हमे अपनी हार अथवा असफलता की समीक्षा अवश्य करनी चाहिए; जिससे कि हम अपनी
कमियों को दूर कर लक्ष्य प्राप्ति में सफल हों। वैसे हम ऐसा करते भी हैं या
करते हुए दिखते है, किन्तु आश्चर्य तो तब होता है जब हम अपनी हार या
विफलता का कारण अपने में न देखकर इसके लिये किसी दूसरे को दोषी ठहराते है।
मुझे एक प्रसंग स्मरण हो रहा है-" श्री राम रावण युद्ध के अंत में जब
राक्षस राज रावण के पास भगवान् श्री राम कतिपय जिज्ञासा के बहाने उसकी मनः
स्थिति जानने के लिए उसके पास पहुंचे तो रावण ने ही
श्री राम से उलटे प्रश्न पूंछ डाला - कि राम तुम बताओ कि तुम्हारी विजय का
कारण क्या है ? भक्त वत्सल प्रभु राम ने कहा मेरे हनुमान जैसे सहायक जिनमे
समुद्र लांघने की क्षमता है। रावण हंसा और बोला कि राम तुम्हारे यहाँ
कितने हनुमान है? बेशक एक पर मेरी लंका का तो प्रत्येक नागरिक रोज अनेक बार
समुद्र लांघता है, स्त्री, पुरुष, बच्चे सब जब भी इन्हें भूंख लगती और
साधू संतो को सताने का मन करता। तब प्रभु बोले मेरे भैया लक्षमण जैसे
समर्पित भाई। रावण फिर हंसा और बोला वही लक्षमण जिसे मेरे बेटे मेघनाद ने
शक्तिबाण से सुला दिया था ? वह तो मेरा ही चिकत्सक सुषेन था, जिसने मेरी ही
सहमति से जाकर उसे दवा देकर ज़िंदा किया। थोड़ा विचार कर बोलो राम- श्री राम
बोले मेरे पूर्वजों का पुन्य प्रताप । हम सूर्यवंशी महापुरुषों की संतान
है। इस पर रावण जोर से फिर हंसा और बोला कि राम मेरे कुल के आंगे तुम्हारे
कुल की गिनती ही कहा ? पिता विश्वस्रुवा के समक्ष तुम्हारी पूरी वन्शावाली
पसंगी हो जायेगी; बाबा पुलस्त की तो बात ही छोंड़ो। भगवान् बोले अच्छा आप ही
बोलो। रावण ने कहा राम तुम्हारा चरित्र । तुम्हारे चरित्र ने ही तुम्हे
विजय श्री दिलाई है और समस्त भूमंडल तुम्हारी जय जयकार कर रहा है। तुमसे
पूर्व तुम्हारे पिता या पितामह अथवा अन्य प्रथ्वी के राजाओं में चरित्रबल
ही नहीं रहा कि मेरी और देख सकते। कमोवेश उनमे वही दोष हैं जो मुझमे है। मै
राक्षस कुल से हूँ यहाँ चरित्र का कोई अर्थ नहीं जिसके कारण आज मेरा नाश
हुआ और तुम अकेले बल पर मुझे परास्त कर सके। जिनके तुमने नाम लिए या और जो
तुम्हारे साथी है, वे सब बहाना हैं क्योंकि ये सब तब भी थे जब तुम
दंडकारान्य नही आये थे।आज तुम्हारा निष्कलंक जीवन, बेदाग चरित्र ही तुम्हे
जन-जन के अंतस में स्थान दे रहा है।"
मित्रों हमें भी अपनी असफलता की समीक्षा में उद्भट विद्वान, परम प्रतापी, शिव भक्त, विश्व विजयी रावण से शिक्षा लेकर अपने चरित्र की समीक्षा करनी चाहिये, कि कहीं हम पशुवों की तरह आप आप ही चरे में तो नहीं लगे रहे ? अपने दुष्ट संगी-साथी, सम्बन्धियों के कुकर्मों का समर्थन और सहयोग कर पाप के भागी तो नहीं बन रहे ?? अहंकार के वशीभूत होकर जनमानस को सुनाने से इनकार तो नहीं किया ??? कर्तव्य एवं परिश्रम की उपेक्षा कर विलासिता में तो नहीं डूब गए ???? ईमानदारी और सत्यनिष्ठा जैसे शब्द हमारे लिये बेमानी तो नहीं हो गए ????? हम चाटुकारों और स्वार्थी लोगो को अपना मार्ग-दर्शक नहीं बना बैठे ?????? "चरित्र" शब्द ब्यापक निहितार्थ से जुड़ा शब्द है; जो इसे सम्हालेगा वही सबके दिलों में राज करेगा, जो नहीं उसकी दुर्गति निश्चित है। इतिहास गवाह है, उदाहरण देने की ज़रूरत नहीं जरूरत शिक्षा लेने की है।
जीवन में कौन पराजित होना चाहता है? किसे अपना लक्ष्य प्रिय नहीं ? अतः बन्धुवों आप सब इस पोस्ट को शेयर कर, लोक-शिक्षण में सहायक बनकर, यश के भागी अवश्य बनें।इसका राजनैतिक निहितार्थ न निकालें।
मित्रों हमें भी अपनी असफलता की समीक्षा में उद्भट विद्वान, परम प्रतापी, शिव भक्त, विश्व विजयी रावण से शिक्षा लेकर अपने चरित्र की समीक्षा करनी चाहिये, कि कहीं हम पशुवों की तरह आप आप ही चरे में तो नहीं लगे रहे ? अपने दुष्ट संगी-साथी, सम्बन्धियों के कुकर्मों का समर्थन और सहयोग कर पाप के भागी तो नहीं बन रहे ?? अहंकार के वशीभूत होकर जनमानस को सुनाने से इनकार तो नहीं किया ??? कर्तव्य एवं परिश्रम की उपेक्षा कर विलासिता में तो नहीं डूब गए ???? ईमानदारी और सत्यनिष्ठा जैसे शब्द हमारे लिये बेमानी तो नहीं हो गए ????? हम चाटुकारों और स्वार्थी लोगो को अपना मार्ग-दर्शक नहीं बना बैठे ?????? "चरित्र" शब्द ब्यापक निहितार्थ से जुड़ा शब्द है; जो इसे सम्हालेगा वही सबके दिलों में राज करेगा, जो नहीं उसकी दुर्गति निश्चित है। इतिहास गवाह है, उदाहरण देने की ज़रूरत नहीं जरूरत शिक्षा लेने की है।
जीवन में कौन पराजित होना चाहता है? किसे अपना लक्ष्य प्रिय नहीं ? अतः बन्धुवों आप सब इस पोस्ट को शेयर कर, लोक-शिक्षण में सहायक बनकर, यश के भागी अवश्य बनें।इसका राजनैतिक निहितार्थ न निकालें।