मंगलवार, 30 जुलाई 2013

शहीद उधम सिंह के घर की हालत देखकर आंसू आते है...

जिंदगी को बदलने में वक्त नहीं लगता पर वक्त को बदलने में जिंदगी लग जाती है

शहीद उधम सिंह के घर की हालत देखकर आंसू आते है....
कोंग्रेस की सरकार नेहरू परिवार को याद करने के लिए लाखों रुपये बहाती है, लेकिन कभी भी देश के सच्चे सपूतों को याद नहीं करती, पिछले वर्ष आर टी आई से पता चला कि सैकड़ों  करोड़ रुपये इंदिरा व राजीव जयंती के नाम पर फूंके गये थे, जबकि सच्चे क्रन्तिकारी रानी लक्ष्मी बाई से लेकर सुभाष चन्द्र बोस तक किसी को भी आजतक याद नहीं किया गया, आइये हम शहीद उधम सिंह को भारत स्वाभिमान की और से नमन व स्मरण करते है.....
शहीद उधम सिंह के घर का यह चित्र हमारी भारत स्वाभिमान की सुनाम इकाई द्वारा भाई परमिंदर जोल्ली द्वारा भेजा गया है.

 जहा आज वो लोग सत्ताओ का सुख भोग रहे है...जिन्होंने कोई कुबानी नहीं दी..........वही ऐसे वीर शहीद जिन्होंने भारत माता के अपमान का बदला लेने के लिए अपनी संकल्प की अग्नि को २० साल तक दबाये रखा और....जलियावाला कांड का बदला लिया....ऐसे  ही  पंजाब के वीर शहीद उधम सिंह को हम नमन करते है..............
   तथाकथित देशभक्त जिनके वंशज आज सत्ताओ के शीर्ष पर  में है.......उनका द्वारा लूटा हुआ धन स्विस बांको में पड़ा है, देश के ८४ करोड़ लोग भूखे मर रहे है........
  आइये आपको दिखाते है, शहीद उधम सिंह का संगरूर , सुनाम  स्थित घर , जिसको देखकर कोई यह नहीं कह सकता की यह किसी महान क्रिन्तिकारी का घर है...
  आज तक सचे क्रन्तिकारी का इस देश के गदारो ने जिन्होंने ६५न सालो तक साशन किया कोई स्मारक नहीं बनाया,,,..लेकिन यहाँ पर एक परिवार की और से ४०० से अधिक योजनाये चल रही है,,,........
शहीद उधम सिंह का स्मारक देखकर  आंसू आते है..........

आज तक नेताजी का कोई स्मारक , पंडित बिस्मिल का, चंदेर्शेखर आजाद का, राजिंदर लाहिड़ी, ठाकुर रोशन सिंह का कोई भी स्मारक नहीं है, (अगर कोई है तो वह सरकार का नहीं बल्कि देशभक्त लोगो का बनवाया हुआ है).............
नई दिल्ली। भारत के महान क्रांतिकारियों में ऊधम सिंह का विशेष स्थान है। उन्होंने जलियांवाला बाग नरसंहार के दोषी माइकल ओडायर को गोली से उड़ा दिया था।

पंजाब में संगरूर जिले के सुनाम गांव में 26 दिसंबर 1899 में जन्मे ऊधम सिंह ने जलियांवाला बाग में अंग्रेजों द्वारा किए गए कत्लेआम का बदला लेने की प्रतिज्ञा की थी जिसे उन्होंने गोरों की मांद में घुसकर 21 साल बाद पूरा कर दिखाया। पंजाब के तत्कालीन गवर्नर माइकल ओडायर के आदेश पर ब्रिगेडियर जनरल रेजीनल्ड डायर ने अमृतसर के जलियांवाला बाग में शांति के साथ सभा कर रहे सैकड़ों भारतीयों को अंधाधुंध फायरिंग करा मौत के घाट उतार दिया था।
क्रांतिकारियों पर कई पुस्तकें लिख चुके जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के प्रोफेसर चमन लाल के अनुसार जलियांवाला बाग की इस घटना ने ऊधम सिंह के मन पर गहरा असर डाला था और इसीलिए उन्होंने इसका बदला लेने की ठान ली थी। ऊधम सिंह अनाथ थे और अनाथालय में रहते थे, लेकिन फिर भी जीवन की प्रतिकूलताएं उनके इरादों से उन्हें डिगा नहीं पाई। उन्होंने 1919 में अनाथालय छोड़ दिया और क्रांतिकारियों के साथ मिलकर जंग-ए-आजादी के मैदान में कूद पड़े।

जाने माने नेताओं डॉ. सत्यपाल और सैफुद्दीन किचलू की गिरफ्तारी के विरोध में लोगों ने जलियांवाला बाग में 13 अप्रैल 1919 को बैसाखी के दिन एक सभा रखी थी, जिसमें ऊधम सिंह पानी पिलाने का काम कर रहे थे। पंजाब का तत्कालीन गवर्नर माइकल ओडायर किसी कीमत पर इस सभा को नहीं होने देना चाहता था और उसकी सहमति से ब्रिगेडियर जनरल रेजीनल्ड डायर ने जलियांवाला बाग को घेरकर अंधाधुंध फायरिंग करा दी। अचानक हुई गोलीबारी से बाग में भगदड़ मच गई। बहुत से लोग जहां गोलियों से मारे गए, वहीं बहुतों की जान भगदड़ ने ले ली। जान बचाने की कोशिश में बहुत से लोगों ने पार्क में मौजूद कुएं में छलांग लगा दी। बाग में लगी पट्टिका के अनुसार 120 शव तो कुएं से ही बरामद हुए।

सरकारी आंकड़ों में मरने वालों की संख्या 379 बताई गई, जबकि पंडित मदन मोहन मालवीय के अनुसार कम से कम 1300 लोगों की इस घटना में जान चली गई। स्वामी श्रद्धानंद के मुताबिक मृतकों की संख्या 1500 से अधिक थी। अमृतसर के तत्कालीन सिविल सर्जन डॉ. स्मिथ के अनुसार मरने वालों की संख्या 1800 से ज्यादा थी। ऊधम सिंह के मन पर इस घटना ने इतना गहरा प्रभाव डाला था कि उन्होंने बाग की मिट्टी हाथ में लेकर ओडायर को मारने की सौगंध खाई थी। अपनी इसी प्रतिज्ञा को पूरा करने के मकसद से वह 1934 में लंदन पहुंच गए और सही वक्त का इंतजार करने लगे।

ऊधम को जिस वक्त का इंतजार था वह उन्हें 13 मार्च 1940 को उस समय मिला जब माइकल ओडायर लंदन के कॉक्सटन हाल में एक सेमिनार में शामिल होने गया। भारत के इस सपूत ने एक मोटी किताब के पन्नों को रिवॉल्वर के आकार के रूप में काटा और उसमें अपनी रिवॉल्वर छिपाकर हाल के भीतर घुसने में कामयाब हो गए। चमन लाल के अनुसार मोर्चा संभालकर बैठे ऊधम सिंह ने सभा के अंत में ओडायर की ओर गोलियां दागनी शुरू कर दीं। सैकड़ों भारतीयों के कत्ल के गुनाहगार इस गोरे को दो गोलियां लगीं और वह वहीं ढेर हो गया।
अपनी प्रतिज्ञा पूरी करने के बाद इस महान क्रांतिकारी ने समर्पण कर दिया। उन पर मुकदमा चला और उन्हें मौत की सजा सुनाई गई। 31 जुलाई 1940 को पेंटविले जेल में यह वीर हंसते हंसते फांसी के फंदे पर झूल गया।



जी हाँ, यही टुटा फूटा स्मारक है, हमारे देश अपनी जान देने वाले का,इसके अतिरिक्त कहीं और  कही कोई स्मारक नहीं



यही पुश्तैनी  स्थान उनके घर होता था.............


             शहीद उधम सिंह के माता पिता उनको अनाथ छोड़कर बचपन में चल बसे थे, जब वह ८ वर्ष के थे,,,,कुछ समय बाद २-३ साल बाद ही उनके बड़े भाई भी उनको छोड़कर चले गए (देहांत हो गया)

     कुछ लोग अपने बलपर ही इस कार्य को कर रहे है.....उनकी यादो को जिन्दा रखे हुए

सोमवार, 29 जुलाई 2013

माओवादी-नक्सलवादी आन्दोलन

जिन युवाओं को भारत में माओवादी-नक्सलवादी आन्दोलन का इतिहास ध्यान में नहीं है उनके लिए यह संक्षिप्त नोट लिख रहा हूँ। यह उनको परिस्थितियों के बारे में सोचने-समझने तथा एक बेहतर निर्णय लेने में मदद करेगा। 

1962 में जब भारत पर चीन ने आक्रमण किया तो पूरे बंगाल में वामपंथियों (communists) ने चीन के चेयरमैन माओ के स्वागत के बड़े-बड़े होर्डिंग-बैनर लगा दिए। वो चाहते थे की भारत पर चीन का साम्राज्य हो जाए जिससे की भारत एक कम्युनिस्ट देश बन जाए और यहाँ उनका शासन हो जाए।

वर्तमान माओवादी-नक्सलवादी आन्दोलन के नेताओं को चीन द्वारा संरक्षण दिया जा रहा है और पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी ISI उनको धन व हथियार उपलब्ध कराती है। नीचे चित्र देखें >>

2009 में भारत के 10 राज्यों के करीब 180 जिले नक्सलवादी हिंसा प्रभावित थे। 2011 में 9 राज्यों के करीब 83 जिलों में ये संख्या सिमट कर रह गयी। छत्तीसगढ़ राज्य आज नक्सलवादी हिंसा का केंद्र है। नीचे मानचित्र देखें >>

1989-2012 के 23 वर्षों के बीच इस रक्त-रंजित तथाकथित "आन्दोलन" के कारण आम नागरिकों, राजनीतिक कार्यकर्ताओं, सिपाहियों और नक्सलवादियों सहित 11,700 से अधिक लोग मारे गए हैं।

आज की स्थिति यह है की इस "आन्दोलन" की आड़ में षड्यंत्रपूर्वक भारत को प्रशासनिक, राजनीतिक और सामाजिक रूप से कमज़ोर किया जा रहा है।

मंगलवार, 16 जुलाई 2013

'पैलेस ऑन व्हील्स'

पैलेस ऑन व्हील्स
दुनिया की सर्वश्रेष्ठ लग्जरी रेलगाड़ियों में से एक राजस्थान की 'पैलेस ऑन व्हील्स' बुधवार को नई दिल्ली के सफदरजंग रेलवे स्टेशन से इस वर्ष के पर्यटन सत्र में सप्ताह भर के सफर पर अपने अंतिम फेरे के लिए रवाना हुई. इस शाही रेलगाड़ी में कुल 47 पर्यटक यात्रा कर रहे हैं.
'पैलेस ऑन व्हील्स' के महाप्रबंधक प्रदीप बोहरा ने बताया कि इस पर्यटन सत्र में पैलेस ऑन व्हील्स का सफर काफी उत्साहजनक रहा है. इस सत्र में शाही गाड़ी ने कुल 34 फेरे लगाए और 3,080 पर्यटकों ने यात्रा की. इस वर्ष गत वर्ष की तुलना में 423 पर्यटक अधिक हैं.
उल्लेखनीय है कि शाही रेलगाड़ी पेलेस ऑन व्हील्स में सफर करने के लिए प्रति व्यक्ति प्रति रात्रि किराया 670 अमेरिकी डॉलर है. दो व्यक्तियों के एक साथ यात्रा करने पर यह किराया 500 डॉलर प्रति यात्री और तीन व्यक्तियों के एक साथ यात्रा करने पर 450 डॉलर प्रति व्यक्ति प्रति रात्रि किराया निर्धारित है.
राजस्थान पर्यटन विकास निगम के महाप्रबंधक प्रमोद शर्मा ने बताया कि सात दिन के सफर में यह शाही रेलगाड़ी पर्यटकों को जयपुर, सवाईमाधोपुर, चित्तौड़गढ़, उदयपुर, जैसलमेर, जोधपुर, भरतपुर एवं आगरा की यात्रा करवाती है. यात्रियों की सुविधा के लिए रॉयल्स स्पा, इंटरनेट, सेटेलाइट टी.वी., पत्र-पत्रिकाएं जैसी सुविधाएं मौजूद हैं.
वातानुकूलित शाही रेलगाड़ी में 20 सैलून हैं, जिनमें 14 सैलून यात्रियों के लिए, दो शानदार रेस्टारेंट 'महाराजा' एवं 'महारानी', एक बार रूम, रेस्त्रां लॉज और सभी यात्री सैलून राजसी सुख-सुविधाओं से युक्त हैं.

वियोग रूपी दुःख

बहु रोग वियोगन्हि लोग हए । भवदंघ्रि निरादर के फल ए ॥
भव सिन्धु अगाध परे नर ते । पद पंकज प्रेम न जे करते ॥
अति दीन मलीन दुखी नितहीं । जिन्ह के पद पंकज प्रीति नहीं ॥
अवलंब भवन्त कथा जिन्ह के । प्रिय संत अनंत सदा तिन्ह के ॥

भगवान शिव अपने परम आराध्य भगवान श्री रामचन्द्र जी की स्तुति करते हुए कह रहे हैं कि....

इस संसार में बहुत से लोग रोगों तथा वियोग रुपी दुःखों से त्रस्त हैं, मनुष्य जीवन के यह सभी कष्ट तो....
हे प्रभु ! आप के श्रीचरणों के निरादर का ही फल है । जो लोग भी आपके चरण कमलों से प्रेम नहीं करते, वे ही इस अथाह भव सागर में पड़े हुए हैं ।

हे करुणानिधान ! जिन लोगों को आपके श्रीचरणों में प्रेम नहीं वे नित्य हमेशा ही, अत्यन्त दीन, मलीन, उदास एवं दुखी रहते हैं तथा जिन लोगों को आपकी लीला कथा का आधार है व एक मात्र आपका ही आश्रय है.... ऎसे उन लोगों को, प्रभु के प्यारे संत और भगवान सदा ही प्रिय लगते हैं ।

शनिवार, 13 जुलाई 2013

ब्रह्मगिरी पहाडि़यों में बसा भारत का स्कॉटलैंड - कुर्ग



कुर्ग के बारे में काफी सुना था। गर्मी की छुट्टियों में वक्त मिला तो आनन् फानन में कुर्ग जाने का प्लान बना डाला। मगर रेलवे की टिकट बुक करने में खासी मशक्कत करनी पड़ी। काफी भाग दौड़ और सिफारिशों के बाद मंगलौर तक की रेलवे टिकट बुक करा पाया। मंगलौर से कुर्ग की दूरी है 135 किलोमीटर। यहां से मडिकेरी तक सीधी बसें मिल जाती हैं। मडिकेरी कुर्ग जिले का हेडक्वार्टर है। मंगलौर से बस में मडिकेरी पहुंचने में साढ़े 4 घंटे लगते हैं, करीब इतना ही वक्त मैसूर से मडिकेरी पहुंचने में लगता है।
समुद्र तल से 1525 मीटर की उंचाई पर बसा मदिकेरी कर्नाटक के कोडगु जिले का मुख्यालय है। मदिकेरी को दक्षिण का स्कॉटलैंड कहा जाता है। यहां की धुंधली पहाढ़ियां , हरे वन, कॉफी के बगान और प्रकृति के खूबसूरत दृश्य मदिकेरी को अविस्मरणीय पर्यटन स्थल बनाते हैं। मदिकेरी और उसके आसपास बहुत से ऐतिहासिक और धार्मिक स्थल भी हैं। यह मैसूर से 125 किमी. दूर पश्चिम में स्थित है और कॉफी के उद्यानों के लिए भी बहुत प्रसिद्ध है।
1600 ईसवी के बाद लिंगायत राजाओं ने कुर्ग में राज किया और मदिकेरी को राजधानी बनाया। मदिकेरी में उन्होंने मिट्टी का किला भी बनवाया। 1785 में टीपू सुल्तान की सेना ने इस साम्राज्य पर कब्जा करके यहां अपना अधिकार जमा लिया। चार वर्ष बाद कुर्ग ने अंग्रेजों की मदद से आजादी हासिल की और राजा वीर राजेन्द्र ने पुर्ननिर्माण का कार्य किया। 1834 ई. में अंग्रेजों ने इस स्थान पर अपना अधिकार कर लिया और यहां के अंतिम शासक पर मुकदमा चलाकर उसे जेल में डाल दिया।
कुर्ग अंग्रेजों का दिया नाम है जिसे बदलकर कोडगु कर दिया गया है। यहां की भाषा कूर्गी है। स्थानीय लोग इसे कोडवक्तया कोडवा कहते हैं। मडिकेरी के अलावा कुर्ग के मुख्य इलाके हैं विराजपेट, सोमवारपेट और कुशलनगर। यहां लोगों में एक अलग तरह की खुशमिजाज़ी है, जो आप कुदरत के करीब रहने वाले हर इंसान में देख सकते हैं। दक्षिण भारत के दूसरे इलाकों से कुर्ग हर मायने में अलग है। कूर्गी लोग आमतौर पर गोरे, आकर्षक और अच्छी कद-काठी वाले हैं। लोगों की वेशभूषा भी अलग है। कूर्गी पुरुष काले रंग का एक खास तरह का परिधन पहनते हैं जिसे स्थानीय भाषा में कुप्या कहते हैं। खरीदारी कर रहीं कुछ स्थानीय महिलाएं अलग अंदाज में साड़ी पहने हुए दिखीं, जिसमें वो खूबसूरत लग रही थीं।
स्थानीय तौर तरीकों से वाकिफ होने के लिहाज से हमने मंगलौर से मडिकेरी तक बस में सपफर करना उचित समझा। मदिकेरी के कर्नाटक स्टेट ट्रांसपोर्ट के बस स्टैंड से हमारा होटल पांच किलोमीटर की दूरी पर था। होटल पहुंचकर हम तरोताजा हुए और कुछ देर आराम करने के बाद चहल कदमी करने निकल गए। हमने अपने होटल के जरिये एक स्थानीय टैक्सी चालक मुथु से बात की और उसे अगले दिन सुबह होटल आने को कहा।
साफ-सुथरी आबो-हवा, पंछियों की चहचहाहट और होटल के कमरे में कुनकुनाती हुई धूप के बीच मडिकेरी में यह हमारी एक ताजगी भरी सुबह थी। मुथु आज हमें मडिकेरी के आस-पास कुछ खास जगहों की सैर कराने वाला था।
 

सबसे पहले हम ओंकारेश्वर मंदिर पहुंचे, जहां घंटियों की गूंज और ईश्वर दर्शन से हमारे दिन का आगाज हुआ। भगवान शिव और विष्णु को समर्पित इस मंदिर की स्थापना हलेरी वंश के राजा लिंगराजेन्द्र द्वितीय ने 1829 ईसवी में की थी। मान्यता है कि लिंग राजेंद्र ने काशी से शिवलिंग लाकर यहां स्थापित किया। मंदिर में आपको इस्लामिक स्थापत्य शैली की झलक मिलेगी। मंदिर में एक केंद्रीय गुम्बद और चार मीनारें हैं जो बासव अर्थात पवित्र बैलों से घिरी हुई हैं। इसके प्रांगण में एक तालाब है जिसमें कातला प्रजाति की मछलियां हैं। ये तालाब को गंदा होने से बचाती हैं। आप चाहें तो मछलियों को खाना भी खिला सकते हैं। पल भर के लिए पानी से उचक कर बाहर निकलती और खाना लेकर फिर पानी में गुम होती मछलियां। यह मजेदार दृश्य मंदिर को और आकर्षक बनाता है ।
मंदिर से निकलकर हम राजा की सीट ;गद्दीद्ध की तरफ बढ़े। हरे-भरे बाग के अंदर है राजा की ऐतिहासिक गद्दी। यहां से दूर-दूर फैले हरे धन के खेतों, घाटियों, भूरे-नीले घाटों के दृश्य देखे जा सकते हैं। यह वो जगह है जहां कुर्ग के राजा अपनी शामें बिताया करते थे। पहाडि़यों, बादलों और धुंध के बीच सिमटे कुर्ग का दृश्य देखकर आपका मन बाग-बाग हो जाएगा। बेहतर है कि शाम के समय ही यहां आएं ताकि डूबते सूरज का दिलकश नजारा आपसे छूट न जाए। राजा की सीट के साथ ही चोटी मरियम्मा नामक एक प्राचीन मंदिर है।
मडिकेरी में ऐतिहासिक महत्व की कई जगहें हैं और मडिकेरी किला उनमें से एक है। प्रारंभ में यह किला मिट्टी का बना था और इसका निर्माण मुद्दु राजा ने करवाया था । टीपू सुल्तान ने इसका पुननिर्माण करके इसमें पत्थरों का इस्तेमाल किया। टीपू सुल्तान ने 18वीं शताब्दी में यहां कुछ समय के लिए शासन किया था। किले के अंदर लिंगायत शासकों का महल है। किले में एक पुरानी जेल, गिरिजाघर और मंदिर भी हैं। गिरिजाघर को म्यूजि़यम में तब्दील कर दिया गया है। छोटे से म्यूजि़यम का चक्कर लगाकर हम किले से बाहर निकल आए।
राजा की कब्रगाह हमारा अगला पड़ाव थी। मडिकेरी से करीब डेढ़ किलोमीटर दूर एक टीले नुमा मैदान पर हैं राजा वीर राजेंद्र और लिंगराजेंद्र की कब्रगाहें। इतिहास में दिलचस्पी रखने वालों के अलावा प्रकृति-प्रेमियों को भी यह जगह पसंद आएगी। खास बात यह है कि कब्रगाह के अंदर एक शिवलिंग स्थापित है।
यहां से हम एबी वाटरफाल की तरफ बढ़े। मडिकेरी से 8 किलोमीटर दूर एबी वाटरफाल एक निजी कॉफी-एस्टेट के अंदर है। एस्टेट में कदम रखते ही कॉफी, काली-मिर्च, इलायची और दूसरे कई पेड़-पौधों देखने को मिलते हैं। हरियाली और ढलान भरे रास्ते से उतरते हुए हमें कल-कल करते झरने की आवाज सुनाई दी। कुछ कदम चलने के बाद दिखा एबी वाटरफाल, जिसके ठीक सामने हैंगिंग ब्रिज यानि झूलता हुआ पुल है। पुल पर खड़े हो जाएं तो झरने से उड़ते छींटे आपको सराबोर कर देते हैं। कुदरत के तोहफे को नजरों में कैद करने का मजा ही कुछ और है। झरनों को पूरे शबाब पर देखना हो तो माॅनसून से अच्छा वक्त कोई नहीं है। पुल के पास एक इंद्रधनुष नजर आया जिसने माहौल को और दिलकश बना दिया। पर कुदरती खूबसूरती के अलावा भी बहुत कुछ है कुर्ग में।
 

कावेरी का उद्गम- तलकावेरी
मदिकेरी से 40 किमी. दूर भागमंडल को दक्षिण का काशी भी कहा जाता है। जब से भगन्द महर्षि ने यहां शिवलिंग स्थापित करवाया इसे भागमंडल के नाम से जाना जाता है। यहां तीन नदियों का संगम है। कावेरी, कनिका और सुज्योति। हिंदुओं के लिए यह धार्मिक महत्व की जगह है। पास में ही शिव का प्राचीन भागंदेश्वर मंदिर है। यह केरल शैली में बना खूबसूरत मंदिर है। भागमंडल के समीप ही महाविष्णु, सुब्रमन्यम और गणपति मंदिर भी हैं। आप भागमंडल में ठहरना चाहें तो कर्नाटक टूरिज़्म का यात्रा निवास सस्ती और अच्छी जगह है।
भागमंडल से 8 किलोमीटर की दूरी पर है तलकावेरी। यह कावेरी नदी का उद्गम स्थल है। यह ब्रह्मगिरी पहाड़ के ढलान पर स्थित है। समुद्र तल से इस स्थान की ऊंचाई 4500 फीट है। कोडव यानि कुर्ग के लोग कावेरी की पूजा करते हैं। मंदिर के प्रांगण में ब्रह्मकुंडिका है, जो कावेरी का उद्गम स्थान है। इसके सामने एक कुंड है जहां दूर-दूर से आने वाले श्रद्धालु स्नान करते हैं। कावेरी के सम्मान में यहां हर साल 17 अक्टूबर को कावेरी संक्रमणा का त्योहार मनाया जाता है। यह कुर्ग के बड़े त्योहारों में से एक है। मंदिर के प्रांगण में सीढि़यां हैं जो आपको एक ऊंची पहाड़ी पर ले जाएंगी। यहां से आप कुर्ग का नयनाभिराम नजारा देख सकते हैं। एक तरफ बिछी हरियाली की चादर है तो दूसरी ओर केरल की पहाडि़यां हैं। नीचे सर्पीली सड़क पर सरकते हुए इक्का-दुक्का वाहन हैं तो ऊपर अठखेलियां करते हुए बादल। नजर घुमाओ तो ब्रह्मगिरी की ऊंची-नीची पहाडि़यों पर कोहरे के बीच घूमती पवनचक्कियां हैं। ऐसे खूबसूरत नजारे को देखकर समझ में आया कि कुर्ग को भारत का स्कॉटलैंड क्यों कहते हैं। भागमंडल पहुंचने के लिए बेहतर होगा कि आप कोई टैक्सी या जीप कर लें।
 

इगुथप्पा हैं इष्टदेव
शाम ढलने को थी। ऊंची और सुनसान सड़क पर दौड़ती हुए टैक्सी हमें एकांत जगह पर ले आई। यह इगुथप्पा मंदिर था, कोडव लोगों के इष्टदेव इगुथप्पा यानि शिव का मंदिर। कूर्गी भाषा में इगु का मतलब है खाना, और थप्पा का मतलब है देना, इगुथप्पा यानि खाना देना। राजा लिंगराजेंद्र ने 1810 ईसवी में इस मंदिर का निर्माण करवाया था। मंदिर के पुजारी लव ने बताया कि कोडव लोगों के लिए कावेरी अगर जीवनदायिनी मां है तो इगुथप्पा उनके पालक हैं। प्रसाद के रूप में मंदिर में रोजाना भोजन की भी व्यवस्था है। किसी भी जरूरी कर्मकांड से पहले स्थानीय लोग यहां आकर अपने इष्टदेव से आशीर्वाद लेना नहीं भूलते।
हमने भी इगुथप्पा का आशीर्वाद लिया और चेलवरा फाल की तरफ बढ़ गए। चेलवरा कुर्ग के खूबसूरत झरनों में से एक है। यह विराजपेट से करीब 16 किलोमीटर दूर है। एक तंग पगडंडी से होकर चेलवरा फाल तक पहुंचा जाता है। अगर मानसून के वक्त आप यहां आएं तो थोड़ी सावधानी जरूर बरतें। बारिश के दिनों में यह काफी फिसलनभरा होता है। चेलवरा फाल से 2 किलोमीटर आगे चोमकुँड की पहाड़ी है। यहां खूबसूरत नजारों के बीच आप सूरज को ढलता देख सकते हैं।
एशिया का सबसे बड़ा कॉफी उत्पादक
दुनिया में 3 देश कॉफी के बड़े उत्पादक हैं- ब्राजील, वियतनाम और भारत। भारत में कॉफी की खेती की शुरुआत कुर्ग से हुई थी और यह एशिया का सबसे ज्यादा कॉफी उत्पादन करने वाला इलाका है। कॉफी की दो किस्में होती हैं, रोबस्टा और अरेबिका। रोबस्टा कॉफी काफल छोटा जबकि अरेबिका का फल आकार में थोड़ा बड़ा होता है। अरेबिका की फसल को ज्यादा देखभाल की जरूरत होती है। यह कॉफी रोबस्टा से महंगी है।
कॉफी और काली मिर्च की खेती कूर्गी लोगों के रोजगार का मुख्य साधन है। इसके अलावा यहां इलायची, केले, चावल और अदरक की खेती भी होती है। कुर्ग के किसान नवंबर-दिसंबर के महीने में पूर्णमासी के दिन हुत्तरी का त्योहार जोशो-खरोश से मनाते हैं। यह फसल का त्योहार है। इस दिन पारंपरिक पोशाकों में सजे-धजे किसान स्थानीय संगीत वालगा की धुन पर थिरकते हैं और अच्छी फसल की दुआ करते हैं।
अब चर्चा मदिकेरी के आस पास स्थित कुछ पर्यटन स्थलों की।
नागरहोल राष्ट्रीय पार्क- अगर आप वन्य जीवों से रूबरु होना चाहते हैं तो मदिकेरी से 93किमी. दूर नागरहोल राष्ट्रीय पार्क जरूर जाएं । यहां हिरन, बाइसन, हाथी, जंगली भालू, भेडि़ये के अलावा बंदर की विभिन्न प्रजातियों और विशाल टाइगरों को देखा जा सकता है। 284 वर्ग किमी. क्षेत्रा में पफैला यह पार्क उष्ण कटिबंध्ीय पतझड़ वनों से घिरा हुआ है।
इरप्पु झरना- मदिकेरी से 91 किमी. दूर इरप्पु तीर्थ स्थल के रूप में प्रसिद्ध है जिसका संबंध् रामायण के नायक राम से है। रामतीर्थ नदी के किनारे पर ही भगवान शिव का मंदिर है। शिवरात्रि के मौके पर हजारों तीर्थ यात्री इस नदी में डुबकी लगाते हैं।
हरंगी बांध्- मदिकेरी से लगभग 36 किमी. दूर हरंगी अपने ट्री हाउसों के लिए लोकप्रिय है। उत्तरी कुर्ग के कुशलनगर के समीप स्थित हरंगी बांध् एक दर्शनीय पिकनिक स्थल है। कावेरी नदी पर बना यह बांध् 2775 फीट लंबा और 174 फीट ऊंचा है।
नल्कनाद महल- कोडगू की सबसे ऊंची पहाड़ी के तल पर बना नल्कनाद महल अतीत की याद दिलाता एक खूबसूरत पर्यटन स्थल है। मदिकेरी से 45 किमी. दूर यह महल 1792 में डोडा वीरराज द्वारा बनवाया गया था। दो खंड का यह महल अपनी आकर्षक चित्राकारी और वास्तुकारी से सबको मोहित कर देता है।
खरीददारी- मदिकेरी से आप कॉफी, काली मिर्च, इलायची और शहद खरीद सकते हैं। ये सभी चीजें अच्छी किस्म की हैं और ठीक दाम पर मिल जाती हैं। मौसम हो तो कुर्ग के संतरे जरूर खाएं। यूं तो साल भर कुर्ग का मौसम सुहावना रहता है लेकिन मानसून के दौरान यहां आने से बचें।
अगर आप मांसाहार के शौकीन हैं तो कुर्ग आपके लिए मुफीद जगह है। लोग ज्यादातर मांसाहारी हैं और चिकन, मटन के अलावा पोर्क यानि सूअर का मांस भी शौक से खाते हैं। माना जाता है कि कूर्गी यूनान के महान राजा सिकंदर की सेना के वंशज हैं।
विराजपेट से काकाबे गांव तक जाते हुए हमें सेना के एक रिटायर्ड अधिकारी मिल गए। उन्होंने बताया कि भारतीय सेनाओं में बहुत से अधिकारी और जवान कुर्ग से ही हैं।
एक दशक पहले तक कुर्ग के हर घर से एक सदस्य भारतीय सेना में जरूर भर्ती होता था। एक और दिलचस्प बात पता चली कि कुर्ग के लोगों को बंदूक रखने के लिए लाइसेंस की जरूरत नहीं है।
कुर्ग घूमने का उपयुक्त समय है- अक्टूबर से अप्रैल तक।

बुधवार, 10 जुलाई 2013

तबाही में बचा सिर्फ केदारनाथ मंदिर, जानिए इसकी हजारों साल पुरानी बातें...

उत्तराखंड में आए जल प्रलय से एक ओर जहां पूरा केदारनाथ धाम तबाह हो चुका है, वहीं दूसरी ओर उस क्षेत्र में सिर्फ केदारनाथ मंदिर ही अभी भी दिखाई दे रहा है। मंदिर की इमारत ने भीषण जल प्रलय का सामना मजबूती से किया है और मरम्मत कार्य के बाद पुन: मंदिर की गरिमा लौट आएगी।
यह मंदिर हजारों साल पुराना है, लेकिन आज भी ये मजबूती की एक मिसाल है। केदारनाथ मंदिर की इमारत का निर्माण इतने अच्छे ढंग से किया गया था कि इतनी भयंकर आपदा में मंदिर का ऐतिहासिक हिस्सा बचा रह गया, जबकि आधुनिक समय में हुए निर्माण बाढ़ के साथ बह गए।
यहां देखिए केदारनाथ के शानदार फोटो और जानिए केदारनाथ मंदिर से जुड़ी कुछ रोचक बातें, जो आज भी काफी लोगों के लिए अनजानी हैं...

इस शिवलिंग के विषय में ऐसा माना जाता है कि यह स्वयंभू शिवलिंग है। अर्थात् यह शिवलिंग स्वयं प्रकट हुआ है। मान्यताओं के अनुसार केदारनाथ मंदिर का निर्माण पांडव वंश के राजा जनमेजय ने करवाया था। आदि गुरु शंकराचार्य ने इस मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया। आदि गुरु ने ही चार प्रमुख धामों में केदारनाथ को भी एक धाम घोषित किया।
हिंदू धर्म में केदारनाथ धाम की बड़ी महिमा बताई गई है। उत्तराखंड में ही बद्रीनाथ धाम भी स्थित है। दोनों ही धाम पापों का नाश करने वाले और अक्षय पुण्य प्रदान करने वाले बताए गए हैं।
जो भी व्यक्ति इनके दर्शन कर लेता है, वह जन्म और मृत्यु के चक्र से मुक्त हो जाता है। ऐसे लोगों की आत्मा देह त्याग के बाद शिवलोक और विष्णुलोक में निवास करती है। बद्रीनाथ धाम और केदारनाथ धाम, दोनों के दर्शन से ही तीर्थयात्रा पूर्ण मानी जाती है। किसी एक धाम के दर्शन मात्र से पूर्ण पुण्य प्राप्त नहीं हो पाता है।
 
केदारनाथ धाम का मंदिर कितना पुराना है, इस संबंध में कोई प्रामाणिक जानकारी उपलब्ध नहीं है। उपलब्ध जानकारी के अनुसार ऐसा माना जाता है कि मंदिर का निर्माण पांडव वंश के राजा जनमेजय द्वारा करवाया गया था। इस बात से स्पष्ट है कि मंदिर हजारों वर्ष पुराना है। आदि गुरु शंकराचार्य द्वारा इस मंदिर का जीर्णोधार करवाया गया। आदि गुरु शंकराचार्य से पूर्व भी इस मंदिर में शिवजी के दर्शन लिए भक्त जाते रहे होंगे, ऐसा माना जाता है।
केदारनाथ मंदिर एक ऊंचे चबूतरे पर बना हुआ है। मंदिर में मुख्य भाग मंडप और गर्भगृह के चारो ओर परिक्रमा करने का मार्ग है। मंदिर के परिसर में शिवजी के वाहन नन्दी विराजित हैं।
यहां शिवजी के पूजन की विशेष विधि काफी प्राचीन है। प्रात:काल में शिवलिंग को प्राकृतिक रूप से स्नान कराया जाता है। घी का लेपन किया जाता है। इसके बाद धूप-दीप आदि पूजन सामग्रियों के साथ भगवान की आरती की जाती है। शाम के समय भगवान का विशेष श्रृंगार किया जाता है।
केदारनाथ धाम में स्थित पंच केदार के संबंध में एक बहुत ही रोचक कथा पांडवों से जुड़ी हुई है। प्राचीन मान्यताओं के अनुसार महाभारत युद्ध में पांचों पांडवों ने अपने भाइयों का वध करके विजय प्राप्त की। भाइयों के वध से पांचों पांडव भातृहत्या के पाप के भागी हो गए थे। इस पाप से मुक्ति के लिए पांडव भगवान शिव के दर्शन करना चाहते थे।
भातृहत्या पाप से मुक्ति के लिए पांडव काशी गए और शिवजी का दर्शन करना चाहा, लेकिन भोलेनाथ ने उन्हें दर्शन नहीं दिए। तब शिवजी के दर्शन प्राप्त करने के लिए पांडव शिव के धाम हिमालय पहुंच गए। जब पांडव हिमालय के केदार क्षेत्र में पहुंच गए, तब शिवजी वहां से भी अंतर्ध्यान हो गए।
महादेव पांडवों से रुष्ट थे, क्योंकि उन्होंने अपने भाइयों का वध किया था। इसी वजह से वे पांडवों को दर्शन नहीं दे रहे थे। जब पांडव केदार क्षेत्र में आ गए, तब शिवजी ने बैल का रूप धारण किया और अन्य पशुओं में शामिल हो गए।
जब पांडवों को शिवजी केदार क्षेत्र में भी दिखाई नहीं दिए, तब वहां स्थित पशुओं को देखकर उन्हें कुछ संदेह हुआ। संदेह को दूर करने के लिए भीम ने अपना शरीर भीमकाय बना लिया। अब भीम ने दो पहाड़ों पर अपने पैर फैला दिए। ऐसे में सभी पशु भीम के पैरों के नीचे से गुजरने लगे। भोलेनाथ भीम के पैरों के नीचे से निकलना नहीं चाहते थे। जब भीम ने देखा एक बैल पैरों के नीचे से नहीं निकल रहा है, तब वे उस बैल पर झपट गए। भीम के झपटते ही बैल के रूप में शिवजी अंतर्ध्यान होने लगे। तभी भीम ने बैल की पीठ पर पिंडी के समान उठे हुए भाग को पकड़ लिया।
अब महादेव पांडवों की भक्ति और दृढ संकल्प से प्रसन्न हो गए और उनके सामने प्रकट हो गए। शिवजी के दर्शन मात्र से ही पांडवों के सभी पाप नष्ट हो गए। तभी से इस स्थान पर पिंडी के रूप में शिवजी पूजे जाने लगे।
मान्यताओं के अनुसार, जब शिवजी बैल के रूप में अंतर्ध्यान हुए थे तो उनका धड़ काठमांडू में प्रकट हुआ। वहां अब पशुपतिनाथ मंदिर स्थित है।
शिवजी की भुजाएं तुंगनाथ में, मुख रुद्रनाथ में, नाभि मदमदेश्वर में और जटा कल्पेश्वर में प्रकट हुए। इन चारो स्थानों के साथ ही केदारनाथ को पंचकेदार नाम से पुकारा जाता है।
केदारनाथ मंदिर का जीर्णोद्धार करवाने वाले आदिगुरु शंकराचार्य ने 32 वर्ष की आयु में इसी क्षेत्र में समाधि ली थी। आदिगुरु का समाधि स्थल मंदिर के पास ही स्थित है। आदिगुरु शंकराचार्य ने ही चारो धाम, बारह ज्योतिर्लिंग और 51 शक्तिपीठों को खोजा। उन्होंने हिंदू धर्म को संगठित करने के लिए संपूर्ण भारत में भ्रमण किया था।
आदिगुरु ने भारत की यात्रा का अंतिम पड़ाव केदारनाथ में डाला। हिंदू धर्म और मानवता की रक्षा के लिए आदिगुरु ने चार मठों की स्थापना की।
उज्जैन के ज्योतिषाचार्य पं. मनीष शर्मा के अनुसार शिवपुराण की कोटिरुद्र संहिता के बताया गया है कि किस प्रकार केदारनाथ धाम की स्थापना हुई है। बदरीवन में विष्णु के अवतार नर-नारायण पार्थिव शिवलिंग बनाकर भगवान शिव का नित्य पूजन करते थे। उनके पूजन से प्रसन्न होकर भगवान शंकर वहां प्रकट हुए तथा वरदान मांगने को कहा। तब जगत के कल्याण के लिए नर-नारायण ने शंकर को वहीं पर स्थापित होने का वरदान मांगा। शिव प्रसन्न हुए तथा कहा कि यह क्षेत्र आज से केदार क्षेत्र के नाम से जाना जाएगा।
भारत के चार धामों में से एक केदारनाथ धाम उत्तराखंड राज्य के रूद्रप्रयाग जिले में स्थित है।
यह मंदिर शिवजी का मंदिर है और भारत के 12 ज्योतिर्लिंगों में से एक है। यह मंदिर हिमालय की गोद में स्थित है। इसी वजह से अधिकांश समय यहां का वातावरण प्रतिकूल रहता है। इसी वजह से केदारनाथ धाम दर्शनार्थियों के लिए हमेशा खुला नहीं रहता है। मंदिर  अप्रैल से नवंबर तक दर्शन के लिए खोला जाता है।
महादेव ने कहा कि जो भी भक्त केदारनाथ के साथ ही नर-नारायण के दर्शन करेगा, वह सभी पापों से मुक्त होगा और अक्षय पुण्य प्राप्त करेगा। ऐसे भक्त मृत्यु के बाद शिवलोक प्राप्त करेंगे। इसके बाद शिवजी प्रसन्न होकर ज्योति स्वरूप में वहां स्थित लिंग में समाविष्ट हो गए। देश में बारह ज्योर्तिलिंगों में से इस ज्योतिर्लिंग का क्रम पांचवां है। कई ऋषियों एवं योगियों ने यहां भगवान शिव की अराधना की है और मनचाहे वरदान भी प्राप्त किए हैं।
केदारनाथ में शिवजी को कड़ा चढ़ाने का विशेष महत्व माना जाता है। जो भी व्यक्ति वहां कड़ा चढ़ाकर शिव सहित उस कड़े के एवं नर-नारायण पर्वत के दर्शन करता है, वह फिर जन्म और मृत्यु के चक्र में नहीं फंसता है। ऐसे भक्त को भवसागर से मुक्ति प्राप्ति होती है।
शिवपुराण के कोटिरुद्र संहिता में वर्णन  है कि-
केदारेशस्य भक्ता ये मार्गस्थास्तस्य वै मृता:। तेपि मुक्ता भवन्त्येव नात्र कार्या विचारणा।।
शिवपुराण के अनुसार केदारनाथ के मार्ग में या उस क्षेत्र में जो भी भक्त मृत्यु को प्राप्त होगा, वह भी भवसागर से मुक्ति प्राप्त करेगा।
केदारनाथ क्षेत्र में पंहुचकर उनके पूजन के पश्चात वहां का जल पी लेने से भी मनुष्य मुक्ति को प्राप्त करता है। वहां के जल का पुराणों में विशेष महत्व बताया गया है।
हिमालय में बसा केदारनाथ उत्तरांचल राज्य का एक कस्बा है। यह रुद्रप्रयाग की एक नगर पंचायत है। यह हिंदू धर्म के लिए एक पवित्र स्थान है। केदारनाथ शिवलिंग 12 ज्योतिर्लिंगों में से एक होने के साथ ही चार धामों में भी शामिल है। श्रीकेदारनाथ मंदिर 3,593 फीट की ऊंचाई पर बना हुआ एक भव्य एवं विशाल मंदिर है। इतनी ऊंचाई पर मंदिर को कैसे बनाया गया, यह आज भी एक रहस्य के समान है।
इस धाम के संबंध में शास्त्रों के अनुसार कई कथाएं प्रचलित हैं। एक अन्य कथा के अनुसार सतयुग में शासन करने वाले एक राजा हुए थे, उनका नाम था केदार। राजा केदार के नाम पर भी इस स्थान को केदार पुकारा जाने लगा।
राजा केदार ने सातों महाद्वीपों पर शासन किया था। वे धर्म के मार्ग पर चलने वाले और तेजस्वी राजा थे।
उनकी एक पुत्री थी वृंदा, जो देवी लक्ष्मी की आंशिक अवतार मानी जाती हैं। वृंदा ने 60,000 वर्षों तक तपस्या की थी। वृंदा के नाम पर ही इस स्थान को वृंदावन भी कहा जाता है।
केदारनाथ मंदिर काफी प्राचीन है। ऐसा माना जाता है कि आदिगुरु शंकराचार्य ने भारत में चार धाम स्थापित करने के यहीं समाधि ली थी। तब शंकराचार्य की आयु मात्र 32 वर्ष थी। आदिगुरु ने ही इस मंदिर का निर्माण करवाया था।
केदारनाथ क्षेत्र में एक झील है। इसमें अधिकांश समय बर्फ तैरती रहती है। इस झील का संबंध महाभारत काल से है। ऐसा माना जाता है कि इसी झील से पांडव पुत्र युद्धिष्ठिर स्वर्ग की ओर गए थे।
केदारनाथ धाम मंदिर से करीब छह किलोमीटर दूर एक पर्वत स्थित है। इस पर्वत का नाम है चौखंबा पर्वत। यहां वासुकी नाम का तालब है, जहां ब्रह्म कमल काफी होते हैं। शास्त्रों के अनुसार, ब्रह्म कमल के दर्शन करने पर पुण्य लाभ प्राप्त होता है। इसी वजह से काफी लोग यहां ब्रह्म कमल देखने आते हैं।
यहां गौरी कुंड, सोन प्रयाग, त्रिजुगीनारायण, गुप्तकाशी, उखीमठ, अगस्तयमुनि, पंच केदार आदि दर्शनीय स्थल हैं।