भी भ्रष्टाचार उन्मूलन के लिए केवल बयानबाजी और दिखावा ही ज्यादा हो रहा है. बचपन से लेकर किशोरावस्था तक जिस तरह के संस्कार विकसित किए जाने चाहिए उसका कहीं कोई उदाहरण नहीं दिखाई देता. अभिभावक अपने बच्चों में नैतिक संस्कार विकसित करने की बजाय उन्हें जीवन में सबसे ऊंचे पायदान पर खड़े होना सिखाते हैं. जबकि ये दोनों काम एक साथ किए जाने चाहिए. बेहतर नागरिक बनाने की दिशा में कहीं कोई प्रयास नहीं किया जाता और बेहतर नागरिक का पैमाना केवल भौतिक समृद्धि मान लिया गया है.

संसाधन कम हैं, महत्वाकांक्षाएं असीमित तो स्वाभाविक है कि सबकी सारी ख्वाहिशें पूरी नहीं हो सकतीं. भारतीय विचारधारा संतोष और धैर्य को प्रश्रय देती है लेकिन आज की पीढ़ी सब कुछ एक झटके में पा लेना चाहती है. परिणामस्वरूप अनैतिक रास्तों को अपनाना वक्ती जरूरत बन गया है. तो फिर कैसे रुकेगा भ्रष्टाचार. व्यवस्था में सुरक्षित पायदान पर खड़े लोग तो अपनी जरूरतें आसानी से पूरी कर लेते हैं जबकि वंचित समुदाय एक-एक तृण के लिए संघर्ष में फंसा रहता है. ऊपरी स्तर पर जारी भ्रष्टाचार के दानव को देख उसके मन में भी ख्वाहिशें जन्म लेती हैं और एन केन प्रकारेण वह भी अपनी इच्छा पूरी करना चाहता है. कुल मिलाकर एक ऐसे चक्रव्यूह का निर्माण होने लगता है जहॉ पर एक-दूसरे पर अविश्वास और संदेह की भावनाएं गहरी होती जाती हैं.


वाकई प्रश्न अनुत्तरित है कि कैसे बदलाव लाया जाए तो एक बात साफ तौर पर कही जा सकती है कि परिवर्तन एकांगी ना होकर बहुस्तरीय हों और व्यवस्थागत खामियां दूर करने के साथ व्यक्तिगत और सामाजिक स्तर पर व्याप्त बुराइयों पर भी लगाम लगाने की कवायद हो. नैतिक शिक्षा को दृढ़ता से लागू किया जाए ताकि बचपन से ही बुराइयों लड़ने की प्रेरणा मिल सके. विषय व्यापक है इसलिए उपचार भी व्यापक होना चाहिए जिससे इंसानी मन को ही बुरी प्रवृत्तियों में संलग्न होने से बचाया जा सके.