कुछ
दिन पहले जब एक चिर उदीयमान नेता ने यह वक्तव्य दिया कि 'गरीबी कुछ नहीं एक
मन:स्थिति है' तो अनेक वंचितों को लगा कि एक शहजादे ने ताजमहल बनाने का
झंझट पाले बिना ही उनकी गरीबी का मजाक उड़ाया है। हम इस शिकायत को नाजायज
नहीं समझते पर इधर हमें खुद यह फतवा देने का लालच होने लगा है कि
'अमीरी-रईसी भी कुछ नहीं, एक मन:स्थिति है!' जैसे मन के हारे हार है, मन के
जीते जीत। कुछ वैसे ही असली समृद्धि का सुख वही मनुष्य भोग सकता है जो 'संतोषं परमं सुख' का मर्म जान चुका हो।
यह कतई नहीं सुझा रहे कि हम आप 'रूखी सूखी खाय के, ठंडा पानी पीय' लाचार बैठे रहें परंतु दूसरों की अकूत संपत्ति का हिसाब -किताब रखते अपनी नींद हराम ना करें। समाजशास्त्री शोध यह बात प्रमाणित कर चुका है कि अमेरिका जैसे अमीर देश-समाज में भी विषमता का अहसास दर्दनाक और विस्फोटक है।
पूंजीवादी व्यवस्था जनित उपभोगवादी जीवनशैली की अनेक विकृतियां हमने आधुनिकता का पश्चिमी संस्करण आंख मूंद कर अपनाने की उतावली में ग्रहण कर ली हैं। अमीरी और गरीबी के पैमाने देश-काल के अनुसार बदलते रहते हैं। आज गरीबी की सीमा रेखा महत्वपूर्ण समझी जाती है कभी पौराणिक समाजवादी युग में 'वेल्थ टैक्स' लगाया जाता था। बहरहाल समृद्धि तथा विपन्नता के बारे में अपनी परंपरा के संदर्भ में वर्तमान मन:स्थिति को सोचने की जरूरत है।
ऐश्वर्य शब्द का मूल ईश्वर से जुड़ा है। मनुष्य आदिकाल से देवताओं की तरह अलौकिक सुख सुविधाओं के उपभोग की कामना करता रहा है। देवता शब्द स्वयं 'दिव' द्युतिमान अर्थात् चमक का आभास कराता है। संस्कृत में ही नहीं यूनानी एवं लैटिन भाषा में प्राचीन द्यौस तथा 'डिऔस' इसी के नातेदार हैं। संक्षेप में चकाचौंध वाली जीवनशैली जिसके भोग विलास नश्वर नहीं, स्वर्ग के निवासियों की तरह समय के प्रवाह के साथ समृद्धि का पर्याय बन गयी है। 'सर्वेगुणा कांचनमाश्रयंति' को ही शाश्वत सत्य मानने के कारण हम आज संपत्ति और समृद्धि के दूसरे प्रकार पहचानने में असमर्थ हो चुके हैं और फलस्वरूप अकिंचन, वास्तव में दरिद्र बनते जा रहे हैं। यह रेखांकित करने की आवश्यकता है कि सौंदर्यानुभूति और रसास्वादन के लिए साक्षरता अनिवार्य नहीं और न ही धनवान होने की शर्त पूरी करना। लोकसंगीत, लोकनृत्य, लोकनाट्य के साथ साथ हस्तशिल्प और लोकचित्रकला की समृद्ध परंपरा यह प्रमाणित करती है कि कलाजगत में 'शास्त्रीय' और राज्याश्रयी का एकाधिकार नहीं। यही बात वैज्ञानिक शोध के क्षेत्र में भी लागू होती है। अपवादों को छोड़ जीनियस वैज्ञानिक धन संपत्ति के मोहपाश में बंधे नहीं रहते। 'अथतो ब्रह्म जिज्ञासा' और 'ज्ञानात् परतरं नहि' जैसे सूत्रवाक्य उनकी प्रेणा का अजस्न स्नोत रहते हैं। इसके साथ साथ यह उपदेश भी काम का है कि 'श्रद्धावान लभते ज्ञानम्' तथा 'न च वित्तेन तर्पणीयो मनुष्य:'। अर्थात् धनवान की तुलना में श्रद्धावान का पलड़ा भारी है ज्ञान की दुनिया में और मोक्ष का मार्ग भौतिक संपत्ति प्रशस्त नहीं करती। जिस पात्र का मुख सोने के ढकने-आवरण से बंद है सच उसके भीतर ही छुपा रहता है।
'विद्यैव धनमक्षयम्' का यथार्थ नकार कर ही हम इस भ्रांति का शिकार होते हैं कि लक्ष्मी और सरस्वती का जन्मजात बैर है। इनमें एक की ही कृपा प्राप्त की जा सकती है, ऐसा सोचना ठीक नहीं। यह भुलाना भी घातक साबित हो सकता है कि लक्ष्मी चंचला है।
आदिशंकर विरचित 'भजगोविंदम् स्तोत्र' के एक श्लोक की पंक्ति मार्मिक है- 'मा कुरु धन जन यौवन गर्वम्!' इसी का सहज अनुवाद एक फिल्मी भजन में किया गया है-'धन जौबन का गरब ना कीजै!' अंतत: सब ठाठ धरा रह जाता है- गठरी बांध कर साथ कुछ नहीं ले जाने का नुस्खा आज तक कोई ईजाद नहीं कर सका है। पीछे छोड़ी विरासत में भी जो कुछ अमर अजर है वह अक्षय यश काया ही है। विडंबना यह है कि यह यश धन संचय में असाधारण सफलता से कहीं अधिक परोपकार में व्यक्तिगत संपत्ति के नि:संकोच खर्च से अर्जित होता है। 'दोनों हाथ उलीचिए यहि सज्जन को काम!' कैसे भूलें- 'पूत सपूत तो क्यों धन संचय, पूत कपूत तो क्यों धन संचय?'
एक पुरानी कहावत याद आती है - 'लंका में सोना है तो हमारे बाप का क्या है?' अपने खजाने पर कुंडली मारे फन फैलाए धनपिशाच को सुखी-संतुष्ट मानने वाला नादान ही कहा जा सकता है। कंजूस हो या फिजूलखर्च समृद्ध नहीं माना जा सकता। पहले की संपत्ति किसी काम की नहीं दूसरे की क्षणभंगुर और प्रेतपिपासा की तरह कभी न मिटने घटने वाली बीमारी। यह गलत नहीं कहा है कि वही शाहों का शाह है जिसे किसी चीज की जरूरत नहीं न किसी की चिंता।
'नवनिधि' और 'अष्ट सिद्धि' की मरीचिका 'नियानवे के फेर' से कहीं अधिक क्लेषदायक है। पहले कमाने-बचाने-बढ़ाने के लिए खून पसीना एक करना पड़ता है फिर इसे आरक्षित रखने के लिए किलेबंदी का परिश्रम करना होता है। उपभोग के लिए समय ही कहां बचा रह जाता है? भतर्ृहरि को यह ज्ञान सदियों पहले हो चुका था 'भोगा न भुक्ता वयमेय भुक्ता!' यह तृष्णा कभी मिटती नहीं। इस नश्वर मानव जीवन में तृप्ति असंभव है। इसीलिए जीवन को सुखी बनाए रखने के लिए उस कंचन का अथवा उन रत्नों का मोह त्यागें जिनकी चमक-दमक सदा हमारे साथ नहीं रह सकती। उन मूल्यों, आदर्शो से अपने
कोष को समृद्ध करने की चेष्टा में प्राथमिकता दें जो सदा द्युतिमान रहते हैं- हमारे साथ साथ दूसरों को भी आभूषित-अलंकृत करते हैं।
यह कतई नहीं सुझा रहे कि हम आप 'रूखी सूखी खाय के, ठंडा पानी पीय' लाचार बैठे रहें परंतु दूसरों की अकूत संपत्ति का हिसाब -किताब रखते अपनी नींद हराम ना करें। समाजशास्त्री शोध यह बात प्रमाणित कर चुका है कि अमेरिका जैसे अमीर देश-समाज में भी विषमता का अहसास दर्दनाक और विस्फोटक है।
पूंजीवादी व्यवस्था जनित उपभोगवादी जीवनशैली की अनेक विकृतियां हमने आधुनिकता का पश्चिमी संस्करण आंख मूंद कर अपनाने की उतावली में ग्रहण कर ली हैं। अमीरी और गरीबी के पैमाने देश-काल के अनुसार बदलते रहते हैं। आज गरीबी की सीमा रेखा महत्वपूर्ण समझी जाती है कभी पौराणिक समाजवादी युग में 'वेल्थ टैक्स' लगाया जाता था। बहरहाल समृद्धि तथा विपन्नता के बारे में अपनी परंपरा के संदर्भ में वर्तमान मन:स्थिति को सोचने की जरूरत है।
ऐश्वर्य शब्द का मूल ईश्वर से जुड़ा है। मनुष्य आदिकाल से देवताओं की तरह अलौकिक सुख सुविधाओं के उपभोग की कामना करता रहा है। देवता शब्द स्वयं 'दिव' द्युतिमान अर्थात् चमक का आभास कराता है। संस्कृत में ही नहीं यूनानी एवं लैटिन भाषा में प्राचीन द्यौस तथा 'डिऔस' इसी के नातेदार हैं। संक्षेप में चकाचौंध वाली जीवनशैली जिसके भोग विलास नश्वर नहीं, स्वर्ग के निवासियों की तरह समय के प्रवाह के साथ समृद्धि का पर्याय बन गयी है। 'सर्वेगुणा कांचनमाश्रयंति' को ही शाश्वत सत्य मानने के कारण हम आज संपत्ति और समृद्धि के दूसरे प्रकार पहचानने में असमर्थ हो चुके हैं और फलस्वरूप अकिंचन, वास्तव में दरिद्र बनते जा रहे हैं। यह रेखांकित करने की आवश्यकता है कि सौंदर्यानुभूति और रसास्वादन के लिए साक्षरता अनिवार्य नहीं और न ही धनवान होने की शर्त पूरी करना। लोकसंगीत, लोकनृत्य, लोकनाट्य के साथ साथ हस्तशिल्प और लोकचित्रकला की समृद्ध परंपरा यह प्रमाणित करती है कि कलाजगत में 'शास्त्रीय' और राज्याश्रयी का एकाधिकार नहीं। यही बात वैज्ञानिक शोध के क्षेत्र में भी लागू होती है। अपवादों को छोड़ जीनियस वैज्ञानिक धन संपत्ति के मोहपाश में बंधे नहीं रहते। 'अथतो ब्रह्म जिज्ञासा' और 'ज्ञानात् परतरं नहि' जैसे सूत्रवाक्य उनकी प्रेणा का अजस्न स्नोत रहते हैं। इसके साथ साथ यह उपदेश भी काम का है कि 'श्रद्धावान लभते ज्ञानम्' तथा 'न च वित्तेन तर्पणीयो मनुष्य:'। अर्थात् धनवान की तुलना में श्रद्धावान का पलड़ा भारी है ज्ञान की दुनिया में और मोक्ष का मार्ग भौतिक संपत्ति प्रशस्त नहीं करती। जिस पात्र का मुख सोने के ढकने-आवरण से बंद है सच उसके भीतर ही छुपा रहता है।
'विद्यैव धनमक्षयम्' का यथार्थ नकार कर ही हम इस भ्रांति का शिकार होते हैं कि लक्ष्मी और सरस्वती का जन्मजात बैर है। इनमें एक की ही कृपा प्राप्त की जा सकती है, ऐसा सोचना ठीक नहीं। यह भुलाना भी घातक साबित हो सकता है कि लक्ष्मी चंचला है।
आदिशंकर विरचित 'भजगोविंदम् स्तोत्र' के एक श्लोक की पंक्ति मार्मिक है- 'मा कुरु धन जन यौवन गर्वम्!' इसी का सहज अनुवाद एक फिल्मी भजन में किया गया है-'धन जौबन का गरब ना कीजै!' अंतत: सब ठाठ धरा रह जाता है- गठरी बांध कर साथ कुछ नहीं ले जाने का नुस्खा आज तक कोई ईजाद नहीं कर सका है। पीछे छोड़ी विरासत में भी जो कुछ अमर अजर है वह अक्षय यश काया ही है। विडंबना यह है कि यह यश धन संचय में असाधारण सफलता से कहीं अधिक परोपकार में व्यक्तिगत संपत्ति के नि:संकोच खर्च से अर्जित होता है। 'दोनों हाथ उलीचिए यहि सज्जन को काम!' कैसे भूलें- 'पूत सपूत तो क्यों धन संचय, पूत कपूत तो क्यों धन संचय?'
एक पुरानी कहावत याद आती है - 'लंका में सोना है तो हमारे बाप का क्या है?' अपने खजाने पर कुंडली मारे फन फैलाए धनपिशाच को सुखी-संतुष्ट मानने वाला नादान ही कहा जा सकता है। कंजूस हो या फिजूलखर्च समृद्ध नहीं माना जा सकता। पहले की संपत्ति किसी काम की नहीं दूसरे की क्षणभंगुर और प्रेतपिपासा की तरह कभी न मिटने घटने वाली बीमारी। यह गलत नहीं कहा है कि वही शाहों का शाह है जिसे किसी चीज की जरूरत नहीं न किसी की चिंता।
'नवनिधि' और 'अष्ट सिद्धि' की मरीचिका 'नियानवे के फेर' से कहीं अधिक क्लेषदायक है। पहले कमाने-बचाने-बढ़ाने के लिए खून पसीना एक करना पड़ता है फिर इसे आरक्षित रखने के लिए किलेबंदी का परिश्रम करना होता है। उपभोग के लिए समय ही कहां बचा रह जाता है? भतर्ृहरि को यह ज्ञान सदियों पहले हो चुका था 'भोगा न भुक्ता वयमेय भुक्ता!' यह तृष्णा कभी मिटती नहीं। इस नश्वर मानव जीवन में तृप्ति असंभव है। इसीलिए जीवन को सुखी बनाए रखने के लिए उस कंचन का अथवा उन रत्नों का मोह त्यागें जिनकी चमक-दमक सदा हमारे साथ नहीं रह सकती। उन मूल्यों, आदर्शो से अपने
कोष को समृद्ध करने की चेष्टा में प्राथमिकता दें जो सदा द्युतिमान रहते हैं- हमारे साथ साथ दूसरों को भी आभूषित-अलंकृत करते हैं।
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