श्राद्ध का मतलब श्रद्धा ही नहीं, आस्था भी है और वह प्रकृति, परिवेश व
पर्यावरण, किसी के प्रति भी हो सकती है। यही श्रद्धा का विराट दर्शन है।
श्राद्ध हमें संयम सिखाते हैं तो एक व्यापक दर्शन भी देते हैं। यह दर्शन है
सर्वे भवंतु सुखिन- सर्वे संतु निरामय का, लेकिन सब सुखी तभी तो रहेंगे,
जब हम श्रद्धा को जीवन का अनुष्ठान बना लें और इसके लिए पूर्वजों की
भावनाओं का सम्मान करना जरूरी है। यही श्राद्ध है।
पितृपक्ष ऐसा पर्व है, जो हममें संरक्षण करने वालों के प्रति श्रद्धा का
भाव जगाता है, लेकिन परंपराओं की जकड़न के कारण हमने मान लिया कि सिर्फ
दिवंगत ही श्रद्धा के पात्र हैं, जबकि वास्तव में ऐसा है नहीं। श्रद्धा
इतना व्यापक शब्द है, जितना कि यह संसार। अगर संसार के प्रति ही श्रद्धा का
भाव न रहे तो जीवन के प्रति कैसे हो सकता है। इसीलिए शास्त्र कहते हैं कि
पुरानी लकीर को पीटना कोई बुद्धिमता नहीं हीं। क्यों न श्राद्ध में हम कुछ
ऐसा करें, जिससे किसी न किसी रूप में प्राणियों को अनंतकाल तक लाभ पहुंचता
रहे। ऐसा प्रकृति के संरक्षण से ही संभव है।
श्रद्धा से जो दिया, वही श्राद्ध
श्राद्ध यानी श्रद्धया दीयते यत् तत श्राद्ध अर्थात श्रद्धा से जो कुछ दिया जाए। वेदों में डेढ़ हजार मंत्र श्राद्ध के बारे में हैं। पुराण, स्मृति व अन्य प्राचीन ग्रंथों में श्राद्ध का नाम कनागत भी है। कनागत कन्यार्कगत का अपभ्रंश है, जिसका अर्थ होता है सूर्य (अर्क) का कन्या राशि में जाना। श्राद्धों का यही समय होता है, इसीलिए इसे कन्यार्कगत अथवा कनागत कहा जाता है।
प्रकृति के संरक्षण का पर्व-
कौवे को अन्य पक्षियों की अपेक्षा तुच्छ समझा जाता है, किंतु श्राद्धपक्ष में दही में डुबोकर पूरियां सबसे पहले उसी को दी जाती हैं। कौवे एवं पीपल को पितरों का प्रतीक माना गया है। पितृपक्ष के इन 16 दिनों में कौवे को ग्रास एवं पीपल को जल देकर पितरों को तृप्त किया जाता है।
जीवित भी हैं श्रद्धा के पात्र-
श्राद्ध पितरों के प्रति हमारी श्रद्धा के प्रतीक हैं। जब हम मृतकों के प्रति इतनी श्रद्धा व्यक्त करते हैं तो जीवित बुजुर्ग उससे अधिक ही श्रद्धा के पात्र होंगे। यह किसी भी दृष्टि से उचित नहीं माना जा सकता कि जीवित बुजुर्ग पर्याप्त भोजन, औषधि और देखभाल के अभाव में दम तोड़ दें और मृत्य उपरांत उनके श्राद्ध पर हजारों रुपये व्यय कर दें। श्राद्ध हमसे श्रद्धा चाहते हैं, पाखंड नहीं।
यह श्राद्या सभी बुजुगरें के प्रति होनी चाहिए, चाहे वह जीवित हों या दिवंगत।
सत्रह दिन, सोलह श्राद्ध-
इस बार अधिकमास की तिथियों के कारण पितृपक्ष 17 दिन का हो गया है, हालांकि श्राद्ध 16 ही होंगे। तीन अक्टूबर को कोई श्राद्ध नहीं है। इस दिन चतुर्थी व्रत रहेगा और चतुर्थी का श्राद्ध चार अक्टूबर को होगा।
खास बातें-
29 सितंबर- पूर्णिमा का श्राद्ध, सुबह 8.03 बजे से
30 सितंबर- प्रतिपदा
1 अक्टूबर- द्वितीया श्राद्ध, सुबह 10.04 बजे बाद
2 अक्टूबर- तृतीया श्राद्ध, पूर्वाह्न 11.47 बजे बाद
4 अक्टूबर- चतुर्थी
5 अक्टूबर- पंचमी
6 अक्टूबर- षष्ठी
7 अक्टूबर- सप्तमी
8 अक्टूबर- अष्टमी
9 अक्टूबर- नवमी
10 अक्टूबर- दशमी
11 अक्टूबर- एकादशी
12 अक्टूबर- द्वादशी
13 अक्टूबर- त्रयोदशी
14 अक्टूबर- चतुदर्शी
15 अक्टूबर- अमावस्या
शुभकायरें का निषेधकाल नहीं पितृपक्ष
सीधा-सा, लेकिन गंभीर सवाल, पितृपक्ष में नई वस्तु खरीदने से परहेज क्यों। क्या पितरों को हमारी तरक्की पसंद नहीं। वेदोक्त दृष्टि से देखें तो पितर देवताओं में भी श्रेष्ठ हैं।
(लल्लूजी)
श्रद्धा से जो दिया, वही श्राद्ध
श्राद्ध यानी श्रद्धया दीयते यत् तत श्राद्ध अर्थात श्रद्धा से जो कुछ दिया जाए। वेदों में डेढ़ हजार मंत्र श्राद्ध के बारे में हैं। पुराण, स्मृति व अन्य प्राचीन ग्रंथों में श्राद्ध का नाम कनागत भी है। कनागत कन्यार्कगत का अपभ्रंश है, जिसका अर्थ होता है सूर्य (अर्क) का कन्या राशि में जाना। श्राद्धों का यही समय होता है, इसीलिए इसे कन्यार्कगत अथवा कनागत कहा जाता है।
प्रकृति के संरक्षण का पर्व-
कौवे को अन्य पक्षियों की अपेक्षा तुच्छ समझा जाता है, किंतु श्राद्धपक्ष में दही में डुबोकर पूरियां सबसे पहले उसी को दी जाती हैं। कौवे एवं पीपल को पितरों का प्रतीक माना गया है। पितृपक्ष के इन 16 दिनों में कौवे को ग्रास एवं पीपल को जल देकर पितरों को तृप्त किया जाता है।
जीवित भी हैं श्रद्धा के पात्र-
श्राद्ध पितरों के प्रति हमारी श्रद्धा के प्रतीक हैं। जब हम मृतकों के प्रति इतनी श्रद्धा व्यक्त करते हैं तो जीवित बुजुर्ग उससे अधिक ही श्रद्धा के पात्र होंगे। यह किसी भी दृष्टि से उचित नहीं माना जा सकता कि जीवित बुजुर्ग पर्याप्त भोजन, औषधि और देखभाल के अभाव में दम तोड़ दें और मृत्य उपरांत उनके श्राद्ध पर हजारों रुपये व्यय कर दें। श्राद्ध हमसे श्रद्धा चाहते हैं, पाखंड नहीं।
यह श्राद्या सभी बुजुगरें के प्रति होनी चाहिए, चाहे वह जीवित हों या दिवंगत।
सत्रह दिन, सोलह श्राद्ध-
इस बार अधिकमास की तिथियों के कारण पितृपक्ष 17 दिन का हो गया है, हालांकि श्राद्ध 16 ही होंगे। तीन अक्टूबर को कोई श्राद्ध नहीं है। इस दिन चतुर्थी व्रत रहेगा और चतुर्थी का श्राद्ध चार अक्टूबर को होगा।
खास बातें-
29 सितंबर- पूर्णिमा का श्राद्ध, सुबह 8.03 बजे से
30 सितंबर- प्रतिपदा
1 अक्टूबर- द्वितीया श्राद्ध, सुबह 10.04 बजे बाद
2 अक्टूबर- तृतीया श्राद्ध, पूर्वाह्न 11.47 बजे बाद
4 अक्टूबर- चतुर्थी
5 अक्टूबर- पंचमी
6 अक्टूबर- षष्ठी
7 अक्टूबर- सप्तमी
8 अक्टूबर- अष्टमी
9 अक्टूबर- नवमी
10 अक्टूबर- दशमी
11 अक्टूबर- एकादशी
12 अक्टूबर- द्वादशी
13 अक्टूबर- त्रयोदशी
14 अक्टूबर- चतुदर्शी
15 अक्टूबर- अमावस्या
शुभकायरें का निषेधकाल नहीं पितृपक्ष
सीधा-सा, लेकिन गंभीर सवाल, पितृपक्ष में नई वस्तु खरीदने से परहेज क्यों। क्या पितरों को हमारी तरक्की पसंद नहीं। वेदोक्त दृष्टि से देखें तो पितर देवताओं में भी श्रेष्ठ हैं।
(लल्लूजी)
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