बेंगलूर
स्थित राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य एवं तंत्रिका विज्ञान संस्थान यानी
निमहंस को राष्ट्रीय महत्व के संस्थान का दर्जा देने वाले एक विधेयक को
हाल ही में राज्यसभा ने मंजूरी दे दी। इसकी मांग लंबे समय से हो रही थी।
निमहंस दक्षिण एशिया का सबसे बड़ा मानसिक स्वास्थ्य और तंत्रिका विज्ञान
संस्थान है, जिसमें 852 बिस्तर हैं। यह दर्जा मिल जाने के बाद निमहंस अपनी
जरूरतों के मुताबिक पाठ्यक्रम, शिक्षकों और सीटों की संख्या तय कर सकेगा।
इससे मनोचिकित्सकों की संख्या बढ़ाने में मदद मिलेगी। इसके साथ ही यह एक
वैधानिक और स्वायत्त संस्था भी हो जाएगी। ऑटिज्म और मिर्गी समेत विभिन्न
मानसिक और तंत्रिका संबंधी रोगों के इलाज के लिए हमारे देश में जरूरत को
देखते हुए डॉक्टरों की बेहद कमी है।
देश में
मानसिक स्वास्थ्य का क्षेत्र कितना उपेक्षित है, यह इस बात से जाहिर होता
है कि मौजूदा मनोरोगियों को इलाज मुहैया कराने के लिए फिलहाल महज 4000
मनोचिकित्सक ही उपलब्ध हैं, जबकि इसके लिए जरूरत 11,500 मनोचिकित्सकों की
है। डॉक्टरों के अलावा नर्स समेत दीगर स्टाफ के मामले में भी कमोबेश यही
हालात हैं। एक अरब से ज्यादा आबादी वाले हमारे देश में वैसे तो हर तरह की
बुनियादी सुविधाएं दम तोड़ रही हैं, लेकिन स्वास्थ्य सुविधाओं का हाल और
भी बुरा है। ऐसा लगता है मानो जन स्वास्थ्य कभी हमारे नीति निर्माताओं के
एजेंडे में ही न रहा हो। खासकर, मानसिक स्वास्थ्य के मामले में तो सरकार
पूरी तरह लापरवाह है। मानसिक स्वास्थ पर सरकारों की यह उदासीनता आंकड़ों
में साफ झलकती है। मौजूदा मनोचिकित्सकों की संख्या के हिसाब से देखें तो
हमारे यहां प्रत्येक 3 लाख लोगों के लिए सिर्फ एक मनोचिकित्सक है।
ग्रामीण
इलाकों में तो यह आंकड़ा और भी ज्यादा बदतर हो जाता है, जहां 10 लाख लोगों
पर केवल एक मनोचिकित्सक है। हालात ये हैं कि 15 करोड़ मानसिक रोगियों
में से आधे तो कभी मनोचिकित्सक तक पहुंच ही नहीं पाते। और तो और गंभीर
मनोरोगी अस्पताल तक पहुंच पाएं, यह भी उतना आसान नहीं, क्योंकि इतने बड़े
देश में अभी तक सिर्फ 26 मानसिक अस्पताल हैं, जो आबादी के लिहाज से बेहद
कम हैं। मानसिक स्वास्थ्य पर सरकार कितनी संजीदा है, इस बात का अंदाजा
राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य कार्यक्रम की विवेचना से हो जाता है। वर्ष
1982 में शुरू हुए इस महत्वाकांक्षी कार्यक्रम के तहत सरकार ने प्रत्येक
जिला स्तर पर कम से कम एक मनोचिकित्सक की उपलब्धता सुनिश्चित करने का
लक्ष्य रखा था, लेकिन देश के 604 जिलों में से अब तक आधे जिले भी कवर नहीं
हो पाए हैं। कार्यक्रम को अमलीजामा पहनाने का काम बेहद धीमा चल रहा है।
इसके लिए सरकार और प्रशासकीय मशीनरी दोनों ही जिम्मेदार हैं।
2007-08
में इस मद में 70 करोड़ रुपये रखे गए, लेकिन इसे मानसिक स्वास्थ्य के
प्रति प्रशासन की उपेक्षा कहें या लापरवाही इस रकम का सिर्फ 15 करोड़ ही
खर्च हो पाया। यानी काम पूरा नहींहो पाने के कारण काफी पैसा बचा रह गया।
यदि काम गंभीरता से होता, तो इसका फायदा मनोरोगियों को भी मिलता। सरकार
ने राष्ट्रीय मासिक स्वास्थ कार्यक्रम शुरू तो कर दिया, मगर न तो इसकी
मॉनीटरिंग की कोई व्यवस्था की और न ही यह देखना गवारा समझा कि इस
कार्यक्रम के लिए जो बजट दिया जा रहा है, वह पर्याप्त भी है या नहीं। मिसाल
के तौर पर सरकार ने 11वीं पंचवर्षीय योजना में 350 नए जिलों को इस
कार्यक्रम के तहत लाने की योजना बनाई। योजना के तहत लक्ष्यों को हासिल करने
के लिए 2008-09 में 205 करोड़ रुपये की जरूरत थी, लेकिन बजट में केवल 70
करोड़ रुपये ही रखे गए। जाहिर है ऐसे में बाकी छूटे हुए जिले कैसे कवर हो
पाएंगे, इसका अंदाजा भी अंदाजा लगाया जा सकता है।
एक तरफ
सरकार मनोरोगियों के लिए पर्याप्त स्वास्थ्य तक सुविधाएं मुहैया नहीं करा
पा रही है, तो दूसरी तरफ कुछ ऐसे कानून बना रही है, जिनसे मानसिक रोगियों
की जिंदगी भविष्य में और भी दुश्वार हो जाएगी। नए राष्ट्रीय स्वास्थ सेवा
कानून के मसौदे में कुछ इस तरह के प्रावधान किए जा रहे हैं, जिनसे मानसिक
रोगियों के मानवाधिकार ही खतरे में पड़ जाएंगे। मसलन अगर यह मसौदा मंजूर
हो गया, तो सभी मनोरोगियों को इलाज लेने से इन्कार करने का अधिकार होगा,
फिर चाहे उनकी बीमारी कितनी भी गंभीर क्यों न हो। मसौदे में यह बात भी
जोड़ी गई है कि जरूरत पड़ने पर आपातकालीन हालात में मनोरोगियों का इलाज
करने के लिए परिवार के सदस्यों की रजामंदी की भी कोई वैधता नहीं रहेगी।
एक लिहाज से देखा जाए तो मानसिक स्वास्थ्य को लेकर सरकार का नजरिया अब भी
ठीक नहीं है। देश में दिन प्रतिदिन बढ़ते मनोरोगी, सरकार की जानलेवा
उपेक्षा का ही नतीजा हैं। अगर मानसिक स्वास्थ के प्रति सरकार का गैर
जिम्मेदाराना रवैया आगे भी जारी रहा, तो यह समस्या आगे चलकर और भी ज्यादा
खतरनाक हो जाएगी।
यह बात
हमारी चिंता का सबब होना चाहिए कि जीवन शैली में तेजी से आए इन बदलावों के
चलते अब स्कूल-कॉलेजों में पढ़ने वाले विधार्थी भी मानसिक रोगियों के
दायरे में आने लगे हैं। विधार्थियों के मानसिक स्वास्थ की बेहतरी के लिए
जहां स्कूल, कॉलेज में बड़े पैमाने पर काउंसलिंग की जरूरत है, वहीं ज्यादा
से ज्यादा अस्पतालों में मानसिक चिकित्सा विंग के तहत पर्याप्त अनुदान
देने की भी आवश्यकता है। पर्याप्त बजट के अभाव में, मनोरोगियों के
अस्पतालों में न तो जरूरत के मुताबिक डॉक्टर हैं और न ही स्वास्थ
सुविधाएं। एक बात और, स्वास्थ्य बीमा की मानसिक रोगियों को सबसे ज्यादा
जरूरत है, लेकिन विडंबना है कि वही स्वास्थ्य बीमा दायरे से बाहर हैं।
कोशिश यह होनी चाहिए कि अस्पतालों में इन रोगियों को इलाज भी मुफ्त मिले।
हम सिर्फ इस बात को लेकर थोड़े खुश हो सकते हैं कि देर से ही सही, लेकिन
सरकार को मानसिक रोगियों की याद तो आई है। सरकार ने देश में मनोचिकित्सकों
की कमी को दूर करने के लिए और भी कई फैसले किए हैं। इनमें रांची और असम के
तेजपुर स्थित मानसिक स्वास्थ्य संस्थाओं का उन्नयन और कुछ क्षेत्रीय
मेडिकल कॉलेजों की पहचान कर उनमें मनोचिकित्सकों को प्रशिक्षण दिलवाने की
सुविधाओं का विस्तार करना आदि शामिल हैं।
इन
संस्थानों और कॉलेजों के लिए सरकार पर्याप्त पैसा और उचित प्रशिक्षण भी
मुहैया कराएगी। समाज में मनोरोगियों के प्रति एक स्वस्थ नजरिए के निर्माण
से ही हालात में बदलाव आ सकते हैं। मानसिक विकलांगों को हिकारत से नहीं,
बल्कि सहानुभूति से देखे जाने की जरूरत है। मनोरोग जन्म से से नहीं होते,
ये परिस्थितिजन्य होते हैं, जो किसी के साथ भी हो सकती हैं और इन
परिस्थितियों के लिए कहीं न कहीं हमारा समाज भी जिम्मेदार है।
(लल्लूजी )
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