शुक्रवार, 23 मई 2014

दोहरे नजरिये का प्रमाण

भगवान राम के चित्र पर उभरी आपत्ति को एक विशेष मानसिकता के प्रमाण के रूप में देख रहे हैं

चुनावी मंच पर रामजी की फोटो लगी होना चुनाव आयोग को ठीक नहीं लगा। यह विषय नैतिक है या राजनीतिक, यह इस पर निर्भर करेगा कि राम को आप ईश्वर मानते हैं या पूर्वज? मिथक या यथार्थ? यह कई कारणों से गंभीर प्रश्न है, जिसे हल्के से लेने से ही कई समस्याएं बनी और चल रही हैं। इसलिए इसे सभी संदर्भो में सामने रखना चाहिए। सर्वोच्च न्यायालय में सरकारी वकील हलफनामे में कहते हैं कि राम एक परिकल्पना हैं। वैसा कोई मनुष्य कभी हुआ ही नहीं। वामपंथी इतिहासकारों ने 1989 में सामूहिक रूप से पुस्तिका प्रकाशित करके भी ठीक यही कहा था। अगर ऐसा है तो चुनावी मंच पर एक काल्पनिक छवि लगने पर क्यों आपत्ति है? कारण खोजने पर मिलता है कि राम तो हिंदुओं के भगवान हैं! यानी धार्मिक प्रतीक हैं। इस प्रकार चुनावी मंच पर धार्मिक प्रतीक लाकर 'सांप्रदायिक' संदेश दिया गया। इसलिए आपत्ति होनी चाहिए। तमाम मीडिया खबरों में इसी तरह का संकेत आया है।

प्रश्न इसलिए गंभीर है, क्योंकि हाल में वेंडी डोनीगर की 'वैकल्पिक हिंदू इतिहास' पुस्तक में राम का तरह-तरह से मजाक बनाया गया। उससे पहले दिल्ली विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में राम के बारे में 'तीन सौ रामायण' के अंतर्गत कई ऊल-जुलूल बातें पढ़ाई जाती रही थीं। उन प्रसंगों में पूरा सरकारी तंत्र तटस्थ था। मानो यह किसी लेखिका, किसी संगठन, विश्वविद्यालय आदि का निजी मामला हो, लेकिन क्या यह उचित है कि हमारा सरकारी तंत्र एक ही विषय पर मनमाना रुख अपनाए? बल्कि कहना चाहिए कि सदैव हिंदू-विरोधी रुख अपनाए? क्योंकि लंबे समय से देखा जा रहा है कि राम को काल्पनिक मानें या वास्तविक, दोनों ही स्थितियों में सरकारी-सेक्युलर रुख हिंदू-विरोधी ही होता है। क्योंकि राम काल्पनिक पात्र हैं इसलिए उनके बारे में हर तरह की निंदा, आलोचना छात्रों, युवाओं को पढ़ाई जा सकती है। यह सेक्युलरपंथ की 'अकादमिक स्वतंत्रता' हुई, लेकिन तब रामायण, महाभारत को क्लासिक, ऐतिहासिक ज्ञान-ग्रंथ मानकर स्कूल, कॉलेज, विश्वविद्यालय में पढ़ाया भी जाना चाहिए। अन्य धर्मो के ईश्वरीय अवतारों के अनुयायियों के लिए पूरा मामला पलट जाता है। मा‌र्क्सवादियों या वेंडी जैसी रंग-बिरंगी कथाएं गढ़कर उनका मजाक नहीं उड़ा सकते। अल्पसंख्यक शिक्षा संस्थानों को मिले विशेषाधिकार के कारण सरकारी अनुदान से उनके बारे में पूर्णत: मजहबी शिक्षाएं मुस्लिम और ईसाई बच्चों, युवाओं को नियमित देते हैं। भारतीय संविधान की धारा 28-30 का यही हिंदू-विरोधी अर्थ कर दिया गया है।

रामजी पर चुनाव आयोग की आपत्ति पुन: इस खुले अन्याय को देखने, समझने का अवसर है कि स्वतंत्र भारत में हिंदू समुदाय को दोहरा भेदभाव झेलना पड़ता है। उनके देवी-देवताओं और पुस्तकों को सरकारी तंत्र न समान रूप से धार्मिक आदर देता है, न समान शैक्षिक अवसर। जब धार्मिक सम्मान की बात हो, जैसे अयोध्या-विवाद या 'तीन सौ रामायण' विवाद, तब मामले को अकादमिक, कानूनी बताकर हिंदुओं को अपने हाल पर छोड़ दिया जाता है, लेकिन जब शिक्षा संस्थानों में गीता, उपनिषद जैसे कालजयी दार्शनिक ग्रंथों को पढ़ाने की बात हो तो उतनी ही कड़ाई से उसे प्रतिबंधित किया जाता है कि वह तो 'सांप्रदायिक' शिक्षा होगी। दूसरी ओर इन्हें ज्ञान-भंडार की मान्यता भी नहीं, क्योंकि स्कूली से लेकर विश्वविद्यालयी शिक्षा तक किसी विषय में इन ग्रंथों को पढ़ा-पढ़ाया नहीं जाता। दर्शन, राजनीति, मनोविज्ञान, इतिहास, आदि सभी विषयों में सारी अध्ययन-सूची पश्चिमी पुस्तकों से भरी है। भारत में हिंदू समुदाय के साथ हो रहे इस दोहरे अन्याय को ईसाइयत के उदाहरण से समझें। जैसा 'द विंची कोड' आदि उदाहरणों से स्पष्ट है, यूरोपीय-अमेरिकी जगत बाइबिल और ईसाई कथा-प्रसंगों की आलोचनात्मक व्याख्या करता है। किंतु ईसाइयत का पूरा चिंतन, चर्च और वेटिकन के विचार, भाषण, प्रस्ताव, आदि उनकी शिक्षा प्रणाली का अभिन्न अंग हैं। ईसाइयत पश्चिमी शिक्षा में उसी तरह स्थापित है जैसे भौतिकी, अर्थशास्त्र आदि हैं। वही पढ़कर हजारों युवा उन्हीं कॉलेजों, विश्वविद्यालयों से स्नातक होते हैं जैसे कोई अन्य विषय पढ़कर। तदनुरूप उनकी विशिष्ट पत्र-पत्रिकाएं, सेमिनार, सम्मेलन होते हैं। ईसाइयत संबंधी विमर्श, शोध, चिंतन के अकादमिक जर्नल ऑक्सफोर्ड, सेज जैसे प्रसिद्ध प्रकाशनों से प्रकाशित होते हैं। अत: यदि यूरोप ईसाइयत की कथाओं, ग्रंथों की आलोचनात्मक व्याख्या करता है तो पहले उसके संपूर्ण अध्ययन को सहज विषय के रूप में शिक्षा-प्रणाली में सम्मानित आसन देता है। स्वयं वेंडी शिकागो विश्वविद्यालय के 'डिवीनिटी स्कूल' में ही प्रोफेसर हैं। भारतीय विश्वविद्यालयों में ऐसा कोई विभाग ही नहीं है। धर्म के नाम पर हमारे सभी महान ग्रंथों औपचारिक शिक्षा से बाहर कर दिया गया है। इसीलिए गीता प्रेस, गोरखपुर के संपूर्ण कार्य को अकादमिक जगत अजूबे की तरह देखता है। निश्चय ही ऐसी नीति चलाने के लिए स्वतंत्र भारत के शासकों ने जनता से कभी कोई जनादेश नहीं लिया। हिंदू जनता पर यह हीन मानसिकता विदेशी शासकों ने जबरन थोपी। अभी राम के चित्र पर संज्ञान लेकर चुनाव आयोग ने उसी मानसिकता की झलक दी है, जो हिंदू धर्म को भी पश्चिमी 'रिलीजन' के चौखटे में रखकर देखती है। अन्यथा राम तो हिंदू के लिए मर्यादा-पुरुषोत्तम हैं। जीवन के हर क्षेत्र में मर्यादित आचरण के आदर्श-पुरुष। यह आचरण-केंद्रित धर्म है, जो किसी के विरुद्ध होता ही नहीं। ऐसी छवि और धर्म को मतवादी, मजहबी विश्वासों के समकक्ष रखकर सांप्रदायिक-सेक्युलर का सारा वर्गीकरण हिंदू-विरोधी रहा है। आयोग को भी यह देखना चाहिए।

नरेंद्र मोदी ने कई इंटरव्यू में बार-बार दोहराया है कि वह हिंदू-मुस्लिम, सेक्युलर-सांप्रदायिक वर्गीकरण के जाल से मुक्त होकर सब कुछ करेंगे, उनके लिए केवल न्याय-अन्याय का संदर्भ रहेगा और वह 125 करोड़ भारतवासियों को एक नजर से देखेंगे। इसलिए मोदी को भी नोट करना चाहिए कि देश के 90 करोड़ हिंदुओं को धर्म और शिक्षा के मामले में हीन दर्जा देकर एक स्थाई अन्याय चल रहा है।

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