
मुन्नी
१४ फ़रवरी १९८१ को उत्तर प्रदेश के एक अनाम से गाँव बेहमई में फूलन और
उनके दस्यु दल के सदस्यों के हाथो २० निर्दोष लोगो की हत्या हुई जिसके
फलस्वरूप १७ महिलाएं जवानी में ही विधवा बन गयी. कानपुर देहात जनपद स्थित
बेहमई चम्बल के डकैतों के आने जाने का रास्ता था हालाँकि राजपुर गाँव से
यहाँ तक की १२ किलोमीटर की दूरी अभी भी अपनी कार से लगभग ४५ मिनट में तय
होती है.
बेहमई की खास बात यह है कि इतने बड़े नरसंहार के बाद भी इस गाँव में कोई
नहीं आया और गाँव के हालत को बयां करें तो आज भी यहाँ पर बिजली नहीं है.
पूरे गाँव के बच्चों का कोई भविष्य नज़र नहीं आता. महिलाएं पर्दा करती हैं
और उनके बाहर जाने का कोई इंतज़ाम नहीं क्योंकि गाँव बीहड़ों के बीच बसा है
हालाँकि हरियाली और खुलेपण के हिसाब से एक खूबसूरत गाँव है.
फूलन और उनके विक्रम मल्लाह गिरोह तथा लाला राम और श्री राम के ठाकुर गिरोह
के बीच के तनातनी का शिकार ये गाँव बना और नतीजा यह निकला जो अकल्पनीय था.
फूलन भारत की पिछड़ी दबी कुचली जात्तियों का रोल मॉडल बनी लेकिन जो दर्दनाक
दास्ताँ बेहमई के विधवाओ की है वो शायद अछूती रह गयी और आज मुन्नी की
कहानी सुनकर इस सभ्य समाज के प्रति आक्रोश और बढ़ जाता है. क्या ऐसे समाज को
सभ्य कहलाने का हक है ?

इसी स्थान पर हुआ था १४ फरवरी १९८१ को बेहमई काण्ड
१४ फ़रवरी के हत्याकांड में मरे गए एक सदस्य थे लाल सिंह जिनकी उम्र शायद
११ वर्ष रही होगी हालाँकि सरकारी आंकडे १६ वर्ष दिखा रहे थे. लाल सिंह का
विवाह मुन्नी देवी से हुआ जिनकी उम्र उस वक़्त ९ वर्ष की थी और दोनों का
गौना नहीं हुआ था और मुन्नी अपने भाई भाभी के पास रह रही थी क्योंकि उसने
मात्र ३ वर्ष की उम्र में अपने माता पिता को खो दिया. उसकी विदाई होनी बाकी
थी. यह सोचा गया कि थोडा बड़े होने पर उसको ससुराल भेज दिया जाएगा आखिर ९
वर्ष में शादी के मतलब क्या होते हैं यह बच्चो को क्या पता?
जब लाल सिंह के मरने की खबर मुन्नी के गाँव पहुंची तो मातम छा गया और उसके
भाई भाभी ने निर्णय ले लिया कि मुन्नी को अब अपनी ससुराल जाना होगा और अपने
पति की याद के सहारे ही जीना होगा. ९ वर्ष की लड़की को विधवा बनाकर विदाई
करने का रिवाज़ मैंने कही नहीं सुना. इतना कठोर निर्णय और इसमें हमारे
परिवार के लोग परंपराओ की दुहाई देकर ये कार्य करे कुत्सित और निंदनीय हैं.
मुन्नी देवी को बेहमई ले आ गया जहाँ उन्हें वैधव्य का जीवन गुजरना था.
ससुराल में केवल ससुर थे क्योंकि उनकी सास भी इस दुनिया में नहीं थी. ऐसे
क्रूरतम समाज का क्या करें जहाँ माँ बाप भाई बहिन अपने ही बेटी और बहिन को
नरक में डालने का कार्य करते हैं. कौन से कानून उनकी रक्षा करेंगे जहाँ खाप
पंचायते और उनके फरमान हमारे जिंदगी का फैसला कर देते हैं.

बेहमई काण्ड के मृतकों की याद में बना शहीद स्मारक
मुन्नी पर गमो और दुखो का पहाड़ था. एक छोटी सी बच्छी विधवा बनकर अपनी
ससुराल आयी और अकेले जीवन व्यतीत कर रही थी. पति की मौत के एक वर्ष के
अन्दर ही उसके ससुर की मौत भी हो गयी और मुन्नी के जीवन में और अंधकार और
अनिश्चितता छा गयी. सरकार ने कुछ नहीं किया. मात्र ३० रुपैया प्रति माह की
पेंशन दी. यह हमारी सरकारों और उनके पाखंड की कहानी है. मुन्नी का जीवन
दर्द की दास्तान है. आज भी उसके चेहरे पे कोई ख़ुशी नज़र नहीं आती. रोते हुए
आंसुओ में उसने अपनी जिंदगी गुजारी है. न कोई सुनने वाला और न किसी ने कोई
मदद की.
मैं मुन्नी से बात कर रहा था तो मीडिया और पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ताओ
के प्रति उसका गुस्सा और निराशा साफ़ झलक रही ठी. तुम मेरी कहानी क्यों
सुनना चाहते हो. क्यों हमारे फोटो छापना चाहते हो. क्या मिला हमें इतने
वर्षो के बाद. जिसने मारा वो सांसद बन गयी लेकिन मेरी जिंदगी तो तबाह हो
गयी. मैंने आस पास के लोगो से पूछा कि क्यों उनके दिमाग में इन महिलाओ की
दोबारा शादी का ख्याल आया तो एक दम लोगो के जवाब थे कि उनके यहाँ इज्जत और
परंपरा को महत्व दिया जाता है. और ८५ गाँव ठाकुरों के कभी इस बात को
स्वीकारेंगे नहीं क्योंकि इससे परम्पराओं के टूटने का खतरा है. मैंने कहा
यदि किसी आदमी की औरत मर जाए तो शादी करने में दो महीने का समय भी नहीं
लगते तो लोगो ने कहाँ के पुरुषो के लिए प्रतिबन्ध नहीं है क्योंकि वो घर की
देखभाल करते हैं. दबे मन, सब इस बात को स्वीकारते हैं कि मुन्नी के साथ
अन्याय हुआ लेकिन किसी में उसका प्रतिरोध करने की क्षमता नहीं.
अपने जीवन मैं मैंने पाया कि हमारे सबसे बड़े दुश्मन तथाकथित अपने होते हैं
जिन पर हम बहुत भरोसा करते हैं. फूलन ने जो हत्याएं की वो तो निंदनीय हैं
लेकिन उस त्रासदी में एक आशा और परिवर्तन की किरण भी समाज निकाल सकता था
यदि इन निर्दोष महिलाओ के लिए समाज कुछ कर पाता और उन्हें नए सिरे से नयी
जिंदगी शुरू करने की बात करता. सरकार के पेंशन और पैसो से बदलाव और ख़ुशी
नहीं मिलती लेकिन एक जीवनसाथी मिलकर वे अपने दर्देगम भूल सकती थी और समाज
में एक बहुत बड़ा सन्देश जाता. अफसोस हम लोग मात्र तमाशबीन है और दुश्मन से
लड़ने के तरीके जानते हैं लेकिन अपने समाज में भरे कूड़ा कबाड़ निकालने की
हिम्मत हमारे अन्दर नहीं है.
मुन्नी और उस जैसी हजारो महिलाओ की जिंदगी आज भी बचाई जा सकती है यदि हम
अपने मापदंडो को बदले और मुन्नी को भी फूलन बनाना पड़ेगा, अन्याय का
प्रतिकार करने के लिए. आखिर किसी दूसरे की गलती की सजा एक निर्दोष जीवन भर
वैधव्य का जीवन व्यतीत करके क्यों गुजरे.
आज देश की आज़ादी की ६६ वी साल गिरह है और हम अपने धर्मनिरपेक्ष संविधान पर
गर्व करते हैं लेकिन हकीकत यह है मनु के मानवविरोधी और तानाशाही कानून ही
हमारे समाज पर हावी है और जब तक उनका हमारे जीवन से खत्म नहीं होता हम अपने
आपको सही मायने में आज़ाद समाज नहीं कह सकते. जब तक हमारा धर्मनिरपेक्ष
कानून हमारे सामाजिक जीवन का हिस्सा नहीं बनता, यहाँ मासूम और निर्दोष
मुन्नियां ऐसे ही हमारी परम्परो का शिकार बनती रहेंगी और समाज इनका तमाशा
बनता रहेगा. एक सेकुलर जीवन शैली ही हमारे सामाजिक विघटन को बचा सकती है और
लोगो में बराबरी ला सकती है इसलिए संवैधानिक मूल्यों को हमारे निजी और
सामजिक जीवन मूल्यों का हिस्सा बनाना पड़ेगा.
(अरविन्द कु पाण्डेय )