रविवार, 30 सितंबर 2012

हादसों में तब्दील होती आस्था

मथुरा के बरसाना स्थित राधारानी मंदिर और झारखंड के देवघर में एक धार्मिक आश्रम में पिछले दिनों मची भगदड़ में दर्जन भर बच्चे, बूढ़े और महिलाएं मारे गए। अपने देश में भगदड़ और परिणाम स्वरूप होने वाली मौतें कभी हमारे विमर्श का हिस्सा नहीं बन पाती है। संसद में 25 फरवरी 2009 को तबके गृहमंत्री द्वारा दी गई जानकारी के अनुसार देश में पिछले चार वर्षो में धार्मिक स्थलों पर भगदड़ में मरने वालों की तादाद 686 हैं। इस सूचना की तिथि के बाद जनवरी 2011 तक धार्मिक स्थलों पर 317 यानी 2005 से कुल 773 लोग भगदड़ में मारे गए हैं।

जनवरी 2011 के बाद हरिद्वार में गायत्री परिवार के यज्ञ और दूसरे कुछेक धार्मिक स्थलों में भगदड़ में मारे गए लोगों की तादाद शामिल नहीं है। न ही गंभीर रूप से घायलों की संख्या शामिल है। अपने देश में धार्मिक स्थलों के अलावा मोटे तौर पर रेलवे स्टेशनों और सेना पुलिस में भर्ती के दौरान भगदड़ में मारे जाने की घटनाएं हुई हैं। 2002 में लखनऊ के रेलवे स्टेशन के अलावा 30 अक्टूबर 2007 को मुगलसराय और दिल्ली के स्टेशनों में घटनाएं हुई थीं। एक घटना 2005 में तमिलनाडु में प्राकृतिक आपदाओं में बुरी तरह प्रभावित लोगों के कैंप में हुई थी। इस तरह भगदड़ की घटनाओं में 95 प्रतिशत घटनाएं और उनमें मारे जाने वाले 95 प्रतिशत धार्मिक स्थलों के जलसों में शामिल लोग होते हैं। सरकार के पास ये आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं कि भगदड़ में मारे जाने वाले लोगों में विकलांग, बूढ़े, महिला, बच्चे कितने हैं। लेकिन वर्ग विभाजित समाज में नियम की तरह ऐसी मानवजनित घटनाओं में सबसे ज्यादा शिकार क्रमश: कमजोर माना जाने वाला समुदाय होता है।


मोटे तौर पर ऐसी घटनाओं की सबसे ज्यादा शिकार महिलाएं और बच्चे हुए हैं। भगदड़ के वैचारिक पहलू यहां इस प्रश्न पर विचार किया जाना चाहिए कि क्या भगदड़ का संबंध विचारधारा से है? भगदड़ की घटनाओं में जमा कमजोर लोग तमाम तरह की आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक असुरक्षाओं के बोध से ग्रस्त रहते हैं। भगदड़ की घटनाओं को व्यवस्थागत खामियों के आलोक में देखा जाता है। लिहाजा, ये घटनाएं विचार के प्रश्न के रूप में सामने नहीं आ पाती हैं। केंद्र सरकार यह कहकर अपनी जिम्मेदारी पूरी कर लेती है कि कानून एवं व्यवस्था प्रदेश सरकारों का विषय है। राज्य सरकारों का यह आलम है कि भगदड़ की घटनाओं के बाद जांच की एक प्रक्रिया शुरू की जाती है और फिर ऐसी घटनाओं को भाग्य का खेल और भगवान की मर्जी मानकर उन्हें भुला दिया जाता है। सरकारों की तो बेपरवाही का अंदाजा इससे लग सकता है कि ओडिशा में की गई ऐसी एक जांच रिपोर्ट का पता ही नहीं चल रहा है।

आखिर सरकारों पर भगदड़ की घटनाएं और मौतें असर क्यों नहीं डाल पाती हैं? भगदड़ और उसमें होने वाली मौतों का संबंध भीड़ को नियंत्रित करने या नहीं कर पाने की प्रशासनिक विफलता से ही नहीं जुड़ा हुआ है। इसका एक विचार पक्ष है, जो न तो ऐसी घटनाओं को रोक पा रहा है और न ही सरकारों व धार्मिक स्थलों की देखरेख करने वालों पर ऐसी घटनाओं को रोकने के लिए दबाव बना पा रहा है। समाज का प्रभावशाली हिस्सा किसी घटना में प्रभावित होता है, तब तो वह विचार करने योग्य विषय का रूप ले भी पाता है। वरना, उसकी कोई परवाह ही नहीं की जाती है। आमतौर पर धार्मिक स्थलों पर संपन्न और प्रभावशाली लोगों के लिए सुरक्षित स्थान भी बनते रहे हैं। भगदड़ वाली घटनाओं में देखें तो साधारण मनुष्य के प्रति पूरी धार्मिक प्रक्रिया में एक नृशंसता दिखती है और मंदिर के कर्ताधर्ता उसके प्रत्यक्ष पोषक के रूप में सामने दिखाई देते हैं। यह विचार भी किया जाना चाहिए कि क्या ये घटनाएं धार्मिक स्थलों में होने वाले कर्मकांडों से जुड़ी होती हैं?

भगदड़ में मौत की घटनाओं का इस स्तर का विश्लेषण जरूर किया जाना चाहिए। हमारे विश्लेषण में यह पाया गया है कि कर्मकांडों का भगदड़ और उसमें होने वाली कमजोर वर्ग के सदस्यों की मौत का रिश्ता हैं। उदाहरण के लिए 26 जनवरी 2005 को महाराष्ट्र के सतारा जिले में स्थित मंधरा देवी के मंदिर में 291 लोग मारे गए थे और तब 98 लोगों के घायल होने की जानकारी दी गई थी। बाद में घायलों में कितने और लोग मरे, यह पता करने की कोशिश नहीं की गई। सरकार के अनुसार शकरबारी के पूर्णिमा के मौके पर जमा श्रद्धालुओं में एक महिला अपनी टोकरी में कर्मकांड के लिए सामग्री ले जा रही थी। वह फिसल गई और टोकरी से तेल गिर गया। जमीन पहले से ही नारियल के पानी की वजह से फिसलन भरी हो गई थी। एक के बाद दूसरे श्रद्धालु के उस पर गिरने के बाद भगदड़ में इतनी जानें चली गई।

देवघर की घटना के जो कारण बताए जा रहे हैं, यदि उसे देखें तो जैसे 2005 की कहानी भर दोहराई जा रही हैं। 2003 में अगस्त-सितंबर के दौरान नासिक में आयोजित कुंभ मेले में 118 लोग मारे गए। सरकार के अनुसार यह घटना इसीलिए हुई, क्योंकि कुछ साधु-महंथों ने हाथियों और गाडि़यों पर सवार होकर जुलूस निकाले और वे सवारी पर बैठे श्रद्धालुओं के बीच प्रसाद, फूल और सिक्के उछाल रहे थे। उन साधु-महंथों ने ऐसा जुलूस निकालने के लिए किसी से इजाजत लेने की भी जरूरत महसूस नहीं की। राजस्थान के चामुंडा में 215 लोग मारे गए थे और मथुरा की घटना के जो कारण बताए जा रहे हैं, वह वहां भी बताए गए थे। कर्मकांड की भूमिका दूसरे देशों में धार्मिक स्थलों पर भगदड़ की घटना की भी चर्चा की जा सकती है। इस्लामिक धार्मिक स्थल मीना में 1998 में भारत के 32 हजयात्री मारे गए थे। वर्ष 2006 में मक्का में भी भगदड़ की घटनाएं हुई थी। शैतान को पत्थर मारने की रस्म के दौरान हादसा हुआ था। इन घटनाओं के साथ उपरोक्त घटनाओं के कारणों का विश्लेषण इस रूप में भी सामने आ सकता है कि कर्मकांड इसमें मुख्य हैं। यदि ऐसी घटनाओं के दूसरे कारणों पर गौर किया गया है तो वे सभी कारण क्या-क्या हो सकते हैं, क्या इस पर कभी विचार किया गया है। इस आलोक में यह सवाल सामने जरूर आता है कि इस देश में धार्मिक स्थलों में ऐसी घटनाओं का सिलसिला क्यों बना हुआ है।

जिस तरह की आर्थिक परेशानी बढ़ती जा रही है, सामाजिक असुरक्षा गहरी हुई है और असुरक्षा के बोध से लोग बुरी तरह घिरते जा रहे हैं। इसके साथ ही ऐसी घटनाओं की आशंकाएं तेज हुई हैं। आंकड़ों पर नजर डालें तो हाल के दौर में ऐसी घटनाएं बढ़ी हैं। दूसरी तरफ धार्मिक स्थलों पर बढ़ती भीड़ से यह मापा जा सकता है कि समाज का बड़ा हिस्सा किस स्तर पर असुरक्षा बोध से ग्रस्त होता जा रहा है। आधुनिक राजनीतिक विचारधाराओं के आधार पर बनी लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं को कई तरह की पुरातन असुरक्षा बोध से मुक्त और सामाजिक सुरक्षा से बेफिक्र समाज का निर्माण करना था, लेकिन संसदीय व्यवस्था उस तरह का समाज निर्मित करने में बुरी तरह से विफल रही है। बल्कि वह उसकी पिछलग्गू हो गई है। इसीलिए संसदीय लोकतंत्र की राजनीति ने जिस तरह से एक भीड़ तंत्र को खड़ा किया है, वह धार्मिक विचारों द्वारा खड़े तंत्र से भिन्न नहीं दिखता है। धार्मिक स्थलों पर भगदड़ का रिश्ता विचारों से भी जुड़ा है। यदि माना जाए कि प्रशासनिक लापरवाही होती है, लेकिन उस लापरवाही का सिलसिला भी लंबे समय से जारी है तो वह विचारों से ही जुड़ा हुआ है। उसकी पहचान की जानी चाहिए।
(लल्लूजी)

जिस पेड़ ने छाया दी उसे क्यों दुतकारते हो –

जब पौधा बोया जाता है तो उससे यही उम्मीद की जाती है कि उम्र बढ़ने के साथ-साथ वह अपना फल और छाया अन्य लोगों को प्रदान करेगा. लेकिन जब वह पेड़ बूढ़ा हो जाता है तो किसी का ध्यान उसकी ओर नहीं जाता. कोई उस वृक्ष की ओर ध्यान नहीं देता जिसने पूरी जिंदगी दूसरों का ही हित सोचा. इतना ही नहीं उसे मात्र एक बोझ ही मान लिया यह एक पेड़ की कहानी नहीं बल्कि हर उस इंसान की कहानी है जो उम्र के बढ़ते पड़ाव में परिवार द्वारा वृद्धाश्रम में धकेल दिए जाते हैं, उन्हें अपने परिवार से ही दूर रहने के लिए विवश कर दिया जाता है. उम्र बढ़ने का एक अर्थ अनुभव बढ़ने से भी लिया जा सकता है लेकिन आज की युवा पीढ़ी जो स्वयं से आगे कुछ सोच ही नहीं पाती वह परिवार के बुजुर्गों को अपने ऊपर एक बोझ समझने लगती है.

जिस परिवार को व्यक्ति अपनी जान से भी ज्यादा प्यार करता है, जिसकी खुशियों के लिए अपनी खुशियां छोड़ देता है वही परिवार उसके वृद्ध होते ही उसे तुच्छ समझने लगता है. वैसे तो हम अपने संस्कारों की बात करते हैं लेकिन बुजुर्गों के साथ होते ऐसे व्यवहार को देखकर हमारी ओछी मानसिकता प्रदर्शित होने लगती है.

वृद्ध होने के बाद इंसान को कई रोगों का सामना करना पड़ता है. चलने-फिरने में भी दिक्कत होती है. लेकिन यह इस समाज का एक सच है कि जो आज जवान है उसे कल बूढ़ा भी होना होगा और इस सच से कोई नहीं बच सकता. लेकिन इस सच को जानने के बाद भी जब हम बूढ़े लोगों पर अत्याचार करते हैं तो हमें अपने मनुष्य कहलाने पर शर्म महसूस होती है. हमें समझना चाहिए कि वरिष्‍ठ नागरिक समाज की अमूल्‍य विरासत होते हैं. उन्होंने देश और समाज को बहुत कुछ दिया होता है. उन्‍हें जीवन के विभिन्‍न क्षेत्रों का व्‍यापक अनुभव होता है.

आज का युवा वर्ग राष्‍ट्र को उंचाइयों पर ले जाने के लिए वरिष्‍ठ नागरिकों के अनुभव से लाभ उठा सकता है. अपने जीवन की इस अवस्‍था में उन्‍हें देखभाल और यह अहसास कराए जाने की जरूरत होती है कि वे हमारे लिए खास महत्‍व रखते हैं. हमारे शास्त्रों में भी बुजुर्गों का सम्मान करने की राह दिखलायी गई है.

respectforeldersअंतरराष्ट्रीय बुजुर्ग दिवस का इतिहास

संपूर्ण विश्व में बुजुर्गों के प्रति होने वाले अन्याय और उनके साथ दुर्व्यवहार पर लगाम लगाने के साथ-साथ वृद्धों को उनके अधिकारों के प्रति जागरुक करने के उद्देश्य से 14 दिसंबर, 1990 के दिन संयुक्त राष्ट्र ने यह निर्णय लिया कि हर साल 1 अक्टूबर को अंतरराष्ट्रीय बुजुर्ग दिवस के रूप में मनाया जाएगा. इससे बुजुर्गों को भी उनकी अहमियत का अहसास होगा और समाज के अलावा परिवार में भी उन्हें उचित स्थान दिलवाया जा सकेगा. सबसे पहले 1 अक्टूबर, 1991 को बुजुर्ग दिवस मनाया गया और तब से यह सिलसिला निरंतर जारी है.

भारत में बुजुर्गों की स्थिति
वैसे तो भारत में भी बुजुर्गों की रक्षा और उन्हें अधिकार दिलवाने के लिए भारत में भी कईकानूनों का निर्माण किया गया है लेकिन आज भी उनका पालन सही तरीके से नहीं किया जाता. केंद्र सरकार ने भारत में वरिष्‍ठ नागरिकों के आरोग्‍यता और कल्‍याण को बढ़ावा देने के लिए वर्ष 1999 में वृद्ध सदस्‍यों के लिए राष्ट्रीय नीति तैयार की है. जिसके तहत व्‍यक्तियों को स्‍वयं के लिए तथा उनके पति या पत्‍नी के बुढ़ापे के लिए व्‍यवस्‍था करने के लिए प्रोत्‍साहित किया जाता है और साथ ही परिवार वालों को वृद्ध सदस्‍यों की देखभाल करने के लिए प्रोत्‍साहित करने का भी प्रयास किया जाता है.
इसके साथ ही 2007 में माता-पिता एवं वरिष्‍ठ नागरिक भरण-पोषण विधेयक संसद में पारित किया गया है. इसमें माता-पिता के भरण-पोषण, वृद्धाश्रमों की स्‍थापना, चिकित्‍सा सुविधा की व्‍यवस्‍था और वरिष्‍ठ नागरिकों के जीवन और सं‍पत्ति की सुरक्षा का प्रावधान किया गया है.
लेकिन इन सब के बावजूद हमें अखबारों और समाचारों की सुर्खियों में वृद्धों की व्यथा और लूटमार की घटनाएं देखने को मिल ही जाती हैं. वृद्धाश्रमों में बढ़ती संख्या इस बात का साफ सबूत है कि वृद्धों को उपेक्षित किया जा रहा है. हमें समझना होगा कि अगर समाज के इस अनुभवी स्तंभ को यूं ही नजरअंदाज किया जाता रहा तो हम उस अनुभव से भी दूर हो जाएंगे जो इनके पास है.
सबसे बड़ी बात तो ये है कि वृद्ध एक दिन हम सभी होंगे और तब हमारे साथ क्या होगा! क्या हमें भी वृद्धाश्रम में धकेल दिया जाएगा या उपेक्षित किया जाएगा. यदि आज हमने अपने बच्चों और स्वयं अपने भीतर वृद्धों का सम्मान करने का संस्कार नहीं पैदा किए तो कल तो वाकई बड़ा भयानक होगा.
(लल्लूजी )

श्रद्धा तो जीवन का अनुष्ठान है

श्राद्ध का मतलब श्रद्धा ही नहीं, आस्था भी है और वह प्रकृति, परिवेश व पर्यावरण, किसी के प्रति भी हो सकती है। यही श्रद्धा का विराट दर्शन है। श्राद्ध हमें संयम सिखाते हैं तो एक व्यापक दर्शन भी देते हैं। यह दर्शन है सर्वे भवंतु सुखिन- सर्वे संतु निरामय का, लेकिन सब सुखी तभी तो रहेंगे, जब हम श्रद्धा को जीवन का अनुष्ठान बना लें और इसके लिए पूर्वजों की भावनाओं का सम्मान करना जरूरी है। यही श्राद्ध है। पितृपक्ष ऐसा पर्व है, जो हममें संरक्षण करने वालों के प्रति श्रद्धा का भाव जगाता है, लेकिन परंपराओं की जकड़न के कारण हमने मान लिया कि सिर्फ दिवंगत ही श्रद्धा के पात्र हैं, जबकि वास्तव में ऐसा है नहीं। श्रद्धा इतना व्यापक शब्द है, जितना कि यह संसार। अगर संसार के प्रति ही श्रद्धा का भाव न रहे तो जीवन के प्रति कैसे हो सकता है। इसीलिए शास्त्र कहते हैं कि पुरानी लकीर को पीटना कोई बुद्धिमता नहीं हीं। क्यों न श्राद्ध में हम कुछ ऐसा करें, जिससे किसी न किसी रूप में प्राणियों को अनंतकाल तक लाभ पहुंचता रहे। ऐसा प्रकृति के संरक्षण से ही संभव है।
श्रद्धा से जो दिया, वही श्राद्ध
श्राद्ध यानी श्रद्धया दीयते यत् तत श्राद्ध अर्थात श्रद्धा से जो कुछ दिया जाए। वेदों में डेढ़ हजार मंत्र श्राद्ध के बारे में हैं। पुराण, स्मृति व अन्य प्राचीन ग्रंथों में श्राद्ध का नाम कनागत भी है। कनागत कन्यार्कगत का अपभ्रंश है, जिसका अर्थ होता है सूर्य (अर्क) का कन्या राशि में जाना। श्राद्धों का यही समय होता है, इसीलिए इसे कन्यार्कगत अथवा कनागत कहा जाता है।
प्रकृति के संरक्षण का पर्व-
कौवे को अन्य पक्षियों की अपेक्षा तुच्छ समझा जाता है, किंतु श्राद्धपक्ष में दही में डुबोकर पूरियां सबसे पहले उसी को दी जाती हैं। कौवे एवं पीपल को पितरों का प्रतीक माना गया है। पितृपक्ष के इन 16 दिनों में कौवे को ग्रास एवं पीपल को जल देकर पितरों को तृप्त किया जाता है।
जीवित भी हैं श्रद्धा के पात्र-
श्राद्ध पितरों के प्रति हमारी श्रद्धा के प्रतीक हैं। जब हम मृतकों के प्रति इतनी श्रद्धा व्यक्त करते हैं तो जीवित बुजुर्ग उससे अधिक ही श्रद्धा के पात्र होंगे। यह किसी भी दृष्टि से उचित नहीं माना जा सकता कि जीवित बुजुर्ग पर्याप्त भोजन, औषधि और देखभाल के अभाव में दम तोड़ दें और मृत्य उपरांत उनके श्राद्ध पर हजारों रुपये व्यय कर दें। श्राद्ध हमसे श्रद्धा चाहते हैं, पाखंड नहीं।
यह श्राद्या सभी बुजुगरें के प्रति होनी चाहिए, चाहे वह जीवित हों या दिवंगत।
सत्रह दिन, सोलह श्राद्ध-
इस बार अधिकमास की तिथियों के कारण पितृपक्ष 17 दिन का हो गया है, हालांकि श्राद्ध 16 ही होंगे। तीन अक्टूबर को कोई श्राद्ध नहीं है। इस दिन चतुर्थी व्रत रहेगा और चतुर्थी का श्राद्ध चार अक्टूबर को होगा।
खास बातें-
29 सितंबर- पूर्णिमा का श्राद्ध, सुबह 8.03 बजे से
30 सितंबर- प्रतिपदा
1 अक्टूबर- द्वितीया श्राद्ध, सुबह 10.04 बजे बाद
2 अक्टूबर- तृतीया श्राद्ध, पूर्वाह्न 11.47 बजे बाद
4 अक्टूबर- चतुर्थी
5 अक्टूबर- पंचमी
6 अक्टूबर- षष्ठी
7 अक्टूबर- सप्तमी
8 अक्टूबर- अष्टमी
9 अक्टूबर- नवमी
10 अक्टूबर- दशमी
11 अक्टूबर- एकादशी
12 अक्टूबर- द्वादशी
13 अक्टूबर- त्रयोदशी
14 अक्टूबर- चतुदर्शी
15 अक्टूबर- अमावस्या
शुभकायरें का निषेधकाल नहीं पितृपक्ष
सीधा-सा, लेकिन गंभीर सवाल, पितृपक्ष में नई वस्तु खरीदने से परहेज क्यों। क्या पितरों को हमारी तरक्की पसंद नहीं। वेदोक्त दृष्टि से देखें तो पितर देवताओं में भी श्रेष्ठ हैं।
(लल्लूजी)

रविवार, 23 सितंबर 2012

तमसो मा ज्योतिर्गमय


तमसो मा ज्योतिर्गमय का सामान्य अर्थ यह है कि अंधकार से प्रकाश की ओर चलो, बढो। देखा गया है कि मानव इसका गूढार्थ नहीं समझ पाता। कतिपय ऋषि-मुनियों ने समझकर इसका अनुगमन किया और अपने जीवन को कृतार्थ किया है। उनमें बहुतों के नाम लिए जा सकते हैं। अंधकार को त्यागकर प्रकाश के मार्ग पर बढना साधना का अध्याय है। भौतिकता और सांसारिकता के व्यामोह में लिप्त व्यक्ति इस आप्त वचन को जानने को उत्सुक नहीं हैं। विज्ञान की उपलब्धियों से वह रात के अंधेरे को दूर करने के उपाय खोजकर अपने को सुखी अनुभव कर रहा है। जल का दोहन करते हुए विद्युत उत्पादन से बडी प्रसन्नता का अनुभव कर रहा है। जगत की यात्रा में नए-नए प्रयोगों से अंतरिक्ष पर काबिज होने के प्रयास से अपने को सुपर मानव घोषित करने में लगा है। यद्यपि ये सारे प्रयास मानव जीवन के लिए अत्यंत घातक हैं। सच्चे अर्थो में मानव उपरोक्त वचन को नकारते हुए प्रकृति के साथ अन्याय कर रहा है। सूर्य की प्रात: रश्मियों से रात का अंधकार विलुप्त हो जाता है। उसी तरह मानव रात के अंधेरे को अपने अनुसंधानों से दूर करने में लगा है। वास्तविकता तो यह है कि मानव के लिए भीतर के व्याप्त अंधकार से प्रकाश की ओर चलने का उपरोक्त वचन संकेत है। आसक्ति और मोह का अंधकार, काम, क्रोध, लोभ और अहंकार का अंधकार, ईष्र्या-द्वेष, परछिद्रान्वेषण, आत्म प्रवंचना, धन, पद, प्रतिष्ठा के बल पर अहित की भावना के अंधकार से मुक्त होकर प्रकाश का स्वागत करते हुए चलने का ध्येय है- तमसो मा ज्योतिर्गमय। जब अज्ञान के अंधकार से मानव पार होता है तब शांति और संतोष की अनुभूति होती है। तत्पश्चात आत्मा आनंद विभोर होकर नृत्य करने लगती है। आनंद से परमानंद की ओर बढता है। अंततोगत्वा ब्रांह्मानंद का पडाव स्वत: मिल जाता है। यही है वास्तविक तमसो मा ज्योतिर्गमय। संत कवि तुलसीदास जी ने कहा है,,

दरिद नाशन दान

सुख और दुख यह जीवन की अवस्थाएं बताई गई हैं। सभी लोगों के जीवन में सुख और दुख आते-जाते रहते हैं। कोई नहीं चाहता कि उनके जीवन में कभी दुख आए या गरीबी से कभी भी उनका सामना हो। इस संबंध में आचार्य चाणक्य कहते हैं कि-

दरिद नाशन दान, शील दुर्गतिहिं नाशियत।
बुद्धि नाश अज्ञान, भय नाशत है भावना।।

दान से दरिद्रता या गरीबी का नाश होता है। शील या व्यवहार दुखों को दूर करता है। बुद्धि अज्ञानता को नष्ट कर देती है। हमारे विचार सभी प्रकार के भय से मुक्ति दिलाते हैं। आचार्य चाणक्य के अनुसार यदि कोई इंसान उसकी कमाई से कुछ हिस्सा दान करता रहे तो उसे कभी भी गरीबी का सामना नहीं करना पड़ेगा। व्यक्ति जो भी कमाता है, जो भी धन प्राप्त करता है उसमें कुछ भाग हमेशा ही जरूरतमंद लोगों की मदद में लगाना चाहिए, धार्मिक कार्य करना चाहिए। ऐसा करने पर हमारे पुण्य कर्मों की वृद्धि होती है जिससे महालक्ष्मी की कृपा सदैव हम पर बनी रहती है। इंसान के जीवन में काफी दुखों के कारण से उसके बुरे स्वभाव से संबंधित ही होते हैं। अत: अच्छे गुण और नम्र व्यवहार रखने से सभी लोगों से सुख प्राप्त होता है और दुख या कष्ट हमसे दूर ही रहते हैं। जो लोग नियमित रूप से भगवान की भक्ति में लगे रहते हैं, धर्म ग्रंथ पढ़ते हैं, उनसे ज्ञान प्राप्त करते हैं वे ज्ञानी हो जाते हैं। उन लोगों की अज्ञानता नष्ट हो जाती है। साथ ही इन कार्यों से हमारे विचार भी शुद्ध होते हैं और जीवन-मृत्यु, सुख-दुख के सभी भय दूर हो जाते हैं
 

रविवार, 9 सितंबर 2012


"प्रिय बंधुओं, मेरी प्रस्तुत रचना, उम्र की उस ढलान को प्रदर्शित करती है, जिसमे हमारे पास सिमित-समयाविधि होती है, और जहाँ से वापस लौट पाना असंभव होता है I इस सिमित-समयाविधि में ही मनुष्य अपने द्वारा किये कार्यों से अपना अनुमान लगा पाता है की उसने क्या सही, क्या गलत किया...!! त्रुटिपूर्ण कार्य करने की अवस्था में मात्र खिन्नता ही प्राप्त होती है, क्यूंकि हमारे पास उन्हें सुधारने हेतु समय का अभाव होता
है.....

"उम्र- एक खेद-पूर्ण यात्रा-साथी!!"................

मैं तन्हा-पथिक हूँ, अँधेरी रातों का,
क्या रह सकते हो मेरी आँखों में, उम्मीदों की किरण बनके?
क्या कर सकते हो रोशन, मेरे बुझते चिरागों को ?
क्या मिटा सकते हो, मेरे चेहरे पर पड़ी उम्र की सिलवटों को?
क्या रोक सकते हो, मेरी जाती हुई श्वांस-रूपी डोर को?

नहीं,
जानता था मैं, पर क्या करूँ?
जीना चाहता हूँ, कुछ और पल,
अपनी भूल-सुधार में,
रहना चाहता हूँ, उनके साथ, जिन्हें छोड़ चूका हूँ,
समय के गर्भ में कोसों दूर,
बांटना चाहता हूँ, वोह स्नेह, जिसे छीन चूका हूँ,
स्वार्थ्य-परक उद्देश्यों में,
पाना चाहता हूँ, वो सम्मान, जिसे खो दिया है,
स्व-अहम् में,
बिताना चाहता हूँ, शेष जीवन
आत्म-चिंतन व ईश्वरीय-अनुभूति में.....!!
.............मैं तन्हा-पथिक हूँ, अँधेरी रातों का.........!!

गुरुवार, 6 सितंबर 2012





 समय का कंठ नीला है


हमारी आत्मा का रंग नीला होता है। सारी आत्माएं शिव के नीले कंठ में निवास करती हैं, अपना रंग वहीं से लेती हैं।

मेरे इस प्रेम का रंग नीला है। मैं इसे अपने कंठ में धारण करती हूं। आधी रात जब पास में कोई नहीं होता, कमरे की पीली बत्तियां अपनी चमक से थक चुकी होती हैं, यह नीला प्रेम आंखों के भीतर करवट लेता है। गले के भीतर इसकी हरकत महसूस होती है।

प्रेम में डूबी लड़कियों के गले पर स्पर्श करोगे, तो पाओगे, अंदर कांटे भरे हैं। गुलाब के डंठल की तरह।

यह रुलाहट को रोकने की कोशिश में उगने वाले कांटे होते हैं।

मुझे हेनरी मातीस का वह कथन याद आता है, 'नीला रंग आपकी आत्मा को चीरकर भीतर समा जाता है।'

वह ऐसा ही प्रेम था।

वह मेरे बचपन का दोस्त था। उस बचपन का, जिसकी स्मृतियां भी हमारे भीतर नहीं बचतीं। उस समय उसका परिवार हमारे ठीक पड़ोस में रहता था। दस-बारह की उम्र तक हम साथ खेले, साथ दौड़े। हम साथ-साथ पॉटी भी करते थे, जब तक कि इसके लिए हमारे घरवालों ने हमें डांटना न शुरू कर दिया।

जिस उम्र में हम एक-दूसरे को जानना शुरू कर सकते थे, उसका परिवार हमारे पड़ोस से उठकर दूसरी कॉलोनी में चला गया। हमारी मांओं में दोस्ती बरक़रार रही। जब उसकी मां हमारे घर आती थी, साथ वह भी आता था।

हम अब पहले जैसे नहीं रहे थे। हम दोनों के साथ हमारे बड़े हो जाने का संकोच भी बड़ा हुआ था।

कुछ बरस पहले तक हम एक-दूसरे की आदत थे, अब हम कौतुहल हैं। मैं जानती थी कि वह जिस तरह मेरा चेहरा देखता है, उसमें बचपन की उन्हीं सारी स्मृतियों को वयस्कता में जीने की चाह भरी होती है।

बचपन हमारी वयस्कता का विलोम होता है। जो लड़का बचपन में इतना बोलता था, बड़े हो जाने के बाद वह उतना ही चुप रहने लगा। उसकी बोलने की कोशिश चुप रह जाने की क्रिया में बदल जाती है।

जब मैं दसवीं में पढ़ती थी, मुझे पढ़ाने ट्यूटर आता था। वही हरे ढक्कन वाला प्रेमी। कई दफ़ा ऐसा हुआ था कि यह लड़का अपनी मां के साथ हमारे यहां आया हुआ है, उसके थोड़ी ही देर बाद मेरा ट्यूटर आ जाता और मैं अपने कमरे में चली जाती। ऐसे में यह लड़का हम दोनों के पीछे-पीछे कमरे में आ जाता और मुझे पढ़ता हुआ देखता रहता।

पता नहीं, क्या-क्या देखता रहा, पर एक रोज़ उसने कहा, 'अनु, तेरा यह ट्यूटर बहुत बदमाश है।'

मैंने उसकी बात उसी तरह सुनी, जैसे नींद के दौरान संगीत सुना जाता है।

उसे संगीत बहुत पसंद था। हमारे बीच यह एक नया धागा था।

एक शाम बहुत बारिश हो रही थी। मैं बाल्कनी में खड़ी थी। थोड़ा भीगती हुई। अपनी हथेली पर पानी की बूंदें रोप रही थी कि उसने कहा, 'गीलापन, इस धरती का सबसे सुंदर संगीत है। बारिश में बूंदें हमारी देह को साज़ की तरह बजाती हैं। संगीत कभी साज़ में नहीं होता। वह उस पल में पैदा हुए गीलेपन में होता है, जिस पल में बूंदें हमारी देह को छूती हैं।'


उसी समय मुझे याद आया। मैंने उससे कहा, 'अंदर चलो। एक अद्भुत चीज़ सुनाती हूं। इसे बहुत कम लोगों ने सुना है, लेकिन यही असली संगीत है।'

उसी दिन मेरा परिचय केनी जी से हुआ था। मैंने अंदर उसका गाना 'सॉन्गबर्ड' बजा दिया। वह बाल्कनी के दरवाज़े पर टिककर सुनता रहा। सिर झुकाए हुए। बीच में मैंने गाने की तारीफ़ में कुछ कहना चाहा, लेकिन उसने रोक दिया।

हम देर तक उसी गाने को दोहरा-दोहराकर सुनते रहे। मैं उससे कह रही थी, 'संगीत वही होता है, जिसमें किसी शब्द की ज़रूरत न पड़े। शब्द किसी भी संगीत की आत्मा में लगे घुन होते हैं। हम गीतों के बोल याद करते हैं, उनकी लय और धुन याद करते हैं, लेकिन उस याद में संगीत की आत्मा नहीं बसी होती। संगीत वह है, जब आप अकेले बैठे हों, एक निर्मम धुन आपके भीतर बज रही हो, और आपको उस स्मृति की अभिव्यक्ति के लिए किसी शब्द का सहारा न लेना पड़े।'

उसने कहा, 'बहुत कम लोग होते हैं, जो बिना किसी शब्द का सहारा लिए संगीत की उस स्मृति को अभिव्यक्त कर सकें। और वे लोग तो उनसे भी कम होते हैं, जो उस अभिव्यक्ति को ठीक-ठीक उसी तरह समझ सकें।'

मैंने कहा, 'इसीलिए तो संगीत सभी के बस की बात नहीं।'

उसने कुछ बोलने की कोशिश की, उसकी देह, हाथ और भंगिमाएं इस कोशिश की घोषणा करते हैं, लेकिन बोलने से पहले ही वह चुप हो गया।

थोड़ी देर बाद वह चला गया। मैं उसे छोडऩे कभी दरवाज़े तक नहीं जाती थी। कई बार मुझे पता ही नहीं होता था कि वह घर में आया हुआ है। कई बार किचन में आधा घंटा मेरी मां से बतियाने के बाद वह मेरे कमरे में आता था। मैं उसका आना भी नहीं जानती थी। उसका जाना भी नहीं जानती थी।

इसके तीसरे दिन मुझे किसी काम से कमरे से निकलना पड़ा। वह विदा हो रहा था। जूते पहनने के बाद उसने सोफ़े के पीछे से अपना बैग उठाया। उसके साथ एक केस भी था। उसका आकार देखकर ही लगता था कि उसके भीतर कोई साज़ है।

मैंने बहुत उत्सुकता से पूछा, 'इसमें क्या है?'

उसने कहा, 'सैक्सोफोन।'

'ओहो। तुमने सीखना शुरू कर दिया? एक ही दिन में केनी जी का इतना जादू हो गया तुम पर?'

वह मुस्कराने लगा।

मैंने कहा, 'सुनाओ, क्या पों-पां सीखी है तुमने?'

'अरे अभी? अभी तो मैं जा रहा हूं।'

मैंने जि़द पकड़ ली। उसे वापस अपने कमरे में ले गई। घर के सारे लोगों को बुला लिया।

वह बहुत शर्माया हुआ था। किसी तरह उस पूरे दृश्य से ग़ायब हो जाना चाहता था।

उसने केस से साज़ निकाला। सुनहरे रंग का सुंदर सैक्सोफ़ोन। कितना सुंदर कर्व था उसका। मैंने पहली बार किसी भी साज़ को इतना क़रीब से देखा था। मैंने पहली बार उसे छुआ था। वह केंचुल छोड़े सांप की तरह मदमाता चमचमा रहा था। एक सुनहरा सांप।

वह लड़का बार-बार अपनी जीभ से अपने होंठों को गीला कर रहा था। सभी उसमें जोश भर रहे थे।

उसने हवा भरी। पोंईं जैसी कोई आवाज़ आई। हम सब हंस पड़े।

फिर उसने बजाना शुरू किया। सैक्सोफ़ोन के स्वर अचरज के बोल पर लहरा रहे थे। मैं आंखें फाड़े उसे देख रही थी। वह आंखें मूंदे 'सॉन्गबर्ड' बजा रहा था।

उसने पूरा नहीं बजाया, आधे में ही छोड़ दिया। हम सब तालियां बजा रहे थे।

सबके चले जाने के बाद मैंने कहा, 'तुम तो छुपे रुस्तम निकले। मैं तो यह हुनर जानती ही नहीं थी।'

बहुत धीरे-से उसने कहा, 'जिस दिन हम लोग दूसरी कॉलोनी में रहने गए, तुमने उसी दिन से मुझे जानना बंद कर दिया है।'

अपना साज़ पैक करते समय उसने कुछ बोलना चाहा, फिर चुप हो गया।


'तुमने वही गाना बजाया, जो मुझे बेहद पसंद है। सिर्फ़ तीन दिन में ही तुमने यह सीख लिया?'

उस समय तो वह मुस्करा दिया। बाद में उसने बताया, बहुत हिचकते हुए, कि वह दो साल से सीख रहा है। वह संगीत क्लास से होकर ही हमारे यहां आता था। आने के बाद सोफ़े के पीछे अपना सामान रखता था। मैं कभी अपने कमरे से बाहर नहीं आती थी, सो मुझे पता ही नहीं कि वह हमेशा साज़ के साथ ही आता था।

उसके बाद अपने सैक्सोफ़ोन केस के साथ वह मुझे कहीं भी मिल जाता था। चौराहों पर, सड़कों पर, स्टेशनों पर। कई बार मेरे पीछे-पीछे चलते हुए आता, फिर मुस्कराते हुए साथ चलने लगता। वह कभी हाय या हैलो नहीं कहता था, न ही उनका जवाब देता था। वह आधा-आधा घंटा मेरे साथ चलता था, पर बमुश्किल कभी कोई एक वाक्य पूरा कहता।

कई बार ऐसा भी हुआ कि मैं राह चलते पलटकर देखती, और उसे आता पाती। मैंने दो-चार बार उसे टोका, 'तुम हमेशा मेरे पीछे-पीछे आते हो?'

उसने हमेशा अपने विशेष व भ्रष्ट उच्चारण में जवाब दिया, 'कोन्सीडेंस।'

मुझे बहुत बाद में पता चला कि वह कोई 'कोन्सीडेंस' नहीं था। वह उसी तरह मेरे पीछे-पीछे चलता है, जैसे प्रेम चला करता है।

प्रेम हमेशा आपके पीछे चलता है। उसे पहचानने के लिए आपको पलटकर देखना होता है। पलटकर देखना, एक तरह से याद करना होता है। याद करना, एक तरह से प्रेम करना होता है।

बिना याद किए कोई प्रेम संभव ही नहीं होता।

मैं बहुत याद करती थी। अब तक मुझे प्रेम हो चुका था।

जिस समय वह आता था, उस समय मैं घर पर कम ही होती थी। कई बार शाम को घर पहुंचने के बाद मुझे गाजर का हलवा मिलता, कभी बटाटा वड़ा, कभी प्याज़ के भजिए, तो कभी मेरे लिए खीर होती। हर ईद पर सेवइयां दे जाता था और ईदी भी। गणपति के दिनों में पीले मुलायम मोदक।

मां कहती, 'वह लड़का तुम्हारे लिए देकर गया है। उसकी मां ने बनाया था, तो उसने सोचा कि तुम्हारे लिए भी लेता आए।'

यह सब बचपन से चलता था, इसलिए इसमें कुछ भी अजीब नहीं था।

कुछ जगहों पर हम साथ भी गए थे। जैसे एक बार मुझे यूनिवर्सिटी की लाइब्रेरी में जाना था। विलेपार्ले में वीपी रोड पर ऑटो से उतरकर मैं उसे पैसे चुकाने लगी कि देखा, पिछले ऑटो से वह उतरा है। मैं उससे बातें करते हुए प्लेटफॉर्म पर पहुंची। उसने बताया कि वह कहीं नहीं जा रहा, पूरा दिन फ्री है, मैं चाहूं, तो वह मेरे साथ रह सकता है।

मुझे ठीक लगा। हम साथ गए। उसका सैक्सोफ़ोन केस, लोकल की भीड़ में सभी को परेशान कर रहा था। बहुत मशक़्क़त से वह उसे रैक पर रख पाया।
 
यूनिवर्सिटी के काम निपटाने के बाद वह बोला, 'चलो, तुम्हें कुछ दिखाते हैं।'

फ्लोरा फाउंटेन के आगे सड़क के किनारे बनी पटरियों पर वह मुझे ले चला। वहां हमेशा भीड़-भाड़ होती है, दुकानें लगी होती हैं, हर दुकान पर कोई न कोई, कुछ न कुछ ख़रीद रहा होता है। मुझे वहां पैदल चलने में हमेशा डर लगता है। आप चुपचाप सिर झुकाए चल रहे हों और अचानक आपके सामने कोई आ जाए, अपना सामान ख़रीद लेने की गुज़ारिश करते हुए। आप खड़े होकर सामान देखें, ख़रीद लें, तो ठीक है, न ख़रीदें, तो वह गालियां बकेगा। उसने दूर से ही आपको एक संभावित ख़रीदार मान लिया था और जब आप उसकी संभावना को ख़त्म कर देते हैं, तो समय का निवेश ज़ाया होने के कष्ट से वह चिढ़ जाता है।

उस रोज़ भी मेरे सामने एक निहायत काला आदमी खड़ा हो गया, जिसे देखते ही डर की झुरझुरी फूट पड़े। उसकी दाहिनी ओर चमकते हुए इस्पात की ज़ंजीरें लटकी हुई थीं। उसके चलने से उनसे भयानक आवाज़ निकलती थी। उन्हीं के बीच पुरुषों के बेल्ट लटके हुए थे। उसकी दाहिनी कलाई पर बच्चों के खिलौने थे। सिर पर आठ-दस टोपियां पहन रखी थीं। उसकी आंखों पर काला चश्मा था, माथे पर अलग तरह का चश्मा, गले में भी चश्मा, शर्ट के हर बटन के होल में एक चश्मा लटका हुआ था। बाईं ओर एक सुतली में बंधे हुए कई लेडीज़ पर्स थे। वह आदमी पूरी एक दुकान था। उसके सामानों के बीच उसकी देह बड़ी मुश्किल से दिखती थी। वह अपना कोई भी सामान ख़रीद लेने का आग्रह कर रहा था।

वह आदमी आज भी मेरे ज़ेहन में रहता है। मैं उसे अपने समय का रूपक मानती हूं।

मैं उसे मना कर रही थी कि कहीं और से चलते हैं, लेकिन वह इस क़दर चुप था कि ख़ुद उसी से डर लगने लगे। उसके और मेरे बीच की हवा रहस्य से गर्भवती थी।

थोड़ी दूर जाकर वह रुका।

वहां वायलिन की आवाज़ गूंज रही थी। उसने लोगों को हटाकर मेरे लिए जगह बनाई।


कांच से बने एक शो-रूम के बग़ल में एक बूढ़ा छोटी-सी कुर्सी पर बैठा था। नीला कोट, नीली पतलून, नीले मोज़े और काले जूते। वह शायद गहरी नीली रंग की टोपी भी पहनता था, क्योंकि उसने अपने सामने वही टोपी उल्टी रखी थी। उसमें पैसे रखे हुए थे।

वह आदमी वायलिन बजाकर पैसे जुटाता था।

इस लड़के ने अपना सैक्सोफ़ोन केस वहीं रखा और उस बूढ़े के सामने उकड़ूं बैठ गया। उसने बूढ़े के पैर छुए। स्पर्श के कारण बूढ़े ने आंखें खोल दीं, लड़के को देखकर मुस्कराया, सिर हिलाकर अभिवादन किया और आंखें मूंदकर वायलिन में खो गया।

उसने मुझे भी उकड़ूं बिठा लिया। मेरी ओर झुकते हुए धीरे-से बोला, 'यह ब्राह्म्स बजा रहा है, उसका 'वायलिन कन्चेर्तो इन डी मेजर'। यह दस मिनट का पीस है। बहुत ध्यान से सुनना। शायद आधे से ज़्यादा हो चुका है।'

कोई यक़ीन नहीं करेगा कि फ़ोर्ट के बाज़ार की पटरियों पर जहां हर समय आवाजाही और शोर होता है, वहां इतना सन्नाटा था कि वायलिन की पतली आवाज़, जो कि हृदय के भीतर कहीं दो हरी टहनियों के आपस में लिपटने की आवाज़ जैसी होती है, श्रेष्ठतम संगीत की तरह गूंज रही थी। बजाते-बजाते वह बूढ़ा खड़ा हो गया। उसकी देह उसकी लय पर लहराने लगी। उसका मुंह खुल गया था। भवें सिकुड़ गई थीं। अचानक वह स्थिर हो गया। आखि़री तीस सेकंड में उसकी उंगलियां वायलिन के निचले हिस्से पर आ गईं और उसकी आंखों से धारासार आंसू बहने लगे।

वह ऐसा संगीत था कि मेरे भीतर भी कुछ गलने लगा। मैं भी रोने लगी थी। मैं देखना चहती थी कि वह लड़का भी रो रहा है क्या, पर उससे पहले मैंने पाया कि वह रूमाल से आंख पोंछ चुका है।

संगीत समाप्त हुआ। बूढ़ा धम्म से बैठ गया। जैसे शो समाप्त होने के बाद परदा बहुत तेज़ी से गिरा हो। मौजूद लोगों ने ज़ोरदार ताली बजाई। मैंने पलटकर देखा, कई लोगों की आंखें भीगी हुई थीं। उसे घेरे इतने लोग खड़े थे कि बहुत अचरज हुआ, मुंबई के इस सबसे दौड़ते इलाक़े में, जहां लोग नाश्ता भी चलते-चलते करते हैं, लोगों में संगीत के लिए इतना प्रेम बाक़ी था कि वे खड़े होकर सुन रहे थे, और उसके भावलोक में आंखों को गीला भी कर रहे थे।

उसकी टोपी नोटों से भर गई।

अपनी कुर्सी पर बैठा वह हांफ रहा था।

भीड़ छंट गई। इस लड़के ने फिर उस बूढ़े के पैर छुए और बोला, 'बहुत सुंदर बजाया।'

वह मुस्करा दिया। पूछा, 'कैसे हो तुम? कैसा चल रहा है तुम्हारा रियाज़?'

इसने जवाब दिया, 'अच्छा हूं। इन दिनों मोत्ज़ार्ट की पचीसवीं सिंफनी पर काम कर रहा हूं।'

'सैक्सोफ़ोन पर बहुत मुश्किल होगा।'

'हां, उसकी धुन परिचित नहीं लगती, लेकिन अलग ही मज़ा आता है।'

'अकेले मत बजाओ। भटक जाओगे। पचीसवीं के लिए कम से कम पांच सैक्सो$फोन चाहिए।'

'अभी तो मैं अकेला ही हूं। कुछ दोस्तों से बात करूंगा।'

फिर वे दोनों ही चुप हो गए। बूढ़ा अपनी उंगलियों को धीरे-धीरे सहलाता रहा। इस लड़के ने उसकी टोपी से पैसे निकाले, गिने और बूढ़े की जेब में डाल दिए।

फिर बोला, 'चाइकोवस्की सुनाएंगे?'
'क्या सुनना है उसका?'
'वायलिन कन्चेर्तो इन डी मेजर।'
'अभी तो डी मेजर ही बजाया था।'
'वह तो ब्राह्म्स था। चाइकोवस्की सुनना है, वह भी आपसे।'
'बहुत लंबा है।'
'सिर्फ़ फर्स्‍ट मूवमेंट ले लीजिए।'
'आज एक सपना देखा था। एक छोटी-सी बच्ची आई है। ए मेजर में मोत्ज़ार्ट का वायलिन कन्चेर्तो नंबर 5 सुनना चाहती है।'
'हा हा हा। यहां भी एक बच्ची आई है। विलेपार्ले से। मेरी बचपन की दोस्त है।'
उसने मेरी ओर इशारा किया। बूढ़े ने बहुत ग़ौर से मुझे देखा। फिर अपना कांपता हुआ हाथ मेरी ओर बढ़ाया। इसी हाथ से वह थोड़ी देर पहले वायलिन की स्टिक पकड़े हुए था। मेरे हृदय के भीतर दो हरी टहनियां गले लगकर रो रही थीं, उनमें से एक का आकार इस हाथ जैसा ही था।
मुझसे हाथ मिलाते हुए बोला, 'यू आर वेरी ब्यूटीफुल, माय चाइल्ड।'
'लेकिन मैं इसे चाइकोवस्की सुनाना चाहता हूं। वह भी आपसे। फ़र्स्‍ट मूवमेंट तो सिर्फ़ दस मिनट में हो जाएगा, बाबा।
'ठीक है। कोशिश करता हूं। बहुत थक गया हूं।'

थोड़ी देर तक वह चुप रहा। शायद अपने दिमाग़ की गलियों में संगीत की पैदल स्मृतियों का आवाह्न कर रहा हो। या हवन करने से से पहले एक विशेष कि़स्म का शांति-पाठ।

वह खड़ा हुआ। उसके साथ हम भी खड़े हो गए। उसने वायलिन को साधना शुरू किया। बहुत धीमे-धीमे उसमें से सुर फूटने लगे। मैं बहुत ध्यान से सुन रही थी, क्योंकि यह लड़का मुझे ख़ासतौर पर यह संगीत सुनाना चाहता था। वह ऐसा संगीत नहीं था, जो पहली ही बार में समझ में आ जाए, जो पहली ही बार में दिल के भीतर उतर जाए, लेकिन वह महान संगीत था।

मैं, कठपुतलियों की तरह झूम-झूमकर वायलिन बजाते बूढ़े को देख रही थी। वह धुन हकबकाई हुई मेरे भीतर प्रवेश कर रही थी। मैं महसूस कर सकती थी, वहां बेचैनी थी। वह संगीत मेरे कानों से मेरे हृदय में गया था, लेकिन वहां भटक रहा था। मेरा हृदय उसके लिए एक अनजान द्वीप था, जहां पहुंचकर वह डर गया था। हृदय की इस निर्जनता में वह संगीत ख़ुद को ही संदेह से देख रहा था।

झूमता हुआ बूढ़ा शांत हो गया। उसने थोड़ा-सा ही बजाया था। बीच में ही रोक कर बैठ गया।

इस बार कम भीड़ जुटी थी। इस बार उसने चरम पर पहुंचने से पहले ही रोक दिया था।

बैठने के बाद वह धीरे-से बोला, 'सुनो, चाइकोवस्की समझने के लिए यह बच्ची अभी बहुत छोटी है। इसे विवाल्दी का 'फोर सीजन्स : स्प्रिंग' सुनाना। इसे वहां से मज़ा आना शुरू होगा।'

थोड़ी देर चुप रहने के बाद हम वहां से विदा हुए।

उन्हीं पटरियों से लौटते हुए चर्चगेट के रास्ते में उसने पूछा, 'कैसा लगा?'

'पहले वाले ने तो रुला दिया था, लेकिन दूसरा वाला जब तक मैं समझ पाती, तब तक उन्होंने बंद कर दिया।'

'हां। यह बहुत कठिन कन्चेर्तो माना जाता है। शायद सबसे कठिन। इसे बजाना भी मुश्किल है, सुनना भी मुश्किल, समझना तो और मुश्किल। जब चाइकोवस्की ने इसे लिखा था, उसके कई बरस बाद लोगों को इसकी सुंदरता समझ में आ पाई। संगीत वह फूल है, जो हमेशा देर से खिलता है।'

मैं चुपचाप उसके साथ चलती रही।


वह बोला, 'एक सुंदर वायलिन कन्चेर्तो, प्रेम की तरह होता है। देर से समझ में आने वाले प्रेम की तरह। कुछ लोगों का जीवन वायलिन कन्चेर्तो की तरह बजता है। जब आप उस जीवन को बीसियों बार याद करते हैं, तब आपको समझ में आता है कि अरे, वह तो आपसे प्रेम करता था।'

मैं अब भी चुप थी।

'तुम्हें इसकी कहानी तो पता नहीं होगी। सुनोगी?'

'हां। ज़रूर। इन फ़ैक्ट, वह संगीत मेरे भीतर लगातार बज रहा है और इस समय मैं रोना चाहती हूं। कोई कहानी सुनाकर इस अनुभूति से बाहर कर लो मुझे।'

'हम्म। यह कन्चेर्तो चाइकोवस्की के प्रेम का प्रायश्चित है। तुम्हें पता है, जो लोग प्रेम में बहुत गुनाह करते हैं, छल, उपेक्षा और अपमान करते हैं, आए हुए प्रेम को ठुकरा देते हैं, दिल से निकलते प्रेम को छिपा ले जाते हैं, प्रेम के साथ बर्बरों जैसा व्यवहार करते हैं, अगले जन्मों में वे ही संगीत के रचयिता होते हैं। संगीत हमारी आत्मा का लयबद्ध रुदन है। ऐसी लयबद्धता, जिसमें क़हक़हा कभी रुदन की तरह लगता है और रुदन कभी क़हक़हे की तरह।

'प्रेम का अपमान करोगे और अगले जन्म में पेड़ बन गए, तो तुम्हारी लकड़ी से तबला बनेगा। पशु बन गए, तो तुम्हारे चमड़े से वाद्ययंत्र बनेंगे। संगीत में बजाने वाला भी प्रेम का अपराधी होता है और बजने वाला भी। अच्छा संगीत हमें क्यों रुला देता है? क्योंकि ख़ुद हम अपने अपराधों से अच्छी तरह वाकि़फ़ होते हैं।

'अपनी समलैंगिकता को समाज से छिपाने के लिए चाइकोवस्की ने अपनी एक छात्रा से शादी कर ली। वह उससे प्रेम नहीं करता था। अंतोनिया नाम की वह लड़की साधारण पढ़ाई, साधारण समझ और ग़रीब परिवार से थी। चाइकोवस्की को लगा कि उसकी साधारणता को वह नियंत्रित कर लेगा और पुरुषों के प्रति अपने प्रेम को चलाए रख सकेगा। पर वैसा नहीं हुआ।

'अंतोनिया कला में साधारण थी, लेकिन प्रेम की इच्छा से भरी हुई थी। उसने चाइकोवस्की से ख़ूब प्रेम चाहा और उसे नहीं मिला। पहले उसे समझ में ही नहीं आया कि ऐसा क्यों हो रहा है? यह संगीतकार हमेशा उदासीन रहता है, कमरे में किनारे बैठा रहता है, बेडरूम में दूर हो जाता है, प्रेम मांगने पर खाने को दौड़ता है या फिर अपने साज़ों में गुम हो जाता है। आखि़र क्यों?

'बाहर के लोगों से उसे चाइकोवस्की की समलैंगिकता के बारे में पता चला। पहले उसे भरोसा नहीं हुआ, फिर एक-एक कर प्रमाण मिलते गए। वह हर सुबह अपने पति के प्रति प्रेम की भावना से भरी उठती थी और रात होते-होते अतृप्ति की निराशा में डूब जाती। हर रात के साथ प्रेम की उसकी इच्छा बढ़ती जाती। हर दिन के साथ उसकी आकांक्षाएं आसमान छूने जातीं।

'चाइकोवस्की में इतना साहस कभी नहीं आ पाया कि वह उसे सचाई बता सके। उसने वह संबंध छल के आधार पर, जीवन-भर छल करते रहने के लिए ही बनाया था। लेकिन अंतोनिया अपनी साधारणता में भी अग्नि थी। एक दिन उसका विस्फोट हो गया।

'कुछ ही दिनों में प्रेम की आकांक्षा और अ-प्रेम की उदासीनता का यह संघर्ष इतना बढ़ गया कि भयानक झगड़े होने लगे। चाइकोवस्की का पुरुष-ईगो चोटिल होने लगा। उसने अपना संतुलन खोना शुरू कर दिया। एक रात उसने नदी में कूदकर जान देने की सोच ली, लेकिन अपने साज़ों को देखकर रुक गया। वह तो संगीत रचने इस दुनिया में आया था। लेकिन उस रात उसे विश्वास हो गया कि अगर वह इस झगड़ालू औरत के साथ रहेगा, तो उसका संगीत हमेशा के लिए समाप्त हो जाएगा।


'सिर्फ़ छह हफ़्तों में दोनों अलग हो गए। अंतोनिया सदमे में थी। उसकी समझ में नहीं आया कि सिर्फ़ प्रेम मांग लेने-भर से कोई रिश्ता कैसे समाप्त हो सकता है?  लेकिन दोनों ने कोई पहल नहीं की। दोनों अपनी अतृप्ति के शिखर पर बैठे थे। दोनों अलग रहने लगे। दोनों असंतुलित रहने लगे।

'अंतोनिया अपने सवालों से परेशान रहने लगी। चाइकोवस्की अपने चोटिल ईगो व क्रोध से। अभी भी वह न तो सचाई बता पा रहा था, न ही स्वीकार कर पा रहा था।

'लेकिन शायद उसके भीतर एक पछतावा भी था। कम से कम वह ख़ुद जानता था कि उसने अंतोनिया के साथ छल किया है। वह पछतावा इस कन्चेर्तो के रूप में लिखा गया। लंबे समय तक ख़ुद चाइकोवस्की इसे पछतावे की तरह नहीं देख पाया।

'अंतोनिया उसकी प्रतीक्षा करती रही। उसकी प्रेमेच्छा और कामेच्छा उत्तुंग हो चुकी थीं। वह नहीं रुक पाई। कुछ बरसों बाद उसके अनेक पुरुषों से संबंध बन गए। उनसे उसे तीन बच्चे हुए। उसने तीनों को नहीं पाला। अस्पतालों में छोड़ दिया।

'चाइकोवस्की ने उसे तलाक भी नहीं दिया। साथ भी नहीं रहा। जब भी उसे अंतोनिया के प्रेमियों के बारे में पता चलता, वह पीड़ा से तड़प उठता। तब उसे अहसास होता कि वह उस स्त्री से प्रेम करने लगा था।

'अलग होने के बाद वह अवसाद में चला गया। डॉक्टरों के मना करने के बाद भी उसने यह कन्चेर्तो लिखा था। उसे वायलिन बजाना नहीं आता था, लेकिन अपने एक वायलिनवादक समलैंगिक प्रेमी की सहायता से उसने इसे पूरा किया।

'यह उसका आखि़री बड़ा काम था। तब उसकी उम्र महज़ 38 साल थी। उसे हमेशा डर लगता था कि अगर वह उस औरत के साथ रहा, तो उसका संगीत समाप्त हो जाएगा। पर हुआ उल्टा ही। उसने उस औरत का साथ छोड़ा और उसका संगीत समाप्त होने लगा। इस कन्चेर्तो के बाद वह कुछ भी बड़ा नहीं रच पाया। उसने दुनिया-भर में अपना संगीत सुनाया, लेकिन वह सब पुराना संगीत था। उसकी प्रतिष्ठा कम नहीं हुई थी, लेकिन अपनी गिरावट को उसके सिवाय कोई नहीं समझ पाया। संगीत एकमात्र कला है, जो कभी झूठ नहीं बोलती। उसके कहे सच को सभी न समझें, उसे रचनेवाला ज़रूर समझ जाता है।

'इस कन्चेर्तो को बरसों तक लोगों ने नहीं समझा। वायलिनवादकों ने इसे बजाने से इंकार कर दिया। आलोचकों ने इसकी निंदा में पन्ने रंग दिए।

'आखि़री बरसों में भीतर ही भीतर चाइकोवस्की को अहसास हुआ कि हां, वह उस औरत से प्रेम करता था। बहुत प्रेम करता था। अगर वह अपनी बातें कहता, दिल से कहता, उसके प्रति प्रेम का भाव जताकर कहता, तो अंतोनिया उसके साथ रहती। दिल के भीतर इस अहसास ने जन्म लिया और दिल के बाहर दुनिया ने इस कन्चेर्तो को समझना शुरू किया।

'संगीत ध्वनियों से बनता है और प्रेम अभिव्यक्तियों से। वह संगीतकार था, ध्वनियों के पीछे दौड़ता रहा, अभिव्यक्तियों से दूर भागता हुआ। प्रेम की आकांक्षा और अक्षमता की उदासीनता के बीच हुए संघर्ष ने उसके जीवन को जटिलताओं से भर दिया। इसीलिए यह कन्चेर्तो इतना जटिल है। दुनिया के कठिनतम संगीत में से एक। इसमें हम अतृप्त प्रेम के उन्माद के क़रीब पहुंचती एक स्त्री की सुबक सुन सकते हैं। इसमें हम असमंजसपूर्ण मौन के एक क़ैदी की, क़ैद से निकल भागने की दारुण तड़प को सुन सकते हैं।

'प्रसिद्धि के शिखर पर बैठे हुए 53 की उम्र में चाइकोवस्की की मृत्यु हो गई। उसके मरने के कुछ ही बरसों बाद अंतोनिया पागल हो गई। बीस साल तक पागलख़ाने में रहने के बाद उसकी भी मौत हो गई।'

यह कहानी पूरी होने के बाद हममें से कोई कुछ बोल नहीं पाया। हम दोनों ने अपना पूरा सफ़र चुप्पी के वाहन में बैठकर तय किया। मैं घर पहुंचने के बाद भी बहुत देर तक चुप ही रही। वह लड़का अगले पंद्रह दिनों तक मुझसे नहीं मिला। उसका न मिलना उसकी चुप्पी थी।

उसने मुझे कई बार उस हरे लड़के के साथ देखा था। उसके चेहरे पर हमेशा उदासी और चुप्पी होती थी, इसलिए मैं यह नहीं कह सकती कि वह मुझे उस लड़के के साथ देखकर उदास हो जाता था या कुछ और।

एक रोज़ मैं हरे लड़के से बुरी तरह टूट गई।

उन दिनों मैं अपने कमरे की दीवारों पर अवसाद के भित्तिचित्र बनाती थी। अपने बिस्तर को समंदर मानती थी। पीठ के बल उस पर लेटने को मैं, पीठ के बल तैर कर उदासी के सारे महासागरों को पार कर लेने के हुनर का अभ्यास मानने लगी थी। मेरा लेटना स्थिर था। मेरे तैरने में कहीं कोई गति नहीं थी।

उस समय वह मेरे सिरहाने बैठा रहता। वह मेरे भीतर की ख़ामोशी की आदमक़द प्रतिलिपि-सा होता। उसने मेरे कुछ प्रेमों को क़रीब से देखा। जब मैं 'डैफ़ोडिल्स' या 'रॉक अराउंड द क्लॉक' में पेट शॉप बॉयज़ के किसी गाने पर थिरक रही होती, कई बार वह भी उन्हीं जगहों पर होता, लेकिन मेरे पास न आता।

प्रेम के दिन टूट जाने के दिन होते हैं। शुरू में ऐसा लगता कि सबकुछ फिर से बन रहा है, लेकिन प्रेम, बैबल के टॉवर की तरह होता है। सबसे ऊंचा होकर भी अधूरा कहलाता है।

जब मनुष्‍यों ने बैबल का टॉवर बनाना शुरू किया था, तब ईश्‍वर बहुत ख़ुश हुआ था. धीरे-धीरे टॉवर आसमान के क़रीब पहुंचने लगा. ईश्‍वर घबरा गया. उसे लगा, मनुष्‍य उसे ख़ुद में मिला लेंगे. वे सारे मनुष्‍य एक ही भाषा में बात करते थे. ईश्‍वर ने उनकी भाषा अलग-अलग कर दी. उनमें से कोई भी एक-दूसरे को नहीं समझ पाया. सब वहीं लड़ मरे.

जैसे मनुष्य की रचना ईश्वर ने की है, उसी तरह प्रेम की अनुभूति की रचना भी उसी ने की होगी। ईश्वर शैतान से उतना नहीं डरता होगा, जितना मनुष्य से डरता है। उसी तरह वह मनुष्य से इतना नहीं डरता होगा, जितना वह प्रेम से डरता है। वह प्रेम को बढ़ावा देता है, और प्रेम जैसे-जैसे ऊंचाई पर जाता है, आसमान छू लेने के क़रीब पहुंच जाता है, ईश्वर उस प्रेम से घबरा जाता है। उसके बाद वह दोनों प्रेमियों की भाषा बदल देता है। जब तक दोनों प्रेमियों की भाषा एक है, तब तक वे प्रेम की इस मीनार का निर्माण करते चलते हैं। जिस दिन उनकी भाषा अलग-अलग हो जाती है, उसी दिन वे एक-दूसरे को समझना बंद कर देते हैं और उस मीनार की अर्ध-निर्मित ऊंचाई से एक-दूसरे को धक्का मारकर गिरा देते हैं।

नीचे गिरने के बाद हम पाते हैं कि हमारे सिवाय और कोई चीज़ नीचे नहीं गिरी।

ऐसे दिनों में मेरी भाषा ख़ामोशी होती। इस नीले लड़के की भाषा तो हमेशा ही ख़ामोशी थी। संगीत की तरह।

ये हमारी नज़दीकी के दिन होते।

चोटिल दिनों में मैं रोती थी। वह मुझे सांत्वना देता था।

मेरे आंसुओं को सोख लेने वाली रूमाल सिर्फ़ उसी के पास थी और वह अपना रूमाल कभी घर नहीं भूलता था।

रूमाल जेब में रखते हुए एक दिन उसने कहा, 'अगले महीने तुम्हारा जन्मदिन है। एक बहुत ख़ूबसूरत तोहफ़े का इंतज़ार करो।'
'क्या देने वाले हो?'
'सिर्फ़ इंतज़ार करो। बहुत सुंदर होगा। तुम पूरे जीवन उसे संभालकर रखना चाहोगी।'
'ज़रूर तुम मेरे लिए किसी नये गाने का रियाज़ कर रहे हो।'
'हां, एकदम नया गाना। तुमने सोचा भी नहीं होगा। वह ऐसा ही संगीत होगा, जिसके लिए किसी शब्द की ज़रूरत न होगी। किसी साज़ की भी नहीं।'

मैं उसे देखती रही। वह जानता है कि इन दिनों मैं बहुत उदास रहती हूं। वह मुझे ख़ुश करने के लिए, मेरे भीतर उत्साह का संचार कर देने के लिए कुछ भी करना चाहता है।

मैं अपनी जगह से उठी। कैसेटों की आलमारी में खोजने लगी। मुझे एक गाने की तलाश थी। क़रीब पचीस कैसेटों को उलटने-पुलटने के बाद मुझे वह मिला। बर्ट बैकेरैक का वह गाना मद्धिम आवाज़ में कमरे में गूंजने लगा- 'इट्स लव दैट रियली काउंट्स इन द लॉन्ग रन।'

बजते हुए गाने के बीच मैंने वह छूटी हुई बात कही, 'मैं इंतज़ार करूंगी।'



और मैं आज तक इंतज़ार कर रही हूं, यह जानते हुए कि अब वह कभी नहीं आएगा।

मेरा जन्मदिन आने से पहले उसकी मौत की ख़बर आ गई।

मुंबई में दंगे शुरू हो गए थे। दौड़ा-दौड़ाकर मारा जा रहा था। सोते में घरों में आग लगाई जा रही थी। चमचमाने वाली दीवारें कालिख से पुत गई थीं। ऐसे ही किसी रोज़ वह दंगे में फंस गया था। बीच सड़क। अपने किसी परिचित के साथ। दंगाइयों को देख वे दोनों गली से निकल भागना चाहते थे, औरों की तरह, लेकिन उसके सैक्सोफ़ोन केस ने उन बेरहमों को आकर्षित किया। उन्हें लगा, इस केस में कोई हथियार है। उन्होंने दौड़ाकर उसे रोका, उसका केस खोलकर देखा और उसका साज़ एक जलते हुए घर में फेंक दिया।

फिर उन्होंने उस लड़के का धर्म पूछा। उसने जो भी बताया, उस पर उन्हें यक़ीन नहीं आया। उन्होंने उसकी पैंट उतारकर देखा और उसे मार डाला। अब यह मत पूछना, वह किस धर्म का था?

अगर हिंदू बनकर सुनोगे, तो उसे मुसलमान मान लेना। और मुसलमान बनकर सुनोगे, तो उसे हिंदू मान लेना। ऐसे लड़के हमेशा उपेक्षित विपक्ष में खड़े मिलते हैं।

अपने प्रेम के लिए हल्ला मचाकर दावा करने वाली भीड़ के बीच वह चुपचाप प्रेम कर रहा था। यह उपेक्षित विपक्ष में बैठी हुई कार्यवाही थी।

वह मेरे जीवन की पहली मौत थी, किसी ऐसे को, जिसे मैं बहुत क़रीब से जानती थी, उसे पसंद करती थी, ऐसे की मौत। मैं पहले से उदास थी। अब मैं धराशायी हो गई।

जीते-जी उसने अपना प्रेम नहीं बताया था, मरने के बाद उसका प्रेम नहीं छिप पाया। बहुत कम लोग उसके क़रीब थे। उनमें भी यह बात सिर्फ़ मुझी को नहीं पता था कि वह मुझसे प्रेम करता है।

कई दिनों बाद मैं उसकी मां से मिली। उसे याद कर मुझे रुलाई फूट पड़ी। उसकी बहनों ने मुझे संभाला। जब मैं चुप हुई, तब उसकी मां ने समझाना शुरू किया, 'अब तुम उसका इंतज़ार मत करो। तुम शादी कर लो।'

उस दुख में भी मैं इस बात से चौंक गई थी।

उसकी मां ने कहना जारी रखा, 'वह हमेशा बताता था कि तुम उसका इंतज़ार कर रही हो। तुम्हारे जन्मदिन पर हम सब तुम्हारे घर आने वाले थे, तुम्हारा हाथ मांगने। तुम्हारी मां को भी यह बात पता थी।'

इस समय मेरी हर सांस चकित चुप्पियों का उच्छवास है।

'वह हर शाम तुम्हारे बारे में बातें करता था। जब तुम उसके साथ बाइक पर घूमती, जब तुम उसके साथ किसी पब में नाचती, या जब डैफ़ोडिल्स या फोर सीज़न्स या प्रियदर्शिनी में तुम दोनों लंच करते, उस रोज़ वह सारा समय मुस्कराता था। उसकी दुर्लभ मुस्कान। लौटकर वह तुम्हारी हर पसंद बताता।'

सच तो यह था कि मैं उसके साथ इन जगहों पर कभी नहीं गई। हां, दूसरों के साथ गई थी, तब उसने मुझे एकाध बार देखा ज़रूर था। वह दूसरों की उपस्थिति को अपनी उपस्थिति मान लेता है और इस तरह हम दोनों के साथ की कल्पना कर लेता है। उसकी मां और बहनें यह विश्वास करती हैं कि हम दोनों एक-दूसरे से प्रेम करते थे।

उस शाम वे लोग और भी कई बातें याद करते रहे, जो दरअसल कभी घटी ही नहीं थीं। वे मुझे उस प्रेम की कहानियां बताते रहे, जो कभी हुआ ही नहीं था। वे उन नृत्यों का बयान कर रहे थे, जिनकी थिरक मेरे पैरों में थी ही नहीं।

लेकिन क्या सच में नहीं थी?

वे चीज़ें कभी घटित नहीं हुई थीं, फिर भी वे चीज़ें अस्तित्व में थीं। वे हमेशा से थीं।

किसी चीज़ का होना जानने के लिए उसका घटित होना क़तई ज़रूरी नहीं होता।

मैं घटित होने की प्रतीक्षा में थी, होने की अनदेखी से भरी हुई।

मैं उन्हें और नहीं सुन पाई।

घर पहुंचते-पहुंचते मेरा गोरा शरीर चमचमाती हुई काली वायलिन में बदल गया। फोर्ट का वह बूढ़ा, ईश्वर की भूमिका में है और उसने उस लड़के को अपनी छड़ी में बदल दिया है, जिसे वह वायलिन पर घिस रहा है।

जिसके रोने की आवाज़ पूरे वातावरण में गूंज रही है, वह एक लड़की की क़दकाठी वाली वायलिन है।

मेरे भीतर प्रायश्चित का जो संगीत बज रहा है, वह चाइकोवस्की का कन्चेर्तो है, जिसे बहुत देर से समझा जाता है।

रचयिता जब अपने संगीत को प्रायश्चित मानता है, तब लोग उसके प्रायश्चित को संगीत मानने लगते हैं।

उस शाम मैं अपने साथ उस लड़के की डायरी लेती आई थी, जिसमें मेरे नाम से कुछ नहीं लिखा गया था। उसमें संगीत के नोट्स थे, कुछ अधूरे वाक्य थे और एक लड़की का चित्र बनाने की नौसिखिया कोशिशें थीं। उसके एक पेज पर लिखा हुआ था:

मैं तुम्हारे भीतर उस संगीत की तरह बजते रहना चाहता हूं, जिसके लिए किसी शब्द की ज़रूरत नहीं होती। शब्द किसी भी प्रेम की आत्मा में लगे हुए घुन हैं। हम शब्दों को याद करते हैं और प्रेम को भूल जाते हैं। तुम मुझे एक निर्मम धुन की तरह महसूस करना। यह संगीत को समझ पाने की तुम्हारी क्षमता की परीक्षा है और हां, प्रेम को समझ पाने की भी।
सुनो, तुमने ऐसा ही चाहा था न?

मुझे नहीं पता, कभी भी नहीं पता होता, मैंने क्या चाहा था।

मैं क्षमता की परीक्षा में असफल हुई थी। जिस भाषा की मांग मैंने की थी, उस लड़के ने उसी भाषा में प्रेम दिया था, लेकिन बैबल की मीनार फिर अधूरी रह गई।

मौन की भाषा का प्रस्ताव करने के बाद, मैं ख़ुद उस भाषा को भूल गई।

वह मेरी आंख के सरोवर का नीलकमल है।
वह लड़का मेरे गले में रुंधता है।
किसी-किसी रोज़ मुझे अपना कंठ नीला लगता है। 

बुधवार, 5 सितंबर 2012

हमें क्यों चाहिए लोकपाल

प्रश्न 1 . हमें क्यों चाहिए लोकपाल?


मोटे तौर पर, लोकपाल कानून बनवाने के दो मकसद हैं -
पहला मकसद है कि भ्रष्ट लोगों को सज़ा और जेल सुनिश्चित हो। भ्रष्टाचार, चाहे प्रधानमंत्री का हो या न्यायधीश का, सांसद का हो या अफसर का, सबकी जांच निष्पक्ष तरीके से एक साल के अन्दर पूरी हो। और अगर निष्पक्ष जांच में कोई दोषी पाया जाता है तो उस पर मुकदमा चलाकर अधिक से अधिक एक साल में उसे जेल भेजा जाए।
दूसरा मकसद है आम आदमी को रोज़मर्रा के सरकारी कामकाज में रिश्वतखोरी से निजात दिलवाना। क्योंकि यह एक ऐसा भ्रष्टाचार है जिसने गांव में वोटरकार्ड बनवाने से लेकर पासपोर्ट बनवाने तक में लोगों का जीना हराम कर दिया है। इसके चलते ही एक सरकारी कर्मचारी किसी आम आदमी के साथ गुलामों जैसा व्यवहार करता है।
प्रस्तावित जनलोकपाल बिल में इन दोनों उद्देश्यों को ध्यान में रखते हुए सख्त प्रावधान रखे गए हैं। आज किसी भी गली मोहल्ले में आम आदमी से पूछ लीजिए कि उन्हें इन दोनों तरह के भ्रष्टाचार से समाधान चाहिए या नहीं। देश के साथ ज़रा भी संवेदना रखने वाला कोई आदमी मना करेगा? सिवाय उन लोगों के जो व्यवस्था में खामी का फायदा उठा उठाकर देश को दीमक की तरह खोखला बना रहे हैं। 

जन्तर मन्तर पर अन्ना हज़ारे के साथ लाखों की संख्या में खड़ी हुई जनता यही मांग बार बार उठा रही थी। देश के कोने कोने से लोगों ने इस आन्दोलन को समर्थन इसलिए नहीं दिया था कि केन्द्र और राज्यों में लालबत्ती की गाड़ियों में सरकारी पैसा फूंकने के लिए कुछ और लोग लाएं जाएं। बल्कि इस सबसे आजिज़ जनता चाहती है कि भ्रष्टाचार का कोई समाधान निकले, रिश्वतखोरी का कोई समाधान निकले। भ्रष्टाचारियों में डर पैदा हो। सबको स्पष्ट हो कि भ्रष्टाचार किया तो अब जेल जाना तय है। रिश्वत मांगी तो नौकरी जाना तय है। 
एक अच्छा और सख्त लोकपाल कानून आज देश की ज़रूरत है। लोकपाल कानून शायद देश का पहला ऐसा कानून होगा जो इतने बड़े स्तर पर जन चर्चा और जन समर्थन से बन रहा है। जन्तर मन्तर पर अन्ना हज़ारे के उपवास और उससे खड़े हुए अभियान के चलते लोकपाल कानून बनने से पहले ही लोकप्रिय हो गया है। ऐसा नहीं है कि एक कानून के बनने मात्र से देश में भ्रष्टाचार खत्म हो जाएगा या इसके बाद रामराज आ जाएगा। जिस तरह भ्रष्टाचार के मूल में बहुत से तथ्य काम कर रहे हैं उसी तरह इसके निदान के लिए भी बहुत से कदम उठाने की ज़रूरत होगी और लोकपाल कानून उनमें से एक कदम है।

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प्रश्न २. क्या कहता है जन लोकपाल कानून?


अन्ना हज़ारे साहब ने भ्रष्टाचार के खिलाफ एक सख्त कानून जन लोकपाल बिल पारित कराने के लिए देशभर में एक देशव्यापी आन्दोलन छेड़ा। ये जन लोकपाल कानून आखिर है क्या? आईए इसके बारें में हम थोड़ा और जानें?
लोकपाल और लोकायुक्त का गठन
केन्द्र के अन्दर एक स्वतन्त्र संस्था का गठन किया जाएगा, जिसका नाम होगा जन लोकपाल। हर राज्य के अन्दर एक स्वतन्त्र संस्था का गठन किया जाएगा, जिसका नाम होगा जन लोकायुक्त। ये संस्थाएं सरकार से बिल्कुल पूरी तरह से स्वतन्त्र होगी। आज जितनी भी भ्रष्टाचार निरोधक संस्थाएं हैं जैसे सीबीआई, सीवीसी, डिपार्टमेण्ट विजिलेंस, स्टेट विजिलेंस डिपार्टमेण्ट, एण्टी करप्शन ब्रांच यह सारी की सारी संस्थाएं पूरी तरह सरकारी शिकंजे के अन्दर हैं। यानि कि उन्हीं लोगों के अन्दर हैं जिन लोगों ने भ्रष्टाचार किया है। यानि की चोर जो है वो ही पुलिस का मालिक बन बैठा है। हमने यह लिखा है कि इस कानून के तहत जन लोकपाल और जन लोकायुक्त यह पूरी तरह से सरकारी शिकंजे से बाहर होगी।
जन लोकपाल का स्वरूप
जन लोकपाल में दस सदस्य होंगे। एक चैयरमेन होगा उसी तरह से हर राज्य के जन लोकायुक्त में दस सदस्य होंगे एक चैयरमेन होगा।

------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------प्रश्न ३ . लोकपाल और लोकायुक्त का काम


आम आदमी की शिकायत पर सुनवाई करेगा 
जन लोकपाल केन्द्र सरकार के विभागों में हो रहे भ्रष्टाचार के बारे में शिकायतें प्राप्त करेगा और उन पर एक्शन लेगा। जन लोकायुक्त उस राज्य के सरकारी विभागों के बारे भ्रष्टाचार की शिकायतें लेगा और उन पर कार्यवाही करेगा।
तय समय सीमा में जांच पूरी कर दोषी के खिलाफ मुकदमा चलाना 
देशभर में पंचायत से लेकर प्रधानमंत्री कार्यालय तक हर जगह हम भ्रष्टाचार देखते हैं। मिड डे मील में भ्रष्टाचार है, नरेगा में भ्रष्टाचार है, राशन में भ्रष्टाचार है, सड़क के बनने में भ्रष्टाचार है, उधर 2जी स्पेक्ट्रम का भ्रष्टाचार, कॉमनवेल्थ खेलों में भ्रष्टाचार है। आदर्श स्केम है, मंत्रियों का भ्रष्टाचार है और गांव में सरपंच का भ्रष्टाचार है। 
इस कानून के तहत यह कहा गया है कि कोई भी व्यक्ति अगर लोकपाल में या लोकायुक्त में जाकर शिकायत करता है तो उस शिकायत के ऊपर जांच 6 महीने से 1 साल तक के अन्दर पूरी करनी पड़ेगी। अगर शिकायत की जांच करने के लिये लोकपाल के पास कर्मचारियों की कमी है तो लोकपाल को यह छूट दी गई है कि वह ज्यादा कर्मचारियों को लगा सकता है, लेकिन जांच को उसे एक साल के अन्दर पूरा करना पड़ेगा।
भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज़ उठाने वालों की सुरक्षा
अगर आज भ्रष्टाचार के खिलाफ शिकायत करते हैं तो आपकी जान को खतरा होता है। लोगों को मार डाला जाता है, उनको तरह-तरह से प्रताड़ित किया जाता है। लोकपाल के पास यह पावर होगी और उसकी यह जिम्मेदारी होगी कि भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज़ उठाने वालों को संरक्षण देने का काम लोकपाल का होगा।
भ्रष्ट निजी कम्पनियों के खिलाफ कार्रवाई 
अगर कोई कम्पनी या कोई बिजनेसमैन सरकार में रिश्वत दे कर कोई नाजायज काम करवाता है, तो आज भ्रष्टाचार निरोधक कानून में ये लिखा है कि जांच ऐजेंसी को ये सबूत इकट्ठा करना पड़ता है, वो ये दिखा सके कि रिश्वत दी गई और रिश्वत ली गई। ये साबित करना बड़ा मुश्किल होता है क्योंकि वहां कोई गवाह मौजूद नहीं होता। इसमें हमने कानून में यह लिखा है अगर कोई बिजनेसमैन या कोई कम्पनी सरकार से कोई भी ऐसा काम करवाती है जो की कानून के खिलाफ है, जो कि गलत है तो ये मान लिया जायेगा कि ये काम रिश्वत दे कर और रिश्वत लेकर किया गया है। इसमें जांच ऐजेंसी को ये साबित करने की जरूरत नहीं होगी कि रिश्वत ली गई या दी गई।

------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------प्रश्न 4 . भ्रष्टाचारियों के खिलाफ क्या कार्रवाई करेगा जन लोकपाल?


जांच होने के बाद लोकपाल दो कार्यवाही करेगा – 
एक तो ये कि जो भ्रष्ट अपफसर है उसको नौकरी से निकालने की पावर लोकपाल के पास होगी। उनको एक सुनवाई (हियरिंग) देकर, जांच के दौरान जो सबूत और गवाह मिले उनकी सुनवाई करके, लोकपाल दोषी अधिकारी को नौकरी से निकालने का दण्ड देगा या उनके खिलाफ विभागी कार्रवाई का आदेश देगा या कोई और भी पेनल्टी लगा सकता है। जैसे उनकी तरक्की रोकना, उनकी इन्क्रीमेण्ट रोकना आदि। इस तरह की भी पेनल्टी उन पर लगा सकता है।
दूसरी चीज़ जो लोकपाल करेगा वो ये कि जांच के तहत जो सबूत मिले उन सबके आधार पर वह ट्रायल कोर्ट के अन्दर मुकदमा दायर करेगा और इन लोगों को जेल भिजवाने की कार्यवाही शुरू करेगा।
तो कुल मिलाकर दो चीज़े हो गई। एक तो उनको नौकरी से निकालने की कार्यवाही शुरू हो जाएगी। इसका अधिकार लोकपाल को होगा। वह सीधे-सीधे आदेश देगा उन्हें नौकरी से निकालने के लिए और दूसरा ये कि उन्हें जेल भेजने के लिये अदालत में मुकदमा दायर किया जाएगा।

-----------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------प्रश्न 5 . जन लोकपाल कानून बनने के बाद भ्रष्टाचारियों को क्या सजा हो सकती है?


भ्रष्टाचार साबित होने पर एक साल से लेकर उम्र भर के लिए जेल
आज हमारे भ्रष्टाचार निरोधक कानून में भ्रष्टाचार के लिए कम से कम 6 महीने की सज़ा का प्रावधान है और ज्यादा से ज्यादा सात साल की सज़ा का प्रावधान है। जनलोकपाल कानून में यह कहना है कि इसे बढ़ाकर कम से कम एक साल और ज्यादा से उम्र कैद यानि कि पूरी जिन्दगी के कारावास का प्रावधान किया जाना चाहिए। 
भ्रष्टाचार से देश को हुए नुकसान की वसूली
आज हमारी पूरी भ्रष्टाचार निरोधक सिस्टम के अन्दर अगर किसी को सज़ा भी होती है, तो ऐसा कहीं भी नहीं लिखा कि उसने जितना पैसा रिश्वत में कमाया या जितना पैसा जितना उसने सरकार को चूना लगाया वो उससे वापस लिया जाएगा। तो जैसे केन्द्र सरकार मे मंत्री रहते हुए ए.राजा ने, ऐसा कहा जा रहा है कि उसने तीन हजार करोड़ रूपयों की रिश्वत ली, दो लाख करोड़ का उसने चूना लगाया। अब अगर ए.राजा को सज़ा भी होती है तो हमारे कानून के तहत उसको अधिकतम सात साल की सज़ा हो सकती है और सात साल बाद वापस आकर वो तीन हजार करोड़ रूपये उसके। हमने इस कानून में ये प्रावधान किया है कि सज़ा सुनाते वक्त ये जज की ज़िम्मेदारी होगी कि जितना उसने सरकारी खज़ाने को चूना लगाया है, यानि उस भ्रष्ट अफसर और भ्रष्ट नेता ने सरकार को जितना चूना लगाया है ये जज की जिम्मेदारी होगी कि वो सारा का सारा पैसा उससे रिकवर करने के लिए, उससे वापस लेने के लिए आदेश किए जाए और उससे रिकवर किए जाए।
जांच के दौरान आरोपी की सम्पत्ति के हस्तान्तरण पर रोक
जांच के दौरान अगर लोकपाल को ये लगता है कि किसी अधिकारी या नेता के खिलाफ सबूत सख्त हैं, तो लोकपाल उनकी सारी सम्पत्ति, उनकी जायदाद की पूरी लिस्ट बनाएगा और उसका नोटिफिकेशन जारी करेगा। नोटिफिकेशन जारी होने के बाद भ्रष्ट व्यक्ति उस सम्पत्ति को ट्रांसफर नहीं कर सकता। यानि न किसी के नाम कर सकता है और न ही बेच सकता है। 
नहीं तो कहीं ऐसा न हो कि जैसे ही उसे पता चले तो वह अपनी सारी की सारी सम्पत्ति ट्रांसफर करदे और उसने सरकार को जितना चूना लगाया, उसकी सारी रिकवरी हो न पाए। 
नेताओं, अधिकारीयों और जजों की सम्पत्ति की घोषणा
कानून में ये प्रावधान दिया गया है कि हर अफसर को और हर नेता को हर साल के शुरूआत में अपनी अपनी सम्पत्ति का ब्यौरा वेबसाइट पर डालना पड़ेगा और अगर बाद में ऐसी कोई सम्पत्ति मिलती है, जिसका ब्यौरा उन्होंने वेबसाइट पर नहीं डाला, तो यह मान लिया जाएगा कि वो सम्पत्ति उन्होंने भ्रष्टाचार के जरिए हासिल की है और उस सम्पत्ति को जब्त करके उनके खिलाफ भ्रष्टाचार का मुकदमा दायर किया जाएगा।

------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------प्रश्न 6 . आम आदमी की शिकायतों का समाधान


हर विभाग में सिटीज़न चार्टर:
एक आम आदमी जब किसी सरकारी दफ्तर में जाता है, उसे राशन कार्ड बनवाना है, उसे पासपोर्ट बनवाना है, उसे विधवा पेंशन लेनी है, उस से रिश्वत मांगी जाती है और अगर वो रिश्वत नहीं देता तो उसका काम नहीं किया जाता। जन लोकपाल बिल के अन्दर ऐसे लोगों को भी सहायता प्रदान करने की बात कही गई है। इस कानून के मुताबिक हर विभाग को एक सिटीज़न्स चार्टर बनाना पडे़गा। उस सिटीज़न्स चार्टर में ये लिखना पड़ेगा कि वो विभाग कौन सा काम कितने दिन में करेगा, कौन ऑफिसर करेगा, जैसे ड्राईविंग लाईसेंस कौन अपफसर बनाएगा, कितने दिन में बनाएगा, राशन कार्ड कौन ऑफिसर बनाएगा, कितने दिन में बनाएगा, विधवा पेंशन कौन ऑफिसर बनाएगा कितने दिनों में बनाएगा...। इसकी लिस्ट हर विभाग को जारी करनी पड़ेगी।
सिटीज़न चार्टर का पालन विभाग के मुखिया की ज़िम्मेदारी
कोई भी नागरिक अगर उसको कोई काम करवाना है तो वो नागरिक उस विभाग में उस अफसर के पास जाएगा अपना काम करवाने के लिए, अगर वो अधिकारी उतने दिनों में काम नहीं करता तो फिर ये नागरिक हैड ऑफ द डिपार्टमेण्ट को शिकायत करेगा हैड ऑफ डिपार्टमेण्ट को जन शिकायत अधिकारी नोटिफाई किया जायेगा। हैड ऑफ डिपार्टमेण्ट का यह काम होगी कि अगले 30 दिन के अन्दर उस काम को कराए। 
विभाग का मुखिया काम न करे तो लोकपाल के विजिलेंस अफसर को शिकायत: 
विभाग का मुखिया भी अगर काम नहीं कराता तो नागरिक लोकपाल या लोकायुक्त में जा कर शिकायत कर सकता है। लोकपाल का हर ज़िले के अन्दर एक न एक विजिलेंस अफसर जरूर नियुक्त होगा, लोकायुक्त का हर ब्लॉक के अन्दर एक न एक विजिलेंस अफसर जरूर नियुक्त होगा। नागरिक अपने इलाके के विजिलेंस अफसर के पास जा कर शिकायत करेगा, विजिलेंस अफसर के पास जब शिकायत जायेगी तो यह मान लिया जायेगा कि यह हैड ऑफ डिपार्टमेण्ट ने और उस ऑफिसर ने भ्रष्टाचार की उम्मीद में, रिश्वतखोरी की उम्मीद में यह काम नहीं किया। ये मान लिया जाएगा। 
लोकपाल के विजिलेंस ऑफिसर की ज़िम्मेदारी 
जनलोकपाल या लोकायुक्त के विजिलेंस अफसर को तीन काम करने पड़ेंगे- 
नागरिक का काम 30 दिन में करना होगा, 
हैड ऑफ डिपार्टमेण्ट और उस अफसर के ऊपर पैनल्टी लगाएगा, जो उनकी तनख्वाह से काट कर नागरिक को मुआवज़े के रूप में दी जायेगी। 
विभाग के अधिकारी और हैड ऑफ डिपार्टमेण्ट के खिलाफ भ्रष्टाचार का मामला शुरू किया जायेगा, तहकीकात शुरू की जायेगी और भ्रष्टाचार की कार्यवाही इन दोनों के खिलाफ की जायेगी. ये काम विजिलेंस अफसर को करना होगा। 

इससे हमें यह उम्मीद है कि अगर हैड ऑफ डिपार्टमेण्ट के खिलाफ 3-4 पैनल्टी भी लग गई या 3-4 केस भी भ्रष्टाचार के लग गये तो वो अपने पूरे डिपार्टमेण्ट को बुलाकर कहेगा कि आगे से एक भी ऐसी शिकायत नहीं आनी चाहिए। इससे हमें ये लगता है कि आम आदमी के लेवल पर भी लोगों को तेज़ी से राहत मिलनी चालू हो जाएगी।

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प्रश्न 7 . क्या जनलोकपाल भ्रष्ट नहीं होगा?


कुछ लोगों का यह कहना है कि लोकपाल के अन्दर अगर भ्रष्टाचार हो गया तो उसे कैसे रोका जायेगा? यह बहुत जायज बात है। इसके लिए कई सारी चीज़े इस कानून में डाली गई है। सबसे पहले तो ये कि लोकपाल के मैम्बर्स का और चैयरमेन का चयन जो किया जाएगा वो कैसे किया जाता है। वो बहुत ही पारदर्शी तरीके से किया जायेगा। 
लोकपाल की नियुक्ति पारदर्शी और जनता की भागीदारी से
जन लोकपाल और जन लोकायुक्त में भ्रष्टाचार को रोकने के लिए यह सुनिश्चित किया जाएगा कि इस काम के लिए सही लोगों का चयन हो। लोकपाल के चयन की प्रकिया को पारदर्शी और व्यापक आधार वाला बनाया जाएगा। जिसमें लोगों की पूरी भागीदारी होगी। इसके लिए एक चयन समिति बनाई जाएगी। समिति में निम्नलिखित लोग होंगे - 
प्रधानमंत्री, 
लोकसभा में विपक्ष के नेता, 
दो सबसे कम उम्र के सुप्रीम कोर्ट के जज, 
दो सबसे कम उम्र के हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश, 
भारत के नियन्त्रक महालेखा परीक्षक, और 
मुख्य निर्वाचन आयुक्त होंगे। 
चयन समिति भी सही लोगों का चयन करे 
चयन समिति में जितने लोग शामिल हैं वे बहुत बड़े पद वाले लोग हैं, और भ्रष्टाचार के प्रभाव से मुक्त नहीं हैं। यह सभी लोग बहुत व्यस्त भी रहते हैं। अत: यह भी सम्भव है कि ये अपने मातहत अफसरों के माध्यम से अथवा किसी राजनीतिक दवाब में गलत लोगों को जनलोकपाल बना दें। इसलिए चयन समिति को जनलोकपाल के सदस्यों और अध्यक्ष पद के सम्भावित उम्मीदवारों के नाम देने का काम एक सर्च कमेटी करेगी। 
लोकपाल के लिए योग्य व्यक्तियों की खोज के लिए सर्च कमेटी
चयन समिति योग्य लोगों का चयन उस सूची में करेगी जो उसे सर्च कमेटी द्वारा मुहैया करवाई जाएगी। सर्च कमेटी का काम होगा योग्य और निष्ठावान उम्मीदवारों के नाम चयन समिति को देना। सर्च कमेटी में सबसे पहले पूर्व सीईसी और पूर्व सीएजी में पांच सदस्य चुने जाएंगे। इसमें वो पूर्व सीईसी और पूर्व सीएजी शामिल नहीं होंगे जो दाग़ी हो या किसी राजनैतिक पार्टी से जुड़े हों या अब भी किसी सरकारी सेवा में काम कर रहे हों। यह पांच सदस्य बाकी के पांच सदस्य का चयन देश के सम्मानित लोगों में से करेंगे। और इस तरह दस लोगों की सर्च कमेटी बनाई जाएगी। 
सर्च कमेटी का काम और जनता की राय 
सर्च कमेटी विभिन्न सम्मानित लोगों जैसे- सम्पादकों, बार एसोसिएशनों, वाइज़ चांसलरों से या जिनको वो ठीक समझे उनसे सुझाव मांगेगी। इनसे मिले नाम और सुझाव वेबसाईट पर डाले जाएंगे। जिस पर जनता की राय ली जाएगी। इसके बाद सर्च कमेटी की मीटिंग होगी जिसमें आम राय से रिक्त पदों से तिगुनी संख्या में उम्मीदवारों को चुना जाएगा। ये सूची चयन समिति को भेजी जाएगी। जो लोकपाल के लिए सदस्यों का चयन करेगी। सर्च कमेटी और चयन समिति की सभी बैठकों की वीडियों रिकॉर्डिंग होगी। जिसे सार्वजनिक किया जाएगा। इसके बाद जन लोकपाल और जन लोकायुक्त अपने कार्यालय के अधिकारीयों का चयन करेगें। उनकी नियुक्ति करेंगे।
भ्रष्ट लोकपाल को हटाने की प्रक्रिया
लोकपाल के चयन को पूरी तरह से पारदर्शी और जनता के भागीदारी से किया जा रहा है। अगर लोकपाल भ्रष्ट हो जाता है तो उसको निकालने की कार्यवाही भी बहुत सिम्पल है। कोई भी नागरिक सुप्रीम कोर्ट में शिकायत करेगा, सुप्रीम कोर्ट को हर शिकायत को सुनना पड़ेगा। पहली सुनवाई में अगर सुप्रीम कोर्ट को लगता है कि पहली नज़र में मामला बनता है तो सुप्रीम कोर्ट एक जांच बैठाएगी, तीन महीने में जांच पूरी होनी होगी और अगर जांच में कोई सबूत मिलता हैं तो सुप्रीम कोर्ट उस मेम्बर को निकालने के लिए राष्ट्रपति को लिखेगा और राष्ट्रपति को उस मैम्बर या चैयरमेन को निकालना पड़ेगा।

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प्रश्न 8 . क्या जन लोकपाल दफ्तर में भ्रष्टाचार नहीं होगा?


दो महीने में सख्त कार्रवाई
अगर लोकपाल या लोकायुक्त के किसी स्टाफ के खिलाफ कोई भ्रष्टाचार की शिकायत आती है तो उस शिकायत को लोकपाल में किया जायेगा और उसके ऊपर एक महीने में जांच पूरी होगी और अगर जांच के दौरान उस स्टाफ मैम्बर के खिलाफ अगर कोई सबूत मिलता है तो उस स्टाफ को अगले एक महीने में नौकरी से सीधे निकाल दिया जायेगा ताकि वो जांच को बेईमानी से न करे।
कामकाज पारदर्शी होगा
लोकपाल के अन्दर की काम-काज की प्रक्रिया को पूरी तरह से पारदर्शी बनाने के लिये इसमें लिखा गया है। जब जांच चल रही होगी तब जांच से सम्बंधित सारे दस्तावेज़ भी पारदर्शी होने चाहिए। लेकिन ऐसे दस्तावेज़ जिनका सार्वजनिक होना जांच में बाधा पहुंचा सकता है, उन्हें तब तक सार्वजनिक नहीं किया जाएगा जब तक कि लोकपाल ऐसा समझता है। लेकिन जांच पूरी होने के बाद किसी भी केस में सारे दस्तावेज़ उस जांच से सम्बंधित वेबसाइट में डालने जरूरी होंगे। ताकि जनता ये देख सकें कि इस जांच में हेरा फेरी तो नहीं हुई। 
दूसरी चीज, हर महीने लोकपाल / लोकायुक्त को अपनी वेबसाइट पर लिखना पड़ेगा कि किस-किस की शिकायतें आईं, किस-किस के खिलाफ आई मोटे-मोटे तौर पर शिकायत क्या थी, उस पर क्या कार्यवाई की गई, कितनी पेण्डिंग
है, कितने बन्द कर दी गई, कितने में मुकदमें दायर किये गये, कितनों को नौकरी से निकाल दिया गया या क्या सज़ा दी गई ये सारी बातें लोकपाल / लोकायुक्त को अपनी वेबसाइट पर रखनी होंगी।
शिकायतों की सुनवाई जरूरी 
कई बार देखने में आया कि जांच ऐजेंसी के अधिकारी शिकायतों पर कार्यवाही नहीं करते और सेटिंग करके जांच को बन्द कर देते है। और जो शिकायतकर्ता है उसको कुछ भी नहीं बताया जाता कि जांच का क्या हुआ। इसीलिए यहां के कानून में यह प्रावधान डाला गया है कि किसी भी जांच को बिना शिकायतकर्ता को बताए बन्द नहीं किया जायेगा। हर जांच को बन्द करने के पहले शिकायतकर्ता की सुनवाई की जायेगी और अगर जांच बन्द की जाती है तो उस जांच से सम्बंधित सारे कागज़ात खुले पब्लिक में वेबसाईट पर डाल दिये जायेंगे ताकि सब लोग देख सकें कि जांच ठीक हुई है या नहीं।