दुनिया के 90 प्रतिशत कुपोषित बच्चे 36 देशों में रहते हैं, जिनमें से
भारत भी एक है। इससे ज्यादा अपफसोस की बात यह है कि कुपोषण के मामले में
भारत पौष्टिकता के पैमाने के निचले पायदान पर अंगोला, कैमरून, कांगो और यमन
जैसे देशों के साथ है। अब दूसरा पहलू देखिए कि बांग्लादेश, पाकिस्तान और
नेपाल भी इस मामले में हमसे बेहतर स्थिति में हैं। गौर करने वाली बात यह है
कि हम इन सभी से ज्यादा तेज गति से आर्थिक तरक्की कर रहे हैं। यानी दो
दशकों के दौरान भारत ने जो आर्थिक विकास किया है वह बच्चों को पोषित करने
में तब्दील नहीं हो सका है। यही कारण है कि भारत में लगभग आधे बच्चे
अंडरवेट और अपनी उम्र के अनुरूप विकसित नहीं हैं।
70
प्रतिशत से ज्यादा महिलाएं और बच्चे गंभीर पौष्टिकता की कमी का सामना कर
रहे हैं, जिसमें एनीमिया भी शामिल है। यह तथ्य विश्व के पहले पौष्टिक
पैमाने न्यूट्रीशन बैरोमिटर में सामने आया है, जिसे सेव द चिल्ड्रन ने 20
सितंबर को ही जारी किया है। इस रैंकिंग में 36 देशों की सरकारों की
परपफॉर्र्मेस का मूल्यांकन किया गया था। इस संस्था ने 36 देशों की सरकारों
की इस आधार पर समीक्षा की है कि वे कुपोषण को दूर करने के प्रति कितनी
समर्पित हैं और उसके नतीजे क्या निकले हैं। अध्ययन में इस बात की भी तुलना
की गई है कि सरकारें कुपोषण को दूर करने और बाल मृत्यु दर को कम करने के
लिए किस किस्म के प्रयास कर रहीं हैं। अध्ययन में यह बात सामने आई है कि
भारत का शानदार आर्थिक विकास अधिकतर बच्चों को कुपोषण से बचाने में नाकाम
रहा है।
आंकड़ों
के अनुसार भारत के आधे से ज्यादा बच्चे अपनी आयु के अनुरूप वजन और कद भी
हासिल नहीं कर सके हैं, जबकि 70 फीसद से अधिक महिलाओं व बच्चों को उन
बीमारियों का सामना करना पड़ रहा है, जो सीधे कुपोषण से जुड़ी हैं। यह पहला
अवसर नहीं है, जब भारत की सामाजिक सच्चाई के संदर्भ में इतनी निराशाजनक
तस्वीर सामने आई है। निश्चित रूप से यह शर्म की बात है कि जो देश आर्थिक
दृष्टि से प्रगति कर रहा हो और अंतरराष्ट्रीय मंच पर महत्वपूर्ण खिलाड़ी
बनने का सपना देख रहा हो, उसी देश में कुपोषण की स्थिति अफ्रीका के गरीब
देशों जितनी ही बदतर हो। दरअसल, तथ्य यह है कि अगर देश की चिंताजनक गरीबी
को दूर करने की कोशिशें नहीं की जाएंगी तो न सिर्फ हमारा आर्थिक विकास
प्रभावित होगा, बल्कि हमारी महत्वाकांक्षाएं भी धरी की धरी रह जाएंगी। सेव द
चिल्ड्रन के अध्ययन में बताया गया है कि किस तरह हमारे बच्चों को भरपेट
भोजन नहीं मिल पा रहा है।
अनेक
सरकारी योजनाएं भी गरीबों में स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं को दूर नहीं कर
पाई हैं। सवाल यह है कि इस समीक्षा पर हमारी प्रतिक्रिया क्या होनी चाहिए?
गौरतलब है कि जब कुछ सप्ताह पहले यह रिपोर्ट सामने आई थी कि गुजरात में
महिलाएं और बच्चे कुपोषण का शिकार हैं तो गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र
मोदी ने एक अंतरराष्ट्रीय पत्रिका को दिए साक्षात्कार के दौरान ऐसी गैर
जिम्मेदाराना बात कही थी कि गुजरात की लड़कियां फिगर-कॉन्शियस हैं, इसलिए
कम खाने की वजह से कुपोषण का शिकार हो रही हैं। जबकि तथ्य यह है कि गरीबी
के कारण गुजरात और देश के अन्य राज्यों में बच्चे और महिलाएं कुपोषण की
शिकार हो रही हैं और स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं से जूझ रही हैं। इसलिए
हमारी प्रतिक्रिया न तो नरेंद्र मोदी की तरह गैर जिम्मेदाराना होनी चाहिए
और न ही नकारात्मक। सरकार को इस अध्ययन को गंभीरता से लेना चाहिए और देश के
गरीबों का पेट भरने की जो चुनौती है उसे स्वीकार करना चाहिए। अगर
भ्रष्टाचार की वजह से सरकारी योजनाओं का लाभ गरीबों तक नहीं पहुंच पा रहा
है तो इस भ्रष्टाचार के खिलाफ ही पहले सख्त कदम उठाने चाहिए। दरअसल,
रिपोर्ट में ऐसा कुछ नया नहीं कहा गया है, जिसे लोग जानते न हों।
बिना
रिपोर्ट के भी हर व्यक्ति यह जानता है कि गरीब घरों के बच्चों को रईस घरों
के बच्चों की तुलना में कुपोषण के कारण कद और वजन में कमी आने का खतरा
दोगुना ज्यादा होता है, लेकिन चिंता की बात यह भी है कि रईस 20 प्रतिशत
जनसंख्या में भी 5 में से एक बच्चा कुपोषित है। उन्हें तो भरपेट खाना मिलता
है। तब वे क्यों कुपोषण के शिकार हो रहे हैं? इसकी वजह पौष्टिक भोजन की
कमी और जंक फूड। इसलिए यह भी जरूरी है कि जंक फूड पर नियंत्रण करने के कदम
उठाए जाएं और बच्चों को पौष्टिक भोजन खाने के लिए प्रेरित किया जाए। यह सब
तभी हो सकता है जब सरकार अपनी योजनाओं को ईमानदारी से लागू करने की
इच्छाशक्ति दिखाए। सेव द चिल्ड्रन की रिपोर्ट में यह बात सामने आई है कि
सरकार की इच्छाशक्ति में कमी है और इसलिए नतीजे भी आशानुरूप सामने नहीं आ
रहे हैं। गौरतलब है कि 1990 में 120 लाख बच्चे अपने पांचवे जन्मदिन से पहले
ही मर गए थे। इस संख्या को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर 2011 में कम करके 69 लाख
तक ले आया गया है। इस सकारात्मक ट्रेंड के बावजूद बच्चों में कुपोषण की
समस्या को दूर करने के प्रयास बहुत कमजोर रहे हैं।
2011
में जो कुल बाल मृत्यु हुईं, उनमें से एक तिहाई यानी 23 लाख कुपोषण की वजह
से ही हुईं। हालांकि सेव द चिल्ड्रन ने अपनी रिपोर्ट में भारत के पड़ोसी
बांग्लादेश, पाकिस्तान और नेपाल की भी समीक्षा की है। सरकार को गौर करना
चाहिए कि इस समस्या को दूर करने में इन देशों की स्थिति भारत से कहीं बेहतर
है। भारत अपनी स्वास्थ्य सेवाओं पर बहुत कम खर्च करता है, जो ठीक नहीं है।
ध्यान रहे कि 12वीं पंचवर्षीय योजना में जीडीपी का मात्र 1.67 प्रतिशत
स्वास्थ्य सेवाओं के लिए निर्धरित किया गया है। शायद यही वजह है कि रिपोर्ट
में चेतावनी दी गई है कि भारत ने अगर पोषण और स्वास्थ्य पर जल्द उचित कदम
नहीं उठाए तो वह बाल मृत्यु दर के संदर्भ में मिलेनियम विकास लक्ष्य हासिल
नहीं कर पाएगा। इस बात से किसी को इन्कार नहीं हो सकता कि जो देश तरक्की
करते हैं, वे अपने नागरिकों, विशेषकर बच्चों के संतुलित आहार और स्वास्थ्य
पर खास ध्यान रखते हैं, लेकिन बदकिस्मती से हमारे देश में इन दोनों ही
चीजों को वरीयता पर नहीं लिया जा रहा है। इसलिए सामाजिक मानकों से संबंधित
जो भी अंतरराष्ट्रीय रिपोर्ट समाने आती है, उसमें हमारी स्थिति शर्मनाक ही
दर्शाई जाती है।
हम
ऐसी रिपोर्ट्स पर नकारात्मक प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं, जबकि हमारा
प्रयास स्थितियों को बेहतर बनाना होना चाहिए। ऐसा नहीं है कि अपने देश में
योजनाएं नहीं बनाई जातीं। स्वास्थ्य समस्याओं को दूर करने के लिए राष्ट्रीय
ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन तैयार किया गया, लेकिन ग्रामीणों को कोई विशेष लाभ
नहीं मिल सका। कारण कि योजना का अधिकतर पैसा भष्टाचार की भेंट चढ़ गया।
इसलिए जब तक भष्टाचार पर अंकुश नहीं लगाया जाएगा, कुपोषण जैसी गंभीर
समस्याओं से नहीं निपटा जा सकेगा।
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