शुक्रवार, 23 मई 2014

करुणा....

परमात्मा को करुणा का सागर कहा गया है। कारण यह कि करुणा की महिमा अपार है। करुणा उस अगाध सागर की तरह है, जिसमें प्रेम, दया, उदारता, कृपा व ममता आदि रूपी नदियां समाकर वृहद् रूप ले लेती हैं। प्रेम, दया, उदारता, कृपा आदि अभिव्यक्तियां किसी व्यक्ति विशेष या प्राणिमात्र के प्रति मानव मन में जन्म लेती हैं और प्रत्युत्तर में यश, आत्मसंतोष, स्वर्गमोक्ष आदि की इच्छा रखती हैं, जबकि करुणा समस्त प्राणिमात्र, यहां तक कि जड़ चेतन, सभी पर समभाव से शरद् पूर्णिमा की चांदनी की अहर्निश बरसात कर नहला जाती हैं। करुणा के सामने किसी भी प्रकार का भेदभाव किसी भी रूप में अवरोध बनने का साहस नहीं कर सकता। जड़ चेतन, देव-दानव, साधु असाधु सबको बगैर किसी भेदभाव के स्वयं में आत्मसात कर लेने की गरिमा केवल करुणा को उपलब्ध है। कदाचित यही कारण है कि करुणा उन्हें ही उपलब्ध होती है, जो समस्त सांसारिक कामनाओं का अतिक्त्रमण कर ब्रह्म प्राप्ति के निकट पहुंच गए होते हैं। वास्तव में हम जिसे प्रेम कहते हैं वह सांसारिक होने के कारण प्रेम व घृणा रूपी सिक्के का एक पहलू होता है, जो मन की चंचलता व क्षणभंगुरता का प्रतीक होता है। हम जिसे प्रेम करते हैं, देर-सबेर उससे घृणा और जिसे घृणा करते हैं उसके प्रति कभी न कभी प्रेम का भाव हमारे मन में जरूर उठता है। प्रेम शाश्वत है जबकि घृणा तात्कालिक या क्षणभंगुर।
करुणा में अहंकार का लेश मात्र भी स्थान नहीं होता और न ही प्रत्युत्तर में करुणा करने वाला व्यक्ति कुछ चाहता है। करुणावान व्यक्ति किसी भी प्रकार की कामना नहीं करता। करुणा तो समस्त प्राणिमात्र के दुख को दूर कर परम-तत्व की प्राप्ति की ओर अग्रसर होते देखना चाहती है। इसीलिए करुणा सर्वश्रेष्ठ है, महान है। सच तो यह है कि करुणावान व्यक्ति समाज के लिए वरदान है। करुणामय भाव से वह दीन-दुखियों, उत्पीड़ित लोगों और वंचितों की अपने स्तर से भरसक सेवा करता है। करुणावान व्यक्ति ही समाज को सम्यक रूप से संचालित कर सकते हैं। यही कारण है कि दुनिया के सभी महापुरुषों ने करुणा की शिक्षा देते हुए इसे आचरण में उतारने की बात कही है।

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