शुक्रवार, 23 मई 2014

असफलता की समीक्षा

हमे अपनी हार अथवा असफलता की समीक्षा अवश्य करनी चाहिए; जिससे कि हम अपनी कमियों को दूर कर लक्ष्य प्राप्ति में सफल हों। वैसे हम ऐसा करते भी हैं या करते हुए दिखते है, किन्तु आश्चर्य तो तब होता है जब हम अपनी हार या विफलता का कारण अपने में न देखकर इसके लिये किसी दूसरे को दोषी ठहराते है। मुझे एक प्रसंग स्मरण हो रहा है-" श्री राम रावण युद्ध के अंत में जब राक्षस राज रावण के पास भगवान् श्री राम कतिपय जिज्ञासा के बहाने उसकी मनः स्थिति जानने के लिए उसके पास पहुंचे तो रावण ने ही श्री राम से उलटे प्रश्न पूंछ डाला - कि राम तुम बताओ कि तुम्हारी विजय का कारण क्या है ? भक्त वत्सल प्रभु राम ने कहा मेरे हनुमान जैसे सहायक जिनमे समुद्र लांघने की क्षमता है। रावण हंसा और बोला कि राम तुम्हारे यहाँ कितने हनुमान है? बेशक एक पर मेरी लंका का तो प्रत्येक नागरिक रोज अनेक बार समुद्र लांघता है, स्त्री, पुरुष, बच्चे सब जब भी इन्हें भूंख लगती और साधू संतो को सताने का मन करता। तब प्रभु बोले मेरे भैया लक्षमण जैसे समर्पित भाई। रावण फिर हंसा और बोला वही लक्षमण जिसे मेरे बेटे मेघनाद ने शक्तिबाण से सुला दिया था ? वह तो मेरा ही चिकत्सक सुषेन था, जिसने मेरी ही सहमति से जाकर उसे दवा देकर ज़िंदा किया। थोड़ा विचार कर बोलो राम- श्री राम बोले मेरे पूर्वजों का पुन्य प्रताप । हम सूर्यवंशी महापुरुषों की संतान है। इस पर रावण जोर से फिर हंसा और बोला कि राम मेरे कुल के आंगे तुम्हारे कुल की गिनती ही कहा ? पिता विश्वस्रुवा के समक्ष तुम्हारी पूरी वन्शावाली पसंगी हो जायेगी; बाबा पुलस्त की तो बात ही छोंड़ो। भगवान् बोले अच्छा आप ही बोलो। रावण ने कहा राम तुम्हारा चरित्र । तुम्हारे चरित्र ने ही तुम्हे विजय श्री दिलाई है और समस्त भूमंडल तुम्हारी जय जयकार कर रहा है। तुमसे पूर्व तुम्हारे पिता या पितामह अथवा अन्य प्रथ्वी के राजाओं में चरित्रबल ही नहीं रहा कि मेरी और देख सकते। कमोवेश उनमे वही दोष हैं जो मुझमे है। मै राक्षस कुल से हूँ यहाँ चरित्र का कोई अर्थ नहीं जिसके कारण आज मेरा नाश हुआ और तुम अकेले बल पर मुझे परास्त कर सके। जिनके तुमने नाम लिए या और जो तुम्हारे साथी है, वे सब बहाना हैं क्योंकि ये सब तब भी थे जब तुम दंडकारान्य नही आये थे।आज तुम्हारा निष्कलंक जीवन, बेदाग चरित्र ही तुम्हे जन-जन के अंतस में स्थान दे रहा है।"
मित्रों हमें भी अपनी असफलता की समीक्षा में उद्भट विद्वान, परम प्रतापी, शिव भक्त, विश्व विजयी रावण से शिक्षा लेकर अपने चरित्र की समीक्षा करनी चाहिये, कि कहीं हम पशुवों की तरह आप आप ही चरे में तो नहीं लगे रहे ? अपने दुष्ट संगी-साथी, सम्बन्धियों के कुकर्मों का समर्थन और सहयोग कर पाप के भागी तो नहीं बन रहे ?? अहंकार के वशीभूत होकर जनमानस को सुनाने से इनकार तो नहीं किया ??? कर्तव्य एवं परिश्रम की उपेक्षा कर विलासिता में तो नहीं डूब गए ???? ईमानदारी और सत्यनिष्ठा जैसे शब्द हमारे लिये बेमानी तो नहीं हो गए ????? हम चाटुकारों और स्वार्थी लोगो को अपना मार्ग-दर्शक नहीं बना बैठे ?????? "चरित्र" शब्द ब्यापक निहितार्थ से जुड़ा शब्द है; जो इसे सम्हालेगा वही सबके दिलों में राज करेगा, जो नहीं उसकी दुर्गति निश्चित है। इतिहास गवाह है, उदाहरण देने की ज़रूरत नहीं जरूरत शिक्षा लेने की है।
जीवन में कौन पराजित होना चाहता है? किसे अपना लक्ष्य प्रिय नहीं ? अतः बन्धुवों आप सब इस पोस्ट को शेयर कर, लोक-शिक्षण में सहायक बनकर, यश के भागी अवश्य बनें।इसका राजनैतिक निहितार्थ न निकालें।

स्वास्तिक का महत्व............



स्वास्तिक को चित्र के रूप में भी बनाया जाता है और लिखा भी जाता है जैसे "स्वास्ति न इन्द्र:" आदि.
स्वास्तिक भारतीयों में चाहे वे वैदिक हो या सनातनी हो या जैनी ,ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य शूद्र सभी मांगलिक कार्यों जैसे विवाह आदि संस्कार घर के अन्दर कोई भी मांगलिक कार्य होने पर "ऊँ" और स्वातिक का दोनो का अथवा एक एक का प्रयोग किया जाता है।
हिन्दू समाज में किसी भी शुभ संस्कार में स्वास्तिक का अलग अलग तरीके से प्रयोग किया जाता है,बच्चे
का पहली बार जब मुंडन संस्कार किया जाता है तो स्वास्तिक को बुआ के द्वारा बच्चे के सिर पर हल्दी रोली मक्खन को मिलाकर बनाया जाता है,स्वास्तिक को सिर के ऊपर बनाने का अर्थ माना जाता है कि धर्म,अर्थ,काम और मोक्ष चारों पुरुषार्थों का योगात्मक रूप सिर पर हमेशा प्रभावी रहे,स्वास्तिक के अन्दर चारों भागों के अन्दर बिन्दु लगाने का मतलब होता है कि व्यक्ति का दिमाग केन्द्रित रहे,चारों तरफ़ भटके
नही,वृहद रूप में स्वास्तिक की भुजा का फ़ैलाव सम्बन्धित दिशा से सम्पूर्ण इनर्जी को एकत्रित करने के बाद बिन्दु की तरफ़ इकट्ठा करने से भी माना जाता है,स्वास्तिक का केन्द्र जहाँ चारों भुजायें एक साथ काटती है,उसे सिर के बिलकुल बीच में चुना जाता है,बीच का स्थान बच्चे के सिर में परखने के लिये जहाँ हड्डी विहीन हिस्सा होता है और एक तरह से ब्रह्मरंध के रूप में उम्र की प्राथमिक अवस्था में उपस्थित होता है और वयस्क होने पर वह हड्डी से ढक जाता है,के स्थान पर बनाया जाता है। स्वास्तिक संस्कृत भाषा का अव्यय पद है,पाणिनीय व्याकरण के अनुसार इसे वैयाकरण कौमुदी में ५४ वें क्रम पर अव्यय पदों में गिनाया गया है। यह स्वास्तिक पद ’सु’ उपसर्ग तथा ’अस्ति’ अव्यय (क्रम ६१) के संयोग से बना है,इसलिये ’सु+अस्ति=स्वास्ति’ इसमें ’इकोयणचि’सूत्र से उकार के स्थान में वकार हुआ है। ’स्वास्ति’ में भी ’अस्ति’
को अव्यय माना गया है और ’स्वास्ति’ अव्यय पद का अर्थ ’कल्याण’ ’मंगल’ ’शुभ’ आदि के रूप में प्रयोग किया जाता है। जब स्वास्ति में ’क’ प्रत्यय का समावेश हो जाता है तो वह कारक का रूप धारण कर लेता है और उसे ’स्वास्तिक’ का नाम दे दिया जाता है।
स्वास्तिक का निशान भारत के अलावा विश्व में अन्य देशों में भी प्रयोग में लाया जाता है,जर्मन देश में इसे राजकीय चिन्ह से शोभायमान किया गया है,अन्ग्रेजी के क्रास में भी स्वास्तिक का बदला हुआ रूप मिलता है,हिटलर का यह फ़ौज का निशान था,कहा जाता है कि वह इसे अपनी वर्दी पर दोनो तरफ़ बैज के रूप में प्रयोग करता था,लेकिन उसके अंत के समय भूल से बर्दी के बेज में उसे टेलर ने उल्टा लगा दिया था,जितना शुभ अर्थ सीधे स्वास्तिक का लगाया जाता है,उससे भी अधिक उल्टे स्वास्तिक का अनर्थ भी माना जाता है। स्वास्तिक की भुजाओं का प्रयोग अन्दर की तरफ़ गोलाई में लाने पर वह सौम्य माना जाता है,बाहर की तरफ़ नुकीले हथियार के रूप में करने पर वह रक्षक के रूप में माना जाता है। काला स्वास्तिक शमशानी शक्तियों को बस में करने के लिये किया जाता है,लाल स्वास्तिक का प्रयोग शरीर की सुरक्षा के साथ भौतिक सुरक्षा के
प्रति भी माना जाता है,डाक्टरों ने भी स्वास्तिक का प्रयोग आदि काल से किया है,लेकिन वहां सौम्यता और दिशा निर्देश नही होता है। केवल धन (+) का निशान ही मिलता है। पीले रंग का स्वास्तिक धर्म के मामलों में और संस्कार के मामलों में किया जाता है,विभिन्न रंगों का प्रयोग विभिन्न कारणों के लिये किया जाता है

संतोषं परमं सुखम्

कुछ दिन पहले जब एक चिर उदीयमान नेता ने यह वक्तव्य दिया कि 'गरीबी कुछ नहीं एक मन:स्थिति है' तो अनेक वंचितों को लगा कि एक शहजादे ने ताजमहल बनाने का झंझट पाले बिना ही उनकी गरीबी का मजाक उड़ाया है। हम इस शिकायत को नाजायज नहीं समझते पर इधर हमें खुद यह फतवा देने का लालच होने लगा है कि 'अमीरी-रईसी भी कुछ नहीं, एक मन:स्थिति है!' जैसे मन के हारे हार है, मन के जीते जीत। कुछ वैसे ही असली समृद्धि का सुख वही मनुष्य भोग सकता है जो 'संतोषं परमं सुख' का मर्म जान चुका हो।

यह कतई नहीं सुझा रहे कि हम आप 'रूखी सूखी खाय के, ठंडा पानी पीय' लाचार बैठे रहें परंतु दूसरों की अकूत संपत्ति का हिसाब -किताब रखते अपनी नींद हराम ना करें। समाजशास्त्री शोध यह बात प्रमाणित कर चुका है कि अमेरिका जैसे अमीर देश-समाज में भी विषमता का अहसास दर्दनाक और विस्फोटक है।

पूंजीवादी व्यवस्था जनित उपभोगवादी जीवनशैली की अनेक विकृतियां हमने आधुनिकता का पश्चिमी संस्करण आंख मूंद कर अपनाने की उतावली में ग्रहण कर ली हैं। अमीरी और गरीबी के पैमाने देश-काल के अनुसार बदलते रहते हैं। आज गरीबी की सीमा रेखा महत्वपूर्ण समझी जाती है कभी पौराणिक समाजवादी युग में 'वेल्थ टैक्स' लगाया जाता था। बहरहाल समृद्धि तथा विपन्नता के बारे में अपनी परंपरा के संदर्भ में वर्तमान मन:स्थिति को सोचने की जरूरत है।

ऐश्वर्य शब्द का मूल ईश्वर से जुड़ा है। मनुष्य आदिकाल से देवताओं की तरह अलौकिक सुख सुविधाओं के उपभोग की कामना करता रहा है। देवता शब्द स्वयं 'दिव' द्युतिमान अर्थात् चमक का आभास कराता है। संस्कृत में ही नहीं यूनानी एवं लैटिन भाषा में प्राचीन द्यौस तथा 'डिऔस' इसी के नातेदार हैं। संक्षेप में चकाचौंध वाली जीवनशैली जिसके भोग विलास नश्वर नहीं, स्वर्ग के निवासियों की तरह समय के प्रवाह के साथ समृद्धि का पर्याय बन गयी है। 'सर्वेगुणा कांचनमाश्रयंति' को ही शाश्वत सत्य मानने के कारण हम आज संपत्ति और समृद्धि के दूसरे प्रकार पहचानने में असमर्थ हो चुके हैं और फलस्वरूप अकिंचन, वास्तव में दरिद्र बनते जा रहे हैं। यह रेखांकित करने की आवश्यकता है कि सौंदर्यानुभूति और रसास्वादन के लिए साक्षरता अनिवार्य नहीं और न ही धनवान होने की शर्त पूरी करना। लोकसंगीत, लोकनृत्य, लोकनाट्य के साथ साथ हस्तशिल्प और लोकचित्रकला की समृद्ध परंपरा यह प्रमाणित करती है कि कलाजगत में 'शास्त्रीय' और राज्याश्रयी का एकाधिकार नहीं। यही बात वैज्ञानिक शोध के क्षेत्र में भी लागू होती है। अपवादों को छोड़ जीनियस वैज्ञानिक धन संपत्ति के मोहपाश में बंधे नहीं रहते। 'अथतो ब्रह्म जिज्ञासा' और 'ज्ञानात् परतरं नहि' जैसे सूत्रवाक्य उनकी प्रेणा का अजस्न स्नोत रहते हैं। इसके साथ साथ यह उपदेश भी काम का है कि 'श्रद्धावान लभते ज्ञानम्' तथा 'न च वित्तेन तर्पणीयो मनुष्य:'। अर्थात् धनवान की तुलना में श्रद्धावान का पलड़ा भारी है ज्ञान की दुनिया में और मोक्ष का मार्ग भौतिक संपत्ति प्रशस्त नहीं करती। जिस पात्र का मुख सोने के ढकने-आवरण से बंद है सच उसके भीतर ही छुपा रहता है।

'विद्यैव धनमक्षयम्' का यथार्थ नकार कर ही हम इस भ्रांति का शिकार होते हैं कि लक्ष्मी और सरस्वती का जन्मजात बैर है। इनमें एक की ही कृपा प्राप्त की जा सकती है, ऐसा सोचना ठीक नहीं। यह भुलाना भी घातक साबित हो सकता है कि लक्ष्मी चंचला है।

आदिशंकर विरचित 'भजगोविंदम् स्तोत्र' के एक श्लोक की पंक्ति मार्मिक है- 'मा कुरु धन जन यौवन गर्वम्!' इसी का सहज अनुवाद एक फिल्मी भजन में किया गया है-'धन जौबन का गरब ना कीजै!' अंतत: सब ठाठ धरा रह जाता है- गठरी बांध कर साथ कुछ नहीं ले जाने का नुस्खा आज तक कोई ईजाद नहीं कर सका है। पीछे छोड़ी विरासत में भी जो कुछ अमर अजर है वह अक्षय यश काया ही है। विडंबना यह है कि यह यश धन संचय में असाधारण सफलता से कहीं अधिक परोपकार में व्यक्तिगत संपत्ति के नि:संकोच खर्च से अर्जित होता है। 'दोनों हाथ उलीचिए यहि सज्जन को काम!' कैसे भूलें- 'पूत सपूत तो क्यों धन संचय, पूत कपूत तो क्यों धन संचय?'

एक पुरानी कहावत याद आती है - 'लंका में सोना है तो हमारे बाप का क्या है?' अपने खजाने पर कुंडली मारे फन फैलाए धनपिशाच को सुखी-संतुष्ट मानने वाला नादान ही कहा जा सकता है। कंजूस हो या फिजूलखर्च समृद्ध नहीं माना जा सकता। पहले की संपत्ति किसी काम की नहीं दूसरे की क्षणभंगुर और प्रेतपिपासा की तरह कभी न मिटने घटने वाली बीमारी। यह गलत नहीं कहा है कि वही शाहों का शाह है जिसे किसी चीज की जरूरत नहीं न किसी की चिंता।

'नवनिधि' और 'अष्ट सिद्धि' की मरीचिका 'नियानवे के फेर' से कहीं अधिक क्लेषदायक है। पहले कमाने-बचाने-बढ़ाने के लिए खून पसीना एक करना पड़ता है फिर इसे आरक्षित रखने के लिए किलेबंदी का परिश्रम करना होता है। उपभोग के लिए समय ही कहां बचा रह जाता है? भतर्ृहरि को यह ज्ञान सदियों पहले हो चुका था 'भोगा न भुक्ता वयमेय भुक्ता!' यह तृष्णा कभी मिटती नहीं। इस नश्वर मानव जीवन में तृप्ति असंभव है। इसीलिए जीवन को सुखी बनाए रखने के लिए उस कंचन का अथवा उन रत्‍‌नों का मोह त्यागें जिनकी चमक-दमक सदा हमारे साथ नहीं रह सकती। उन मूल्यों, आदर्शो से अपने

कोष को समृद्ध करने की चेष्टा में प्राथमिकता दें जो सदा द्युतिमान रहते हैं- हमारे साथ साथ दूसरों को भी आभूषित-अलंकृत करते हैं।

करुणा....

परमात्मा को करुणा का सागर कहा गया है। कारण यह कि करुणा की महिमा अपार है। करुणा उस अगाध सागर की तरह है, जिसमें प्रेम, दया, उदारता, कृपा व ममता आदि रूपी नदियां समाकर वृहद् रूप ले लेती हैं। प्रेम, दया, उदारता, कृपा आदि अभिव्यक्तियां किसी व्यक्ति विशेष या प्राणिमात्र के प्रति मानव मन में जन्म लेती हैं और प्रत्युत्तर में यश, आत्मसंतोष, स्वर्गमोक्ष आदि की इच्छा रखती हैं, जबकि करुणा समस्त प्राणिमात्र, यहां तक कि जड़ चेतन, सभी पर समभाव से शरद् पूर्णिमा की चांदनी की अहर्निश बरसात कर नहला जाती हैं। करुणा के सामने किसी भी प्रकार का भेदभाव किसी भी रूप में अवरोध बनने का साहस नहीं कर सकता। जड़ चेतन, देव-दानव, साधु असाधु सबको बगैर किसी भेदभाव के स्वयं में आत्मसात कर लेने की गरिमा केवल करुणा को उपलब्ध है। कदाचित यही कारण है कि करुणा उन्हें ही उपलब्ध होती है, जो समस्त सांसारिक कामनाओं का अतिक्त्रमण कर ब्रह्म प्राप्ति के निकट पहुंच गए होते हैं। वास्तव में हम जिसे प्रेम कहते हैं वह सांसारिक होने के कारण प्रेम व घृणा रूपी सिक्के का एक पहलू होता है, जो मन की चंचलता व क्षणभंगुरता का प्रतीक होता है। हम जिसे प्रेम करते हैं, देर-सबेर उससे घृणा और जिसे घृणा करते हैं उसके प्रति कभी न कभी प्रेम का भाव हमारे मन में जरूर उठता है। प्रेम शाश्वत है जबकि घृणा तात्कालिक या क्षणभंगुर।
करुणा में अहंकार का लेश मात्र भी स्थान नहीं होता और न ही प्रत्युत्तर में करुणा करने वाला व्यक्ति कुछ चाहता है। करुणावान व्यक्ति किसी भी प्रकार की कामना नहीं करता। करुणा तो समस्त प्राणिमात्र के दुख को दूर कर परम-तत्व की प्राप्ति की ओर अग्रसर होते देखना चाहती है। इसीलिए करुणा सर्वश्रेष्ठ है, महान है। सच तो यह है कि करुणावान व्यक्ति समाज के लिए वरदान है। करुणामय भाव से वह दीन-दुखियों, उत्पीड़ित लोगों और वंचितों की अपने स्तर से भरसक सेवा करता है। करुणावान व्यक्ति ही समाज को सम्यक रूप से संचालित कर सकते हैं। यही कारण है कि दुनिया के सभी महापुरुषों ने करुणा की शिक्षा देते हुए इसे आचरण में उतारने की बात कही है।

मरने के कितने दिनों बाद आत्मा पहुंचती है यमलोक, क्या होता है रास्ते में?

मृत्यु एक ऐसा सच है जिसे कोई भी झुठला नहीं सकता। हिंदू धर्म में मृत्यु के बाद स्वर्ग-नरक की मान्यता है। पुराणों के अनुसार जो मनुष्य अच्छे कर्म करता है, उसके प्राण हरने देवदूत आते हैं और उसे स्वर्ग ले जाते हैं, जबकि जो मनुष्य जीवन भर बुरे कामों में लगा रहता है, उसके प्राण हरने यमदूत आते हैं और उसे नरक ले जाते हैं, लेकिन उसके पहले उस जीवात्मा को यमलोक ले जाया जाता है, जहां यमराज उसके पापों के आधार पर उसे सजा देते हैं।

मृत्यु के बाद जीवात्मा यमलोक तक किस प्रकार जाती है। इसका विस्तृत वर्णन गरुड़ पुराण में है। गरुड़ पुराण में यह भी बताया गया है कि किस प्रकार मनुष्य के प्राण निकलते हैं और किस तरह वह प्राण पिंडदान प्राप्त कर प्रेत का रूप लेते हैं। जानिए यमदूत किस प्रकार किसी मनुष्य के प्राण निकालते हैं और उसे किस प्रकार यातना देते हुए यमलोक तक ले जाते हैं-

- गरुड़ पुराण के अनुसार जिस मनुष्य की मृत्यु होने वाली होती है, वह बोलने की इच्छा होने पर भी बोल नहीं पाता है। अंत समय में उसमें दिव्यदृष्टि उत्पन्न होती है और वह संपूर्ण संसार को एकरूप समझने लगता है। उसकी सभी इंद्रियां नष्ट हो जाती हैं और वह जड़ अवस्था में हो जाता है, यानी हिलने-डुलने में असमर्थ हो जाता है। इसके बाद उसके मुंह से झाग निकलने लगते हैं और लार टपकने लगती है। पापी पुरुष के प्राण नीचे के मार्ग से निकलते हैं।

- उस समय दो यमदूत आते हैं। वे बड़ी भयानक क्रोधवाली आंखों वाले होते हैं। उनके हाथ में पाशदंड रहता है। वे अपने दांतों से कट-कट करते हैं। यमदूतों के कौए जैसे काले बाल होते हैं। उनका मुंह बहुत भयानक होता है, नाखून ही उनके शस्त्र होते हैं। यमराज के दूतों को देखकर प्राणी भयभीत होकर मल-मूत्र त्याग करने लग जाता है। उस समय शरीर से अंगूष्ठमात्र (अंगूठे के बराबर) जीव हा हा शब्द करता हुआ निकलता है, जिसे यमदूत पकड़ लेते हैं।

- यमराज के दूत उस शरीर को पकड़कर पाश गले में बांधकर उसी क्षण यमलोक ले जाते हैं, जैसे- राजा के सैनिक अपराध करने वाले को पकड़ कर ले जाते हैं। उस पापी जीवात्मा को रास्ते में थकने पर भी यमराज के दूत भयभीत करते हैं और उसे नरक में मिलने वाले दुखों के बारे में बार-बार बताते हैं। यमदूतों की ऐसी भयानक बातें सुनकर पापात्मा जोर-जोर से रोने लगती है, किंतु यमदूत उस पर बिल्कुल भी दया नहीं करते हैं।

- इसके बाद वह अंगूठे के बराबर शरीर यमदूतों से डरता और कांपता हुआ, कुत्तों के काटने से दु:खी हो अपने किए हुए पापों को याद करते हुए चलता है। आग की तरह गर्म हवा तथा गर्म बालू पर वह जीव चल नहीं पाता है और वह भूख-प्यास से भी व्याकुल हो उठता है। तब यमदूत उसकी पीठ पर चाबुक मारते हुए उसे आगे ले जाते हैं। वह जीव जगह-जगह गिरता है और बेहोश हो जाता है। फिर उठ कर चलने लगता है। इस प्रकार यमदूत उस पापी को अंधकार वाले रास्ते से यमलोक ले जाते हैं

गरुड़ पुराण के अनुसार यमलोक 99 हजार योजन (योजन वैदिक काल की लंबाई मापने की इकाई है। एक योजन बराबर होता है चार कोस यानी 13-16 कि.मी)। वहां यमदूत पापी जीव को थोड़ी ही देर में ले जाते हैं। इसके बाद यमदूत उसेभयानक यातना देते हैं। इसके बाद वह जीवात्मा यमराज की आज्ञा से यमदूतों के साथ पुन: अपने घर आती है।

- घर आकर वह जीवात्मा अपने शरीर में पुन: प्रवेश करने की इच्छा करती है परंतु यमदूत के बंधन से वह मुक्त नहीं हो पाती और भूख-प्यास के कारण रोती है। पुत्र आदि जो पिंड और अंत समय में दान करते हैं, उससे भी प्राणी को तृप्ति नहीं होती क्योंकि पापी पुरुषों को दान, श्रद्धांजलि द्वारा तृप्ति नहीं मिलती। इस प्रकार भूख-प्यास से युक्त होकर वह जीव यमलोक जाता है।

- इसके बाद पापात्मा के पुत्र आदि परिजन यदि पिंडदान नहीं देते हैं, तो वह प्रेत रूप हो जाती है और लंबे समय तक निर्जन वन में रहती है। इतना समय बीतने के बाद भी कर्म को भोगना ही पड़ता है, क्योंकि प्राणी नरक यातना भोगे बिना उसे मनुष्य शरीर नहीं प्राप्त होता। गरुड़ पुराण के अनुसार मनुष्य की मृत्यु के बाद 10 दिन तक पिंडदान अवश्य करना चाहिए। उस पिंडदान के प्रतिदिन चार भाग हो जाते हैं। उसमें दो भाग तो पंचमहाभूत देह कोपुष्टि देने वाले होते हैं, तीसरा भाग यमदूत का होता है तथा चौथा भाग प्रेत खाता है। नौवें दिन पिंडदान करने से प्रेत का शरीर बनता है, दसवें दिन पिंडदान देने से उस शरीर को चलने की शक्ति प्राप्त होती है।

- गरुड़ पुराण के अनुसार शव को जलाने के बाद पिंड से हाथ के बराबर का शरीर उत्पन्न होता है। वही यमलोक के मार्ग में शुभ-अशुभ फल को भोगता है। पहले दिन पिंडदान से मूर्धा (सिर), दूसरे दिन से गर्दन और कंधे, तीसरे दिन से ह्रदय, चौथे दिन के पिंड से पीठ, पांचवें दिन से नाभि, छठे और सातवें दिन से कमर और नीचे का भाग, आठवें दिन से पैर, नौवें और दसवें दिन से भूख-प्यास आदि उत्पन्न होती है। ऐसे पिंड शरीर को धारण कर भूख-प्यास से व्याकुल प्रेत ग्यारहवें और बारहवें दिन का भोजन करता है।

यमदूतों द्वारा तेरहवें दिन प्रेत को बंदर की तरह पकड़ लिया जाता है। इसके बाद वह प्रेत भूख-प्यास से तड़पता हुआ यमलोक अकेला ही जाता है। यमलोक तक पहुंचने का रास्ता वैतरणी नदी को छोड़कर छियासी हजार योजन है। उस मार्ग पर प्रेत प्रतिदिन २०० योजन चलता है। इस प्रकार वह 47 दिन लगातार चलकर यमलोक पहुंचता है। इस प्रकार मार्ग में सोलह पुरियों को पार कर पापी जीव यमराज के घर जाता है।

- इन सोलह पुरियों के नाम इस प्रकार हंै- सौम्य, सौरिपुर, नगेंद्रभवन, गंधर्व, शैलागम, क्रौंच, क्रूरपुर, विचित्रभवन, बह्वापाद, दु:खद, नानाक्रंदपुर, सुतप्तभवन, रौद्र, पयोवर्षण, शीतढ्य, बहुभीति। इन सोलह पुरियों को पार करने के बाद आगे यमराजपुरी आती है। पापी प्राणी यम, पाश में बंधे हुए मार्ग में हाहाकार करते हुए अपने घर को छोड़कर यमराज पुरी जाते हैं।

दोहरे नजरिये का प्रमाण

भगवान राम के चित्र पर उभरी आपत्ति को एक विशेष मानसिकता के प्रमाण के रूप में देख रहे हैं

चुनावी मंच पर रामजी की फोटो लगी होना चुनाव आयोग को ठीक नहीं लगा। यह विषय नैतिक है या राजनीतिक, यह इस पर निर्भर करेगा कि राम को आप ईश्वर मानते हैं या पूर्वज? मिथक या यथार्थ? यह कई कारणों से गंभीर प्रश्न है, जिसे हल्के से लेने से ही कई समस्याएं बनी और चल रही हैं। इसलिए इसे सभी संदर्भो में सामने रखना चाहिए। सर्वोच्च न्यायालय में सरकारी वकील हलफनामे में कहते हैं कि राम एक परिकल्पना हैं। वैसा कोई मनुष्य कभी हुआ ही नहीं। वामपंथी इतिहासकारों ने 1989 में सामूहिक रूप से पुस्तिका प्रकाशित करके भी ठीक यही कहा था। अगर ऐसा है तो चुनावी मंच पर एक काल्पनिक छवि लगने पर क्यों आपत्ति है? कारण खोजने पर मिलता है कि राम तो हिंदुओं के भगवान हैं! यानी धार्मिक प्रतीक हैं। इस प्रकार चुनावी मंच पर धार्मिक प्रतीक लाकर 'सांप्रदायिक' संदेश दिया गया। इसलिए आपत्ति होनी चाहिए। तमाम मीडिया खबरों में इसी तरह का संकेत आया है।

प्रश्न इसलिए गंभीर है, क्योंकि हाल में वेंडी डोनीगर की 'वैकल्पिक हिंदू इतिहास' पुस्तक में राम का तरह-तरह से मजाक बनाया गया। उससे पहले दिल्ली विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में राम के बारे में 'तीन सौ रामायण' के अंतर्गत कई ऊल-जुलूल बातें पढ़ाई जाती रही थीं। उन प्रसंगों में पूरा सरकारी तंत्र तटस्थ था। मानो यह किसी लेखिका, किसी संगठन, विश्वविद्यालय आदि का निजी मामला हो, लेकिन क्या यह उचित है कि हमारा सरकारी तंत्र एक ही विषय पर मनमाना रुख अपनाए? बल्कि कहना चाहिए कि सदैव हिंदू-विरोधी रुख अपनाए? क्योंकि लंबे समय से देखा जा रहा है कि राम को काल्पनिक मानें या वास्तविक, दोनों ही स्थितियों में सरकारी-सेक्युलर रुख हिंदू-विरोधी ही होता है। क्योंकि राम काल्पनिक पात्र हैं इसलिए उनके बारे में हर तरह की निंदा, आलोचना छात्रों, युवाओं को पढ़ाई जा सकती है। यह सेक्युलरपंथ की 'अकादमिक स्वतंत्रता' हुई, लेकिन तब रामायण, महाभारत को क्लासिक, ऐतिहासिक ज्ञान-ग्रंथ मानकर स्कूल, कॉलेज, विश्वविद्यालय में पढ़ाया भी जाना चाहिए। अन्य धर्मो के ईश्वरीय अवतारों के अनुयायियों के लिए पूरा मामला पलट जाता है। मा‌र्क्सवादियों या वेंडी जैसी रंग-बिरंगी कथाएं गढ़कर उनका मजाक नहीं उड़ा सकते। अल्पसंख्यक शिक्षा संस्थानों को मिले विशेषाधिकार के कारण सरकारी अनुदान से उनके बारे में पूर्णत: मजहबी शिक्षाएं मुस्लिम और ईसाई बच्चों, युवाओं को नियमित देते हैं। भारतीय संविधान की धारा 28-30 का यही हिंदू-विरोधी अर्थ कर दिया गया है।

रामजी पर चुनाव आयोग की आपत्ति पुन: इस खुले अन्याय को देखने, समझने का अवसर है कि स्वतंत्र भारत में हिंदू समुदाय को दोहरा भेदभाव झेलना पड़ता है। उनके देवी-देवताओं और पुस्तकों को सरकारी तंत्र न समान रूप से धार्मिक आदर देता है, न समान शैक्षिक अवसर। जब धार्मिक सम्मान की बात हो, जैसे अयोध्या-विवाद या 'तीन सौ रामायण' विवाद, तब मामले को अकादमिक, कानूनी बताकर हिंदुओं को अपने हाल पर छोड़ दिया जाता है, लेकिन जब शिक्षा संस्थानों में गीता, उपनिषद जैसे कालजयी दार्शनिक ग्रंथों को पढ़ाने की बात हो तो उतनी ही कड़ाई से उसे प्रतिबंधित किया जाता है कि वह तो 'सांप्रदायिक' शिक्षा होगी। दूसरी ओर इन्हें ज्ञान-भंडार की मान्यता भी नहीं, क्योंकि स्कूली से लेकर विश्वविद्यालयी शिक्षा तक किसी विषय में इन ग्रंथों को पढ़ा-पढ़ाया नहीं जाता। दर्शन, राजनीति, मनोविज्ञान, इतिहास, आदि सभी विषयों में सारी अध्ययन-सूची पश्चिमी पुस्तकों से भरी है। भारत में हिंदू समुदाय के साथ हो रहे इस दोहरे अन्याय को ईसाइयत के उदाहरण से समझें। जैसा 'द विंची कोड' आदि उदाहरणों से स्पष्ट है, यूरोपीय-अमेरिकी जगत बाइबिल और ईसाई कथा-प्रसंगों की आलोचनात्मक व्याख्या करता है। किंतु ईसाइयत का पूरा चिंतन, चर्च और वेटिकन के विचार, भाषण, प्रस्ताव, आदि उनकी शिक्षा प्रणाली का अभिन्न अंग हैं। ईसाइयत पश्चिमी शिक्षा में उसी तरह स्थापित है जैसे भौतिकी, अर्थशास्त्र आदि हैं। वही पढ़कर हजारों युवा उन्हीं कॉलेजों, विश्वविद्यालयों से स्नातक होते हैं जैसे कोई अन्य विषय पढ़कर। तदनुरूप उनकी विशिष्ट पत्र-पत्रिकाएं, सेमिनार, सम्मेलन होते हैं। ईसाइयत संबंधी विमर्श, शोध, चिंतन के अकादमिक जर्नल ऑक्सफोर्ड, सेज जैसे प्रसिद्ध प्रकाशनों से प्रकाशित होते हैं। अत: यदि यूरोप ईसाइयत की कथाओं, ग्रंथों की आलोचनात्मक व्याख्या करता है तो पहले उसके संपूर्ण अध्ययन को सहज विषय के रूप में शिक्षा-प्रणाली में सम्मानित आसन देता है। स्वयं वेंडी शिकागो विश्वविद्यालय के 'डिवीनिटी स्कूल' में ही प्रोफेसर हैं। भारतीय विश्वविद्यालयों में ऐसा कोई विभाग ही नहीं है। धर्म के नाम पर हमारे सभी महान ग्रंथों औपचारिक शिक्षा से बाहर कर दिया गया है। इसीलिए गीता प्रेस, गोरखपुर के संपूर्ण कार्य को अकादमिक जगत अजूबे की तरह देखता है। निश्चय ही ऐसी नीति चलाने के लिए स्वतंत्र भारत के शासकों ने जनता से कभी कोई जनादेश नहीं लिया। हिंदू जनता पर यह हीन मानसिकता विदेशी शासकों ने जबरन थोपी। अभी राम के चित्र पर संज्ञान लेकर चुनाव आयोग ने उसी मानसिकता की झलक दी है, जो हिंदू धर्म को भी पश्चिमी 'रिलीजन' के चौखटे में रखकर देखती है। अन्यथा राम तो हिंदू के लिए मर्यादा-पुरुषोत्तम हैं। जीवन के हर क्षेत्र में मर्यादित आचरण के आदर्श-पुरुष। यह आचरण-केंद्रित धर्म है, जो किसी के विरुद्ध होता ही नहीं। ऐसी छवि और धर्म को मतवादी, मजहबी विश्वासों के समकक्ष रखकर सांप्रदायिक-सेक्युलर का सारा वर्गीकरण हिंदू-विरोधी रहा है। आयोग को भी यह देखना चाहिए।

नरेंद्र मोदी ने कई इंटरव्यू में बार-बार दोहराया है कि वह हिंदू-मुस्लिम, सेक्युलर-सांप्रदायिक वर्गीकरण के जाल से मुक्त होकर सब कुछ करेंगे, उनके लिए केवल न्याय-अन्याय का संदर्भ रहेगा और वह 125 करोड़ भारतवासियों को एक नजर से देखेंगे। इसलिए मोदी को भी नोट करना चाहिए कि देश के 90 करोड़ हिंदुओं को धर्म और शिक्षा के मामले में हीन दर्जा देकर एक स्थाई अन्याय चल रहा है।

निराशा का उपचार

महान दार्शनिक सुकरात ने कहा था कि ज्ञान ही शक्ति है। इसलिए ज्ञान के माध्यम से ही कोई व्यक्ति निराशा से बच सकता है। आश्चर्य तो यह है कि पशु व अन्य जंतु निराशा से ग्रस्त नहीं हैं। वहीं ज्ञान से परिपूर्ण मानव ही ज्ञान का अभ्यासी न होने के कारण सर्वाधिक निराशापूर्ण जीवन जी रहा है। इस संदर्भ में सर्वप्रथम यह जानना आवश्यक है कि यह संसार द्वंदात्मक है। इसका आशय यह है कि यहां सुख के साथ दुख और प्रेम के साथ घृणा और मित्रता के साथ शत्रुता वैसे ही बंधी है, जैसे हर सिक्के के दो पहलू होते हैं। इस समझ से संसार की तमाम समस्याएं हमें ज्यादा निराश नहीं कर सकतीं। ऐसा इसलिए, क्योंकि यह संसार का स्वभाव है, जैसे आग का स्वभाव है जलाना। एक अन्य त्रुटि मानव करता है कि वह अपनी निराशा दूर करने या अपने सुखों में वृद्धि के लिए ,वह जो प्रयास करता है, उनके गलत दिशा में जाने की संभावना रहती है। ऐसा इसलिए, क्योंकि उसे यह याद नहीं रहता है कि यदि वह लाभ चाहता है, तो उसे इस शब्द को उल्टे क्रम में लिखकर आने वाले शब्द के निहितार्थ पर अमल करना चाहिए। कहने का आशय है कि लाभ पाने के लिए व्यक्ति को भला बनना चाहिए। यदि लाभ सदा चाहते हो, तो सदा को उल्टे क्रम से लिखकर प्राप्त हुए शब्द यानी 'दास' शब्द के निहितार्थ पर अमल करना चाहिए। कहने का निहितार्थ यह है कि व्यक्ति को किसी अन्य शख्स का नहींबल्कि ईश्वर का दास बनना चाहिए।

बहरहाल, अहंकार मनुष्य की सबसे बड़ी बाधा है। इस कारण अनेक व्यक्ति ईश्वर का दास होने का पाखंड करते हैं। इसी कारण व्यक्ति दुखी और निराश होता है। वहीं यदि कोई चाहता है कि ईश्वर की उस पर 'दया' बरकरार रहे, तो उसे दया का उल्टा शब्द 'याद' के आशय को समझना होगा। यानी ईश्वर को हर क्षण याद करते रहें। यह भी स्मरण रखना होगा कि हम दूसरों को जो देते हैं, उसी की वर्षा 10 गुनी हम पर हो जाती है। अज्ञानता के वशीभूत होकर मानव अपने आसपास के लोगों पर दुख की वर्षा करता है। वह अपना बैंक बैलेंस बढ़ाने के लिए अनैतिक कार्य करता है, परंतु ऐसा करके वह और दुखी हो जाता है। मनुष्य इस दुष्चक्र से तभी निकल सकता है, जब वह दूसरों का भला करे, उन्हें सुख दे और ईश्वर को याद रखकर नैतिक व्यवहार करे। तभी वह आनंद को महसूस कर सकता है।