बुधवार, 5 सितंबर 2012

मंथन एक सतत प्रक्रिया........




मंथन एक सतत प्रक्रिया........
सात्विक सोच से जुड़ा मन न जाने क्यों मंथन ,सतत चिंतन में डूबा रहता है......
कई मुद्दों को तकता है,कई मुद्दे समझता है......
कई प्रश्न घुमड़ते हैं.....
उत्तर की राह तकता है.......
सोच शायद नयी है परन्तु प्रश्न पुराने हैं........
क्या व्यवस्था से हारे हैं ????
या व्यक्ति के मारे हैं ???
जवाब तो स्वयं ही ढूँढने हैं .........
ये प्रश्न पुकारे हैं........

 व्यवस्था पर हावी होता व्यक्तिवाद.........
सरकार योजना बनाती है.....अमली जामा पहनाया जाता है.......
जनता के टैक्स के पैसे के सदुपयोग की घोषणा होती है.....
जनता खुश.....
नामकरण होता है.......
राजीव गाँधी अमुक-अमुक योजना,इंदिरा गाँधी अमुक-अमुक योजना.........
क्या व्यक्तिवाद से परे जा कर जनता के पैसे से,जनता के लिए  बनायी  गयी योजना का नामकरण किसी व्यक्ति विशेष के नाम से न जुड़ कर सिर्फ प्रधान मंत्री अमुक योजना,मुख्या मंत्री अमुक योजना  नहीं कहलाई जा सकती ????
क्यों हम व्यक्तिवाद के पोषक हैं ???
हम जनता के पैसे का दुरूपयोग अपने निहित स्वार्थ (किसी की निगाहों में आने के लिए या जनता के मसीहा कहलाने) के लिए नहीं कर रहे ???
क्या हमें ये सब करने का अधिकार है???
क्या संविधान में इस प्रकार का अधिकार जनसेवकों या जनप्रतिनिधियों को प्रदत है????
सोचनीय प्रश्न है......
अपने आप में इस का उत्तर खोजिये.....
प्रश्न कीजिये और हर व्यवस्था को सार्थकता की और ले जाने का संकल्प लीजिये....
व्यवस्था परिवर्तन आप के स्वयं के हाथों में है........
आप स्वयं सक्षम हैं.........
आप के हाथों में दुनिया का सब से असरदार हथियार है.....

आप का वोट जो कि बिना खून-खराबा किये देश की तस्वीर  बदल सकता है......

किस बात का इंतज़ार है हमें ????

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