बुधवार, 22 अगस्त 2012

अनुसूया देवी का मंदिर उत्तराखंड

Anusuya Temple Uttarakhand

मंदिर अनुसूया देवी का मंदिरउत्तराखंड के चमोली जिले केमुख्यालय से १३ किलोमीटर औरवहां से  किलोमीटर की दूरी परउत्तर दिश में कीलांचल पर्वत(ऋषयकुल पर्वत) के तलहटी मेंस्थित है! यहाँ पञ्च केदारो के एकश्री रुद्रनाथ की दूरी १४किलोमीटर की दूरी (पैदल मार्ग)रह जाती है! अनुसूया देवी से पश्चिम की और से पंच केदारो में ही एक श्री तुंगनाथ का मंदिर है ! इस प्रकार यह मंदिर तुंगनाथके मध्य ७२०० फीट की ऊँचाई पर अवस्थित एक प्रसिद्ध सिद्दीपीठ के रूप में मान्यता है ! श्री अनुसूया माता के मंदिर निकटमहर्षि आत्री तपोस्थली और दत्तात्रेय है ! पौराणिक कहानी ब्रह्मा के मानस पुत्र  सप्त ऋषियों में वर्णित मह्रिषी अत्री वैदिकसूक्त द्रष्टा ऋषि थे, उन्ही की पत्नी अनुसूया कर्दम प्रजाति और देवहूति की कन्या थी! देवी अनुसूया को पतिव्रताओ कीआर्दश और शालीनता की दिव्य प्रतीक माना जाता है ! पौराणिक कथाओ के अनुसार सती अनुसूया के पति मह्रिषी की लम्बीतपस्या से देवगण घबरा गये और ब्रह्मा, विष्णु, महेश, अत्री के समक्ष प्रकट हुए और उनसे वरदान मांगने को कहा ! महर्षिअत्री ने कहा ऋषि का स्वभाव तप करना है, वरदान लेना नहीं! यदि अनुसूया चाहे तो वरदान मांग सकती है ! लेकिनपतिव्रता अनुसूया ने वरदान लेने से इनकार कर दिया जिससे त्रिदेव रुष्ट हो गये! इसी पौराणिक आख्यान से जुदा एकप्रसंग है की माँ पार्वती, लक्ष्मी और सरस्वती में सतीत्व को लेकर आपस में विवाद हो गया जिसके निराकरण के लिए त्रिदेवब्रह्मा, विष्णु, महेश बदलकर माँ अनुसूया की परीक्षा लेने गए! तीनो ने मांग की माँ अनुसूया नग्न अवस्था में भोजन कराये!देवी अनुसूया तनिक भी विचलित नहीं हुयी और उने नग्न अवस्था में भोजन कराने की स्वीकृति दे दी! देवी अनुसूया ने लौटेसे गंगा जल लेकर तीनो देवो पर छिड़क दिया और तीनो नवजात शिशुओ के रूप में बदल गये और किल्कारिया मरने लगे!माँ अनुसूया ने उन्हें स्तनपान कराया!उधर तीनो देविया पतियों के वियोग से दुखी हो गए और ब्रह्मा के मानस पुत्र ब्रहऋषिनारद के सुझाव पर माँ अनुसूया के समक्ष अपने पतियों को पूर्व रूप में लाने की प्रार्थना करने लगी! अनुसूया माता ने अपनीसतीत्व से तीनो देवो को फिर से पूर्व रूप में कर दिया ! तभी से अनुसूया माता, सती अनुसूया से नाम से प्रसिद्ध हो गयी!त्रिदेवो के वरदान से उन्हें चन्द्रमा, दत्तात्रेय एव दुर्वासा पुत्र प्राप्त हुए!


भगवान श्रीराम की तपस्थली "देवप्रयाग"

भगवान श्रीराम की तपस्थली "देवप्रयाग"
ऋषिकेश से ७१ किमी की दूरी पर स्थित उत्तराखण्ड के पांच प्रयागों में से एक देवप्रयाग प्रमुख प्रयाग है । यहीं पर अलकनन्दा और भागीरथी का संगंम होता है और यहीं से मोक्षदायिनी का नाम गंगा पड़ता है । 
केदारखण्ड पुराण के अनुसार देवप्रयाग का अत्यधिक महत्व माना गया है । देवप्रयाग में प्रभु राम सीता और लक्ष्मण के साथ निवास करते थे । 

देवप्रयाग के सम्बन्ध में एक पौराणिक कथा कही जाती है कि यहां पर देवशर्मा नामक एक ब्राहमण ने भगवान विष्णु की कठोर तपस्या की जिससे प्रसन्न होकर प्रभु ने उनको दर्शन दिया तथा देवशर्मा से इच्छित वर मांगने को कहा, देवशर्मा ने प्रभु विष्णु से कहा कि "हे प्रभु मेरी हार्दिक इच्छा है कि आप सदा इसी स्थान पर निवास करें" । देवशर्मा की इच्छा सुनकर भगवान विष्णु बड़े प्रसन्न हुए और  देवशर्मा से बोले "हे श्रेष्ट ब्राहमण मैं त्रेतायुग में रावण कुंभकरण आदि दैत्यों का वध करने हेतु अयोध्या नरेश दशरथ के पुत्र के रूप में जन्म लूगां, अपने प्रयोजन को पूर्ण व अयोध्या में कुछ समय राज्य करने के उपरान्त मैं इसी क्षेत्र मे आकर तपस्या करूंगा, उस समय तुमको मेरे दर्शन प्राप्त होगें और मैं निरन्तर यही निवास करूंगा" । ऐसा कहा जाता है कि त्रेतायुग में भगवान विष्णु राम के रुप में देवप्रयाग आये थे ।

इसी देवशर्मा के नाम के कारण ही यहां का नाम देवप्रयाग पड़ा इससे पहले इस क्षेत्र को सुदर्शन क्षेत्र कह जाता था । ऐसी मान्यता है कि भगवान श्रीराम ने रावणवध के उपरान्त, क्योंकि रावण राक्षस होने के साथ साथ ब्राहमण भी था, ब्रह्महत्या के दोष से मुक्ति पाने हेतु कई वर्षों तक यहां तपस्या की थी कहा जात है कि भगवान श्रीराम के पैरों के निशान आज भी गंगा किनारे एक शिला पर अकिंत हैं ।

महर्षि नारद की तपस्थली "रुद्रप्रयाग"

 महर्षि नारद की तपस्थली "रुद्रप्रयाग"



उत्तराखण्ड के पंचप्रयागों में से एक रूद्रप्रयाग का भी अपना ही महत्व है । रूद्रप्रयाग, ऋषिकेश से श्रीनगर होते हुए लगभग १४५ किमी० की दूरी पर स्थित यह सुन्दर स्थान है । अलकनन्दा और मंदाकिनी नदियों के संगम पर स्थित इस स्थान के बारे में मान्यता है कि यहां भगवान शिव स्वयं "रुद्रनाथ" के रुप में यहां विराजमान हैं । पौराणिक मान्यताओं के अनुसार अलकनन्दा और मंदाकिनी दोनों नदियों को बहनों की संज्ञा दी गई है, कहा जाता है कि अलकनन्दा गौरवर्ण व मन्दाकिनी श्यामवर्ण की थी जिसका अन्तर आज भी दोनों नदियों के पानी के रंगों में देखने को मिलता है ।

स्कन्दपुराण के केदारखण्ड के अनुसार इसी स्थान पर महर्षि नारद ने भगवान शिव की, एक पैर पर खड़े रहकर उपासना की थी जिनकी भक्ति से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने महर्षि नारद को रुद्र रुप में आकर दर्शन दिये थे यही वह स्थान है जहां  महर्षि नारद ने रुद्र रुप भगवान से संगीत की शिक्षा ली थी और यहीं पर भगवान शिव ने उन्हें वीणा प्रदान की थी । इस स्थान पर शिव और माता जगदम्बा के मन्दिर हैं जिनका बहुत धार्मिक महत्व है ।

उत्तराखण्ड चारधाम यात्रा में रुद्रप्रयाग का अत्यधिक महत्व इसलिये भी है क्योंकि प्रसिद्द धाम श्री बद्रीनाथ एवम श्री केदारनाथ की यात्रा हेतु रास्ते अलग अलग यहीं से होते हैं । यह पूरा क्षेत्र विशाल प्रकृतिक सौन्दर्य, ताल, ग्लेशियर व धर्मिक महत्व के स्थानों के स्थानों से परिपूर्ण है । पहले रुद्रप्रयाग चमोली और टिहरी जिले का एक मिश्रित अंग था परन्तु अब यह उत्तराखण्ड के  १३ जनपदों में से एक है ।

भगवान यमराज की तपस्थली "किंकालेश्वर महादेव"

भगवान यमराज की तपस्थली "किंकालेश्वर महादेव"

सम्पूर्ण देवभूमि उत्तराखण्ड ऋषि मुनियों व देवताओं की तपस्थली रहा है । प्राचीनकाल से ही भक्तगण यहां निष्टापूर्वक अपने अपने अराध्यों की स्तुति करते आ रहे हैं । महर्षि नारद की तपस्थली "रुद्रप्रयाग" और भगवान राम की तपस्थली "देवप्रयाग" के बाद मै  आज आपको भगवान यमराज की तपस्थली "किंकालेश्वर महादेव" की जानकारी देना चाहता हूं ।

गढ़वाल मण्डल मुख्यालय पौड़ी से मात्र तीन किलोमीटर की दूरी पर स्थित यह सिद्धपीठ लगभग २२०० मीटर की ऊंचाई पर स्थित है । मन्दिर के चारों तरफ़ बांज, बुरांश, चीड़ तथा देवदार का घना जंगल है । पौड़ी शहर के शिखर पर प्राकृतिक सौन्दर्य से परिपूर्ण, शांत व मनोहारी स्थान पर स्थित इस मन्दिर के प्रांगण से शुभ्र हिमालय की लम्बी हिमाच्छादित पर्वत श्रखंला की मुख्य चोटियों जैसे चौखंबा, त्रिशूल, नन्दादेवी, त्रिजुगी नारायण, हाथी पर्वत तथा बद्रीकेदार क्षेत्र के नयनाभिराम दर्शन होते है । 

स्कन्दपुराण में इस स्थान का वर्णन कुछ इस प्रकार से है कि ताड़कासुर से पीड़ित व भय से आक्रान्त होकर भगवान यमराज ने इस "कीनाश" पर्वत पर आकर भगवान शिव की कठोर तपस्या की । उनकी शिवभक्ति से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने यमराज को दर्शन दिए, तथा वर मांगने को कहा, भगवान यमराज ने भगवान शिव से दो वरदान मांगे पहला यह कि "आप इस स्थान पर पार्वती सहित निवास करें" तथा दूसरा यह कि "मेरी आपके श्रीचरणों में सदैव भक्ति बनी रहे" । कहा जाता है कि भगवान यमराज को दिये वरदान के कारण ही भगवान शिव यहां कंकालेश्वर के रुप में विराजमान हैं ।

आज भी यहां शिवरात्रि के अवसर पर मन्दिर में भव्य एवम विशाल मेला लगता है, साथ ही श्रावणमास के हर सोमवार को व्रत धारण किए श्रद्धालु शिवलिंग का जल एवम दूध से जलाभिषेक करने आते है । वर्षभर यहां सुखी एवं समृद्धशाली भावी जीवन की कामना लेकर शिवदर्शन करने हेतु नवविवाहित युगल आते रहते हैं ।

रविवार, 19 अगस्त 2012

ओह मुन्नी तुम इतने क्रूर समाज में पैदा क्यों हुई

मुन्नी
१४ फ़रवरी १९८१ को उत्तर प्रदेश के एक अनाम से गाँव बेहमई में फूलन और उनके दस्यु दल के सदस्यों के हाथो २० निर्दोष लोगो की हत्या हुई जिसके फलस्वरूप १७ महिलाएं जवानी में ही विधवा बन गयी. कानपुर देहात जनपद स्थित बेहमई चम्बल के डकैतों के आने जाने का रास्ता था हालाँकि राजपुर गाँव से यहाँ तक की १२ किलोमीटर की दूरी अभी भी अपनी कार से लगभग ४५ मिनट में तय होती है.
बेहमई की खास बात यह है कि इतने बड़े नरसंहार के बाद भी इस गाँव में कोई नहीं आया और गाँव के हालत को बयां करें तो आज भी यहाँ पर बिजली नहीं है. पूरे गाँव के बच्चों का कोई भविष्य नज़र नहीं आता. महिलाएं पर्दा करती हैं और उनके बाहर जाने का कोई इंतज़ाम नहीं क्योंकि गाँव बीहड़ों के बीच बसा है हालाँकि हरियाली और खुलेपण के हिसाब से एक खूबसूरत गाँव है.
फूलन और उनके विक्रम मल्लाह गिरोह तथा लाला राम और श्री राम के ठाकुर गिरोह के बीच के तनातनी का शिकार ये गाँव बना और नतीजा यह निकला जो अकल्पनीय था.
फूलन भारत की पिछड़ी दबी कुचली जात्तियों का रोल मॉडल बनी लेकिन जो दर्दनाक दास्ताँ बेहमई के विधवाओ की है वो शायद अछूती रह गयी और आज मुन्नी की कहानी सुनकर इस सभ्य समाज के प्रति आक्रोश और बढ़ जाता है. क्या ऐसे समाज को सभ्य कहलाने का हक है ?
इसी स्थान पर हुआ था १४ फरवरी १९८१ को बेहमई काण्ड
१४ फ़रवरी के हत्याकांड में मरे गए एक सदस्य थे लाल सिंह जिनकी उम्र शायद ११ वर्ष रही होगी हालाँकि सरकारी आंकडे १६ वर्ष दिखा रहे थे. लाल सिंह का विवाह मुन्नी देवी से हुआ जिनकी उम्र उस वक़्त ९ वर्ष की थी और दोनों का गौना नहीं हुआ था और मुन्नी अपने भाई भाभी के पास रह रही थी क्योंकि उसने मात्र ३ वर्ष की उम्र में अपने माता पिता को खो दिया. उसकी विदाई होनी बाकी थी. यह सोचा गया कि थोडा बड़े होने पर उसको ससुराल भेज दिया जाएगा आखिर ९ वर्ष में शादी के मतलब क्या होते हैं यह बच्चो को क्या पता?
जब लाल सिंह के मरने की खबर मुन्नी के गाँव पहुंची तो मातम छा गया और उसके भाई भाभी ने निर्णय ले लिया कि मुन्नी को अब अपनी ससुराल जाना होगा और अपने पति की याद के सहारे ही जीना होगा. ९ वर्ष की लड़की को विधवा बनाकर विदाई करने का रिवाज़ मैंने कही नहीं सुना. इतना कठोर निर्णय और इसमें हमारे परिवार के लोग परंपराओ की दुहाई देकर ये कार्य करे कुत्सित और निंदनीय हैं. मुन्नी देवी को बेहमई ले आ गया जहाँ उन्हें वैधव्य का जीवन गुजरना था. ससुराल में केवल ससुर थे क्योंकि उनकी सास भी इस दुनिया में नहीं थी. ऐसे क्रूरतम समाज का क्या करें जहाँ माँ बाप भाई बहिन अपने ही बेटी और बहिन को नरक में डालने का कार्य करते हैं. कौन से कानून उनकी रक्षा करेंगे जहाँ खाप पंचायते और उनके फरमान हमारे जिंदगी का फैसला कर देते हैं.
बेहमई काण्ड के मृतकों की याद में बना शहीद स्मारक
मुन्नी पर गमो और दुखो का पहाड़ था. एक छोटी सी बच्छी विधवा बनकर अपनी ससुराल आयी और अकेले जीवन व्यतीत कर रही थी. पति की मौत के एक वर्ष के अन्दर ही उसके ससुर की मौत भी हो गयी और मुन्नी के जीवन में और अंधकार और अनिश्चितता छा गयी. सरकार ने कुछ नहीं किया. मात्र ३० रुपैया प्रति माह की पेंशन दी. यह हमारी सरकारों और उनके पाखंड की कहानी है. मुन्नी का जीवन दर्द की दास्तान है. आज भी उसके चेहरे पे कोई ख़ुशी नज़र नहीं आती. रोते हुए आंसुओ में उसने अपनी जिंदगी गुजारी है. न कोई सुनने वाला और न किसी ने कोई मदद की.
मैं मुन्नी से बात कर रहा था तो मीडिया और पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ताओ के प्रति उसका गुस्सा और निराशा साफ़ झलक रही ठी. तुम मेरी कहानी क्यों सुनना चाहते हो. क्यों हमारे फोटो छापना चाहते हो. क्या मिला हमें इतने वर्षो के बाद. जिसने मारा वो सांसद बन गयी लेकिन मेरी जिंदगी तो तबाह हो गयी. मैंने आस पास के लोगो से पूछा कि क्यों उनके दिमाग में इन महिलाओ की दोबारा शादी का ख्याल आया तो एक दम लोगो के जवाब थे कि उनके यहाँ इज्जत और परंपरा को महत्व दिया जाता है. और ८५ गाँव ठाकुरों के कभी इस बात को स्वीकारेंगे नहीं क्योंकि इससे परम्पराओं के टूटने का खतरा है. मैंने कहा यदि किसी आदमी की औरत मर जाए तो शादी करने में दो महीने का समय भी नहीं लगते तो लोगो ने कहाँ के पुरुषो के लिए प्रतिबन्ध नहीं है क्योंकि वो घर की देखभाल करते हैं. दबे मन, सब इस बात को स्वीकारते हैं कि मुन्नी के साथ अन्याय हुआ लेकिन किसी में उसका प्रतिरोध करने की क्षमता नहीं.
अपने जीवन मैं मैंने पाया कि हमारे सबसे बड़े दुश्मन तथाकथित अपने होते हैं जिन पर हम बहुत भरोसा करते हैं. फूलन ने जो हत्याएं की वो तो निंदनीय हैं लेकिन उस त्रासदी में एक आशा और परिवर्तन की किरण भी समाज निकाल सकता था यदि इन निर्दोष महिलाओ के लिए समाज कुछ कर पाता और उन्हें नए सिरे से नयी जिंदगी शुरू करने की बात करता. सरकार के पेंशन और पैसो से बदलाव और ख़ुशी नहीं मिलती लेकिन एक जीवनसाथी मिलकर वे अपने दर्देगम भूल सकती थी और समाज में एक बहुत बड़ा सन्देश जाता. अफसोस हम लोग मात्र तमाशबीन है और दुश्मन से लड़ने के तरीके जानते हैं लेकिन अपने समाज में भरे कूड़ा कबाड़ निकालने की हिम्मत हमारे अन्दर नहीं है.
मुन्नी और उस जैसी हजारो महिलाओ की जिंदगी आज भी बचाई जा सकती है यदि हम अपने मापदंडो को बदले और मुन्नी को भी फूलन बनाना पड़ेगा, अन्याय का प्रतिकार करने के लिए. आखिर किसी दूसरे की गलती की सजा एक निर्दोष जीवन भर वैधव्य का जीवन व्यतीत करके क्यों गुजरे.
आज देश की आज़ादी की ६६ वी साल गिरह है और हम अपने धर्मनिरपेक्ष संविधान पर गर्व करते हैं लेकिन हकीकत यह है मनु के मानवविरोधी और तानाशाही कानून ही हमारे समाज पर हावी है और जब तक उनका हमारे जीवन से खत्म नहीं होता हम अपने आपको सही मायने में आज़ाद समाज नहीं कह सकते. जब तक हमारा धर्मनिरपेक्ष कानून हमारे सामाजिक जीवन का हिस्सा नहीं बनता, यहाँ मासूम और निर्दोष मुन्नियां ऐसे ही हमारी परम्परो का शिकार बनती रहेंगी और समाज इनका तमाशा बनता रहेगा. एक सेकुलर जीवन शैली ही हमारे सामाजिक विघटन को बचा सकती है और लोगो में बराबरी ला सकती है इसलिए संवैधानिक मूल्यों को हमारे निजी और सामजिक जीवन मूल्यों का हिस्सा बनाना पड़ेगा.
(अरविन्द कु पाण्डेय )