रविवार, 30 सितंबर 2012

हादसों में तब्दील होती आस्था

मथुरा के बरसाना स्थित राधारानी मंदिर और झारखंड के देवघर में एक धार्मिक आश्रम में पिछले दिनों मची भगदड़ में दर्जन भर बच्चे, बूढ़े और महिलाएं मारे गए। अपने देश में भगदड़ और परिणाम स्वरूप होने वाली मौतें कभी हमारे विमर्श का हिस्सा नहीं बन पाती है। संसद में 25 फरवरी 2009 को तबके गृहमंत्री द्वारा दी गई जानकारी के अनुसार देश में पिछले चार वर्षो में धार्मिक स्थलों पर भगदड़ में मरने वालों की तादाद 686 हैं। इस सूचना की तिथि के बाद जनवरी 2011 तक धार्मिक स्थलों पर 317 यानी 2005 से कुल 773 लोग भगदड़ में मारे गए हैं।

जनवरी 2011 के बाद हरिद्वार में गायत्री परिवार के यज्ञ और दूसरे कुछेक धार्मिक स्थलों में भगदड़ में मारे गए लोगों की तादाद शामिल नहीं है। न ही गंभीर रूप से घायलों की संख्या शामिल है। अपने देश में धार्मिक स्थलों के अलावा मोटे तौर पर रेलवे स्टेशनों और सेना पुलिस में भर्ती के दौरान भगदड़ में मारे जाने की घटनाएं हुई हैं। 2002 में लखनऊ के रेलवे स्टेशन के अलावा 30 अक्टूबर 2007 को मुगलसराय और दिल्ली के स्टेशनों में घटनाएं हुई थीं। एक घटना 2005 में तमिलनाडु में प्राकृतिक आपदाओं में बुरी तरह प्रभावित लोगों के कैंप में हुई थी। इस तरह भगदड़ की घटनाओं में 95 प्रतिशत घटनाएं और उनमें मारे जाने वाले 95 प्रतिशत धार्मिक स्थलों के जलसों में शामिल लोग होते हैं। सरकार के पास ये आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं कि भगदड़ में मारे जाने वाले लोगों में विकलांग, बूढ़े, महिला, बच्चे कितने हैं। लेकिन वर्ग विभाजित समाज में नियम की तरह ऐसी मानवजनित घटनाओं में सबसे ज्यादा शिकार क्रमश: कमजोर माना जाने वाला समुदाय होता है।


मोटे तौर पर ऐसी घटनाओं की सबसे ज्यादा शिकार महिलाएं और बच्चे हुए हैं। भगदड़ के वैचारिक पहलू यहां इस प्रश्न पर विचार किया जाना चाहिए कि क्या भगदड़ का संबंध विचारधारा से है? भगदड़ की घटनाओं में जमा कमजोर लोग तमाम तरह की आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक असुरक्षाओं के बोध से ग्रस्त रहते हैं। भगदड़ की घटनाओं को व्यवस्थागत खामियों के आलोक में देखा जाता है। लिहाजा, ये घटनाएं विचार के प्रश्न के रूप में सामने नहीं आ पाती हैं। केंद्र सरकार यह कहकर अपनी जिम्मेदारी पूरी कर लेती है कि कानून एवं व्यवस्था प्रदेश सरकारों का विषय है। राज्य सरकारों का यह आलम है कि भगदड़ की घटनाओं के बाद जांच की एक प्रक्रिया शुरू की जाती है और फिर ऐसी घटनाओं को भाग्य का खेल और भगवान की मर्जी मानकर उन्हें भुला दिया जाता है। सरकारों की तो बेपरवाही का अंदाजा इससे लग सकता है कि ओडिशा में की गई ऐसी एक जांच रिपोर्ट का पता ही नहीं चल रहा है।

आखिर सरकारों पर भगदड़ की घटनाएं और मौतें असर क्यों नहीं डाल पाती हैं? भगदड़ और उसमें होने वाली मौतों का संबंध भीड़ को नियंत्रित करने या नहीं कर पाने की प्रशासनिक विफलता से ही नहीं जुड़ा हुआ है। इसका एक विचार पक्ष है, जो न तो ऐसी घटनाओं को रोक पा रहा है और न ही सरकारों व धार्मिक स्थलों की देखरेख करने वालों पर ऐसी घटनाओं को रोकने के लिए दबाव बना पा रहा है। समाज का प्रभावशाली हिस्सा किसी घटना में प्रभावित होता है, तब तो वह विचार करने योग्य विषय का रूप ले भी पाता है। वरना, उसकी कोई परवाह ही नहीं की जाती है। आमतौर पर धार्मिक स्थलों पर संपन्न और प्रभावशाली लोगों के लिए सुरक्षित स्थान भी बनते रहे हैं। भगदड़ वाली घटनाओं में देखें तो साधारण मनुष्य के प्रति पूरी धार्मिक प्रक्रिया में एक नृशंसता दिखती है और मंदिर के कर्ताधर्ता उसके प्रत्यक्ष पोषक के रूप में सामने दिखाई देते हैं। यह विचार भी किया जाना चाहिए कि क्या ये घटनाएं धार्मिक स्थलों में होने वाले कर्मकांडों से जुड़ी होती हैं?

भगदड़ में मौत की घटनाओं का इस स्तर का विश्लेषण जरूर किया जाना चाहिए। हमारे विश्लेषण में यह पाया गया है कि कर्मकांडों का भगदड़ और उसमें होने वाली कमजोर वर्ग के सदस्यों की मौत का रिश्ता हैं। उदाहरण के लिए 26 जनवरी 2005 को महाराष्ट्र के सतारा जिले में स्थित मंधरा देवी के मंदिर में 291 लोग मारे गए थे और तब 98 लोगों के घायल होने की जानकारी दी गई थी। बाद में घायलों में कितने और लोग मरे, यह पता करने की कोशिश नहीं की गई। सरकार के अनुसार शकरबारी के पूर्णिमा के मौके पर जमा श्रद्धालुओं में एक महिला अपनी टोकरी में कर्मकांड के लिए सामग्री ले जा रही थी। वह फिसल गई और टोकरी से तेल गिर गया। जमीन पहले से ही नारियल के पानी की वजह से फिसलन भरी हो गई थी। एक के बाद दूसरे श्रद्धालु के उस पर गिरने के बाद भगदड़ में इतनी जानें चली गई।

देवघर की घटना के जो कारण बताए जा रहे हैं, यदि उसे देखें तो जैसे 2005 की कहानी भर दोहराई जा रही हैं। 2003 में अगस्त-सितंबर के दौरान नासिक में आयोजित कुंभ मेले में 118 लोग मारे गए। सरकार के अनुसार यह घटना इसीलिए हुई, क्योंकि कुछ साधु-महंथों ने हाथियों और गाडि़यों पर सवार होकर जुलूस निकाले और वे सवारी पर बैठे श्रद्धालुओं के बीच प्रसाद, फूल और सिक्के उछाल रहे थे। उन साधु-महंथों ने ऐसा जुलूस निकालने के लिए किसी से इजाजत लेने की भी जरूरत महसूस नहीं की। राजस्थान के चामुंडा में 215 लोग मारे गए थे और मथुरा की घटना के जो कारण बताए जा रहे हैं, वह वहां भी बताए गए थे। कर्मकांड की भूमिका दूसरे देशों में धार्मिक स्थलों पर भगदड़ की घटना की भी चर्चा की जा सकती है। इस्लामिक धार्मिक स्थल मीना में 1998 में भारत के 32 हजयात्री मारे गए थे। वर्ष 2006 में मक्का में भी भगदड़ की घटनाएं हुई थी। शैतान को पत्थर मारने की रस्म के दौरान हादसा हुआ था। इन घटनाओं के साथ उपरोक्त घटनाओं के कारणों का विश्लेषण इस रूप में भी सामने आ सकता है कि कर्मकांड इसमें मुख्य हैं। यदि ऐसी घटनाओं के दूसरे कारणों पर गौर किया गया है तो वे सभी कारण क्या-क्या हो सकते हैं, क्या इस पर कभी विचार किया गया है। इस आलोक में यह सवाल सामने जरूर आता है कि इस देश में धार्मिक स्थलों में ऐसी घटनाओं का सिलसिला क्यों बना हुआ है।

जिस तरह की आर्थिक परेशानी बढ़ती जा रही है, सामाजिक असुरक्षा गहरी हुई है और असुरक्षा के बोध से लोग बुरी तरह घिरते जा रहे हैं। इसके साथ ही ऐसी घटनाओं की आशंकाएं तेज हुई हैं। आंकड़ों पर नजर डालें तो हाल के दौर में ऐसी घटनाएं बढ़ी हैं। दूसरी तरफ धार्मिक स्थलों पर बढ़ती भीड़ से यह मापा जा सकता है कि समाज का बड़ा हिस्सा किस स्तर पर असुरक्षा बोध से ग्रस्त होता जा रहा है। आधुनिक राजनीतिक विचारधाराओं के आधार पर बनी लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं को कई तरह की पुरातन असुरक्षा बोध से मुक्त और सामाजिक सुरक्षा से बेफिक्र समाज का निर्माण करना था, लेकिन संसदीय व्यवस्था उस तरह का समाज निर्मित करने में बुरी तरह से विफल रही है। बल्कि वह उसकी पिछलग्गू हो गई है। इसीलिए संसदीय लोकतंत्र की राजनीति ने जिस तरह से एक भीड़ तंत्र को खड़ा किया है, वह धार्मिक विचारों द्वारा खड़े तंत्र से भिन्न नहीं दिखता है। धार्मिक स्थलों पर भगदड़ का रिश्ता विचारों से भी जुड़ा है। यदि माना जाए कि प्रशासनिक लापरवाही होती है, लेकिन उस लापरवाही का सिलसिला भी लंबे समय से जारी है तो वह विचारों से ही जुड़ा हुआ है। उसकी पहचान की जानी चाहिए।
(लल्लूजी)

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